ण हु दंडदि कोहादिं, देहं दंडदि कहं खवदि कम्मं ।
सप्पो किं मुवदि तहा वम्मीए मारिदे लोए ॥66॥
न खलु दण्डयति क्रोधादीन्, देहं दण्डयति, कथं क्षिपति कर्म ।
सर्प: किं म्रियते तथा वल्मीके मारिते लोके॥
अन्वयार्थ : जो देह को तो दण्ड देता है, किन्तु क्रोधआदि को दंडित नहीं करता, वह कर्मक्षय किस प्रकार करेगा?लोक में सांप के बिल को मारने से सर्प मरता है क्या? वही स्थिति यहाँ है ॥66॥