+ मुक्ति में ज्ञानादि गुणों का नाश मानना मिथ्या -
गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते।
अत एव हि निर्वाणं शून्यमन्यैर्विकल्पितम् ॥२६५॥
अन्वयार्थ : गुणवान् आत्मा गुणस्वरूप है- गुण से अभिन्न है । अतएव गुण के नाश का मानना गुणी के ही नाश का मानना है । इसीलिये अन्य वादियों ने (बौद्धों ने) आत्मा के निर्वाण को शून्य के समान कल्पित किया है तथा जैनों ने उस निर्वाण को अन्य राग-द्वेषादिरूप शुभाशुभ भावों से शून्य कल्पित किया है ॥२६५॥
Meaning : The soul – the possessor-of-quality (guõavān) – is inseparable from the quality (guõa). Hence, destruction of the quality (guõa) would mean destruction of the possessor-of-quality (guõavān). While the doctrines of the others have imagined liberation (of the soul) as absolute non-existence (śūnya), the Jaina Doctrine has expounded liberation as absolute absence of auspicious (śubha) and inauspicious (aśubha) dispositions due to attachment (rāga) and aversion (dveÈa) in the soul.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- नैयायिक और वैशेषिक गुण और गुणी में सर्वथा भेद को स्वीकार करते हैं। उनके मतानुसार गुणी में गुण समवाय सम्बन्ध से रहते हैं । वह समवाय नित्य, व्यापक और एक है । वे मुक्तावस्था में आत्मा के बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ गुणों का नाश मानते हैं। परन्तु उपर्युक्त प्रकार से गुण और गुणी में सर्वथा भेद मानना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा स्वरूपतः ज्ञानादि गुणों से रहित होने के कारण जड (अचेतन) सिद्ध होता है जो योग्य नहीं है । इसलिये आत्मा को उक्त ज्ञानादि गुणों से अभिन्न मानना चाहिये । और जब वह आत्मा ज्ञानादि गुणों से अभिन्न सिद्ध है तब भला मुक्तावस्था में उन ज्ञानादि गुणों का नाश स्वीकार करने से आत्मा का भी नाश क्यों न स्वीकार करना पडेगा? परन्तु वह बौद्धों के समान वैशेषिकों को इष्ट नहीं है । वैसी मुक्ति तो बौद्ध ही स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार तेल के समाप्त हो जाने पर विनष्ट हुआ दीपक न किसी दिशा को जाता है, न किसी विदिशा को जाता है, न पृथिवी में जाता है; और न आकाश में भी जाता है, किन्तु वह केवल शान्ति को प्राप्त होता है। उसी प्रकार मुक्ति को प्राप्त हुआ जीव भी कहीं न जाकर केवल शान्ति को- शून्यता को-प्राप्त होता है । इस प्रकार उन्होंने जीव के निर्वाण को प्रदीप के निर्वाण के समान शून्यरूप माना है। अतएव गुण और - गुणी में कथंचित् भेदाभेद को स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा उपर्युक्त प्रकार से बौद्धमत का प्रसंग दुर्निवार होगा ॥२६५॥