एक्क खणं ण वि चिंतदि मोक्खणिमित्तं णियप्पसब्भावं ।
अणिसि विचिंतदि पावं बहुलालावं मणे विचिंतेदि ॥50॥
एकं क्षणं नापि चिन्व्यति मोक्षनिमित्तं निजात्मस्वभावम् ।
अनिशं विचिन्व्यति पापं बहुलालापं मनसि विचिन्व्यति॥
अन्वयार्थ : (वह सम्यक्त्वहीन जीव) मोक्ष-प्राप्ति के निमित्तभूत आत्म-स्वभावका एक क्षण भी चिन्तन नहीं करता । (वह तो) दिनरात पाप का चिन्तन करता रहता हैऔर मन में बहुत कुछ बोलता और सोचता रहता है ॥50॥