दाणीणं दारिद्दं लोहीणं किं हवदि महइसिरियं ।
उहयाणं पुव्वज्ज्दिकम्मफलं जाव होदि थिरं ॥29॥
दानिनां दारिद्र्यं लोभिनां किं भवति महैश्वर्यम् ।
उभयो: पूर्वार्जितकर्मफलं यावत् भवति स्थिरम्॥
अन्वयार्थ : दानी दरिद्र क्यों हो जाता है और लोभी (दानी) के महान् ऐश्वर्य क्योंहोता है? (उत्तर । ) दोनों के पूर्व-उपार्जित (शुभाशुभ) कर्मों का जो (या जितना-जबतक) फल स्थिर (विद्यमान, उदयप्राप्त) रहता है (तदनुरूप दरिद्रता आदि हैं, दान देना यान देना । ये वहाँ कारण नहीं) ॥29॥