सम्मविसोही-तवगुण-चारित्त-सण्णाण-दाण-परिहीणं ।
भरहे दुस्समयाले मणुयाणं जायदे णियदं ॥38॥
सम्यक्त्वविशुद्धि-तपो-गुण-चारित्र-सज्ज्ञान-दान-परिहीन(त्व)म् ।
भरते दु:षमकाले मनुजानां जायते नियतम्॥
अन्वयार्थ : (इस) भरत (क्षेत्र) में दु:षमा (नामक पञ्चम) काल में मनुष्यों केनिश्चय ही सम्यग्दर्शन-विशुद्धि, तप, मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान व दान (की प्रवृत्ति) ।इनमें हीनता होती है ॥38॥