+ ज्ञानियों की वैचारिक दशा -
यद्यद चरितं पूर्वं तत्तदज्ञानचेष्टितम् ।
उत्तरोतरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ॥२५१॥
अन्वयार्थ : पूर्व में जो जो आचरण किया है- दूसरे के दोषों को और अपने गुणों को जो प्रगट किया है- वह सब योगी के लिये आगे आगे विवेकज्ञान की वृद्धि होने से अज्ञानतापूर्ण किया गया प्रतीत होता है ॥२५१॥
Meaning : As the supreme ascetic – yogī – attains knowledge-based discernment, he reckons that his earlier conduct of censuring others and praising self was an act of ignorance.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जबतक विवेकबुद्धि का उदय नहीं होता है तब तक ही व्यक्ति दूसरे की निन्दा और आत्मप्रशंसा आदिरूप हीन आचरण करता है। किन्तु आगे ज्यों ज्यों उसका विवेक बढता है त्यों त्यों उसे वह अपना पूर्व आचरण अज्ञानतावश किया गया स्पष्ट प्रतीत होने लगता है। इसीलिये तब वह दूसरों के दोषों पर ध्यान न देकर अपने आत्मगुणों के विकास का ही अधिकाधिक प्रयत्न करता है ॥२५१॥