अज्ज्वसप्पिणि भरहे पउरा रुद्दठ्ठज्झाणया दिठ्ठा ।
णठ्ठा दुा कठ्ठा पापिठ्ठा किण्ह-णील-काओदा ॥54॥
अद्य अवसर्पिण्यां भरते प्रचुरा: रौद्रार्तध्यानिन: दृष्टा: ।
नष्टा: दुष्टा: कष्टा: पापिठा: कृष्ण-नील-कापोता:॥
अन्वयार्थ : वर्तमान अवसर्पिणी काल एवं भरत क्षेत्र में प्रचुर संख्या में रौद्रध्यानी,आर्तध्यानी, (सम्यक्त्व से) नष्ट, दुष्ट (दूषित विचार वाले), कष्ट से ग्रस्त, पापी, तथाकृष्ण, नील व कापोत । इन तीन अप्रशस्त लेश्या वाले देखे जाते हैं ॥54॥