दिण्णदि सुपत्तदाणं विसेसदो होदि भोगसग्गमही ।
णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दिठ्ठं जिणवरिंदेहिं ॥16॥
दीयते सुपात्रदानं विशेषतो भवति भोगस्वर्गमही ।
निर्वाणसुखं क्रमशो निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रै:॥
अन्वयार्थ : सुपात्र-दान जो दिया जाता है, विशेष रूप से भोगभूमि वस्वर्ग होता है । और क्रमश: निर्वाण सुख भी है । ऐसाजिनेन्द्र देव ने बताया है ॥16॥