+ अनन्त सुखमय हैं सिद्ध भगवान -
स्वाधीन्याद्दुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् ।
स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ॥२६७॥
अन्वयार्थ : तपस्वी जो स्वाधीनतापूर्वक कायक्लेशादि के कष्ट को सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुख से सम्पन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे॥२६७॥
Meaning : When the ascetics are happy even out of their endurance of self-inflicted pain, like mortification of the body, why would the liberated souls, endowed with self-dependent bliss, not be happy?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- ऊपर के श्लोक में सिद्धों को सुखी बतलाया गया है। इस पर यह शंका हो सकती थी कि सुख की साधनभूत जो सम्पत्ति आदि है वह तो सिद्धों के पास है नहीं, फिर वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इसके उत्तर में यहां यह बतलाया है कि पराधीनता का जो अभाव है वही वास्तव में सुख है, और वह सिद्धों के पूर्णतया विद्यमान है । सम्पत्ति आदि के संयोग से जो सुख होता है वह पराधीन है । इसलिये तदनुरूप पुण्य के उदय से जब तक उन पर पदार्थों की अनुकूलता है तभी तक वह सुख रह सकता है- इसके पश्चात् वह नष्ट ही होनेवाला है। परन्तु सिद्धों का जो स्वाधीन सुख है वह शाश्वतिक है- अविनश्वर है। देखो, साधुजन अपनी इच्छानुसार कायक्लेशादिरूप अनेक प्रकार के दुख को सहते हैं, परन्तु इसमें उन्हे दुख का अनुभव न होकर सुख का अनुभव होता है । इस प्रकार स्वाधीनता से सहा जाने वाला दुख भी जब उनको सुखस्वरूप प्रतिभासित होता है तब भला प्राप्त हुए उस स्वाधीन सुख से सिद्ध जीव क्यों न सुखी होंगे? वे तो अतिशय सुखी होंगे ही ॥२६७॥