मिच्छामदि मदमोहासवमत्तो बोल्लदे जहा भुल्लो ।
तेण ण जाणदि अप्पा, अप्पाणं सम्मभावाणं ॥51॥
मिथ्यामति: मदमोहासवमत्त: वदति यथा विस्मृत: ।
तेन न जानाति आत्मा आत्मानं (आत्मन:) साम्यभावान्॥
अन्वयार्थ : मिथ्यादृष्टि जीव मद व मोह रूपी आसव से मत्त, उन्मत्त होकर, भुलक्कड़ व्यक्ति की तरह बोलता है, इस कारण वह स्वयं अपनी आत्मा के साम्य भाव को नहीं जानता ॥51॥