धरियउ बाहिरलिंगं परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हि ।
करियउ किरियाकम्मं, मरियउ जम्मियउ बहिरप्प जीवो ॥64॥
धृत्वा बाह्यलिङ्गं परिहृत्य बाह्याक्षसौख्यं हि ।
कृत्वा क्रियाकर्म म्रियते जायते बहिरात्मा जीव:॥
अन्वयार्थ : बाह्य वेश को धारण कर तथा बाह्य इन्द्रिय-सुख का त्यागकर, क्रिया-काण्डको करता हुआ भी बहिरात्मा जीव (यूं ही) मरता है और जन्मता है (मुक्ति नहीं प्राप्त करता) ॥64॥