मोक्खणिमित्तं दुक्खं वहेदि परलोयदिठ्ठि तणुदण्डी ।
मिच्छाभाव ण छिज्ज्इ किं पावइ मोक्खसोक्खं हि ॥65॥
मोक्षनिमित्तं दु:खं वहति परलोकदृष्टि: तनुदण्डी ।
मिथ्यात्वभावं न छिनत्ति, किं प्राप्नोति मोक्षसौख्यं हि॥
अन्वयार्थ : उस (मिथ्यादृष्टि) की दृष्टि तो परलोक (के सुखों) पर रहती है, वह(मात्र) शरीर को क्लेश देता हुआ मोक्ष के निमित्त से दु:ख सहन करता है, (किन्तु) मिथ्यात्वभाव का उच्छेद किये बिना मोक्ष का सुख क्या प्राप्त कर पाता है? (अर्थात् नहीं) ॥65॥