
भावार्थ :
विशेषार्थ- ऊपर के श्लोक में सिद्धों को सुखी बतलाया गया है। इस पर यह शंका हो सकती थी कि सुख की साधनभूत जो सम्पत्ति आदि है वह तो सिद्धों के पास है नहीं, फिर वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इसके उत्तर में यहां यह बतलाया है कि पराधीनता का जो अभाव है वही वास्तव में सुख है, और वह सिद्धों के पूर्णतया विद्यमान है । सम्पत्ति आदि के संयोग से जो सुख होता है वह पराधीन है । इसलिये तदनुरूप पुण्य के उदय से जब तक उन पर पदार्थों की अनुकूलता है तभी तक वह सुख रह सकता है- इसके पश्चात् वह नष्ट ही होनेवाला है। परन्तु सिद्धों का जो स्वाधीन सुख है वह शाश्वतिक है- अविनश्वर है। देखो, साधुजन अपनी इच्छानुसार कायक्लेशादिरूप अनेक प्रकार के दुख को सहते हैं, परन्तु इसमें उन्हे दुख का अनुभव न होकर सुख का अनुभव होता है । इस प्रकार स्वाधीनता से सहा जाने वाला दुख भी जब उनको सुखस्वरूप प्रतिभासित होता है तब भला प्राप्त हुए उस स्वाधीन सुख से सिद्ध जीव क्यों न सुखी होंगे? वे तो अतिशय सुखी होंगे ही ॥२६७॥ |