जाव ण जाणदि अप्पा अप्पाणं दुक्खमप्पणो ताव ।
तेण अणंतसुहाणं अप्पाणं भावए जोई ॥85॥
यावत् न जानाति आत्मा आत्मानं दु:खमात्मन: तावत् ।
तेन अनन्तसुखम् आत्मानं भावयेत् योगी ॥
अन्वयार्थ : जब तक यह आत्मा स्वयं (के शुद्ध स्वरूप) को नहीं जान लेता,तभी तक उसके दु:ख रहता है । अत: योगी को चाहिए कि वह अनन्तसुख स्वरूपी आत्माकी भावना (चिन्तन-मननादि) करता रहे ॥85॥