
भावार्थ :
विशेषार्थ- जहां अनेक गुणों का समुदाय होता है वहां कभी एक आध दोष भी उत्पन्न हो सकता है। जैसे चन्द्र में आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुण हैं, फिर भी उनके साथ उसमें एक दोष भी है जो कलंक कहा जाता है । वह दोष भी उसकी ही प्रभा (चांदनी) के द्वारा प्रगट किया जाता है, अन्यथा वह उक्त चन्द्र के पास तक न पहुंच सकने के कारण किसी की दृष्टि में ही नहीं आ सकता था। इसी प्रकार जिस साधु में अनेक गुणों के साथ यदि कोई एक आध दोष भी विद्यमान है तो वह अन्य साधारण प्राणियों की भी दृष्टि में अवश्य आ जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी कोई साधु उसके उस दोष को देखकर यदि अन्य जनों के समक्ष उसकी निन्दा करता है तो इससे कुछ वह उस महात्मा के समान उत्कृष्ट नहीं बन जाता है, बल्कि इसके विपरीत उसके अन्य उत्तमोत्तम गुणों के ऊपर दृष्टिपात न करके केवल दोषग्रहण के कारण वह हीन ही अधिक होता है। जैसे कि चन्द्रमा के दोष को (कलंक को) देखने वाले तो बहुत हैं, किन्तु उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो कि उसके समान विश्व को आल्हादित करने वाला हो सके । अभिप्राय यह है कि दूसरों के दोषों को देखने और उनका प्रचार करने से कोई भी जीव अपनी उन्नति नहीं कर सकता है । कारण कि वह आत्मोन्नति तो आत्मदोषों को देखकर उन्हें छोडने और दूसरों के प्रशस्त गुणों को देखकर उन्हें ग्रहण करने से ही हो सकती है । जैसा कि कवि वादीभसिंह ने भी कहा है- अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । अर्थात् जो जीव अन्य प्राणियों के समान अपने भी दोष को देखता है उसके समान कोई दूसरा नहीं हो सकता है । वह यद्यपि शरीर से संयुक्त है, फिर भी वह मुक्त के ही समान है ॥२५०॥ |