+ विवेकियों का आचरण -
अपि सुतपसामाशावल्लीर्शिखा तरुणायते
भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता ।
इति कृतधियः कृच्छारम्भैश्चरन्ति निरन्तरं
चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहाः ॥२५२॥
अन्वयार्थ : जबतक मनरूपी जड के भीतर ममत्वरूप जल से निर्मित गीलापन रहता है तब तक महालपस्वियों की भी आशारूप बेल की शिखा जवान-सी रहती है। इसीलिये विवेकी जीव चिर काल से परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निःस्पृह होकर सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि में समान होकर- निरन्तर कष्टकारक आरम्भों में- ग्रीष्मादि ऋतुओं के अनुसार पर्वत की शिला, वृक्षमूल एवं नदीतट आदि के ऊपर स्थित होकर किये जाने वाले ध्यानादि कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं ॥२५२॥
Meaning : So long as the root of the mind remains moist by the water of infatuation, the creeper of desires of even great ascetics remains green (youthful). The discriminating ascetic, therefore, getting detached from even the body that he is acquainted with for so long, and maintaining equanimity in happiness and misery and in life and death, remains incessantly engaged in meditation, etc., hile enduring self-imposed inflictions on the body, viz., inhabiting places hostile to different seasons – a rock atop a mountain, a tree-base, or a river-bank.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार वेल की जड में जबतक जल के सिंचन से गीलापन रहता है तब तक वह अपनी जवानी में रहती है- हरीभरी बनी रहती है, उसी प्रकार मन में भी जबतक ममत्वभाव रहता है तबतक बडे बडे तपस्वियों की भी आशा (विषयवांछा) तरुण रहती है- अतिशय प्रबल होती है । इसीलिये विवेकी जीव इस सत्य को जानकर अनादि काल से साथ में रहने वाले इस शरीर से भी जब अनुराग छोड देते हैं तब भला प्रत्यक्षमें भिन्न दिखनेवाले स्त्री-पुत्रादिसे उनका अनुराग कैसे रह सकता है? नहीं रह सकता। इस कारण उनकी वह आशा-लता मुरझाकर सूख जाती है ॥२५२॥