णियसुद्धप्पणुरत्तो, बहिरप्पावत्थवज्ज्दिो णाणी ।
जिण-मुणि-धम्मं मण्णदि, गददुक्खो होदि सद्दिठ्ठी ॥6॥
निजशुद्धात्मानुरक्त:, बहिरात्मावस्थावर्जित: ज्ञानी ।
जिन-मुनि-धर्मं मन्यते गतदु:खो भवति सद्दृष्टि:॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि निज शुद्धात्मा में अनुरक्त रहता है, बहिरात्मा की दशा से रहित (पराङ्मुख) होता है, आत्मज्ञानी होता है, जिनेन्द्र, मुनि और धर्म को मानता है (श्रद्धा रखता है) और दु:खरहित होता है ॥6॥