+ गुणवानों के अल्प दोष भी प्रसिद्ध -
दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो दैवानुरोधात्क्वचि
ज्जातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छनसमस्तं द्रष्टुमन्धोऽप्यलम् ।
द्रष्टाप्नोति न तावतास्य पदवीमिन्दोः कलङ्कं जगद्
विश्वं पश्यति तत्प्रभाप्रकटितं किं कोऽप्यगात्तत्पदम् ॥२५०॥
अन्वयार्थ : समस्त गुणों के आधारभूत महात्मा के यदि दुर्भाग्यवश कहीं चारित्र आदि के विषय में कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो चन्द्रमा के लांछन के समान उसको देखने के लिये यद्यपि अन्धा (मन्दबुद्धि) भी समर्थ होता है तो भी वह दोषदर्शी इतने मात्र से कुछ उस महात्मा के स्थान को नहीं प्राप्त कर लेता है । जैसे- अपनी ही प्रभा से प्रगट किये गये चन्द्र के कलंक को समस्त संसार देखता है, परन्तु क्या कभी कोई उक्त चन्द्र की पदवी को प्राप्त हुआ है ? अर्थात कोई भी उसकी पदवी को नहीं प्राप्त हुआ है॥२५०॥
Meaning : Even the blind (the indiscriminate man) is able to see any shortcoming that, like the black spot in the moon, may have unfortunately appeared in the great ascetic. However, this capability of the blind does not get him to the position of the great ascetic. Only because the moon has its own brilliance, the whole world is able to see its black spot. Does the onlooker get to the position of the moon?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जहां अनेक गुणों का समुदाय होता है वहां कभी एक आध दोष भी उत्पन्न हो सकता है। जैसे चन्द्र में आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुण हैं, फिर भी उनके साथ उसमें एक दोष भी है जो कलंक कहा जाता है । वह दोष भी उसकी ही प्रभा (चांदनी) के द्वारा प्रगट किया जाता है, अन्यथा वह उक्त चन्द्र के पास तक न पहुंच सकने के कारण किसी की दृष्टि में ही नहीं आ सकता था। इसी प्रकार जिस साधु में अनेक गुणों के साथ यदि कोई एक आध दोष भी विद्यमान है तो वह अन्य साधारण प्राणियों की भी दृष्टि में अवश्य आ जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी कोई साधु उसके उस दोष को देखकर यदि अन्य जनों के समक्ष उसकी निन्दा करता है तो इससे कुछ वह उस महात्मा के समान उत्कृष्ट नहीं बन जाता है, बल्कि इसके विपरीत उसके अन्य उत्तमोत्तम गुणों के ऊपर दृष्टिपात न करके केवल दोषग्रहण के कारण वह हीन ही अधिक होता है। जैसे कि चन्द्रमा के दोष को (कलंक को) देखने वाले तो बहुत हैं, किन्तु उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो कि उसके समान विश्व को आल्हादित करने वाला हो सके । अभिप्राय यह है कि दूसरों के दोषों को देखने और उनका प्रचार करने से कोई भी जीव अपनी उन्नति नहीं कर सकता है । कारण कि वह आत्मोन्नति तो आत्मदोषों को देखकर उन्हें छोडने और दूसरों के प्रशस्त गुणों को देखकर उन्हें ग्रहण करने से ही हो सकती है । जैसा कि कवि वादीभसिंह ने भी कहा है- अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । अर्थात् जो जीव अन्य प्राणियों के समान अपने भी दोष को देखता है उसके समान कोई दूसरा नहीं हो सकता है । वह यद्यपि शरीर से संयुक्त है, फिर भी वह मुक्त के ही समान है ॥२५०॥