जसकित्तिपुण्णलाहे देदि सुबहुगं पि जत्थ तत्थेव ।
सम्मादिसुगुणभायण-पत्तविसेसं ण जाणंति ॥27॥
यश:कीर्तिपुण्यलाभाय ददाति सुबहुकमपि यत्र तत्रैव ।
सम्यक्त्वादिसुगुणभाजन-पात्रविशेषं न जानन्ति॥
अन्वयार्थ : (यश-कीर्ति आदि का लोभी) यश-कीर्ति व पुण्य के लाभ हेतुजहाँ-तहाँ बहुत ज्यादा भी दान देता है, किन्तु सम्यक्त्व आदि सशुणों के पात्रों की विशेषताका ज्ञान (ऐसे लोगों को) नहीं होता ॥27॥