सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणिदं ।
तं जाणिज्जदि णिच्छय-ववहारसरूव-दोभेयं ॥4॥
सम्यक्त्वरत्नसारं मोक्षमहावृक्षमूलम् इति भणितम् ।
तद् ज्ञायते निश्चय-व्यवहारस्वरूपद्विभेदम्॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व-रत्न सार है और मोक्ष रूपी महान् वृक्ष का मूल है । ऐसा कहा गया है । उसे निश्चय व व्यवहार रूप से दो भेदों वाला जानना चाहिए ॥4॥