मोह ण छिज्ज्दि अप्पा, दारुणकम्मं करमदि बहुवारं ।
ण हु पावदि भवतीरं, किं बहुदुक्खं वहेदि मूढमदी ॥63॥
मोहं न छिनत्ति अप्पा दारुणकर्म करोति बहुवारम् ।
न खलु प्राप्नोति भवतीरं, किं बहुदु:खं वहति मूढमति:॥
अन्वयार्थ : (जब तक कोई) आत्मा मोह मिथ्यात्व का भेदन नहीं करता, औरअनेक बार दारुण कर्म (कायक्लेश व्रत, उपवास आदि) करता है, (वह) मूढ़मति संसारका पार नहीं प्राप्त कर सकता है, वह क्यों अनेक दु:ख उठा रहा है? (क्यों नहीं मिथ्यात्वको छोड़ देता?) ॥63॥