सालविहीणो राओ दाणदयाधम्मरहिदगिहिसोहा ।
णाणविहीण तवो वि य जीव विणा देहसोहं व ॥87॥
सालविहीनो राजा, दानदयाधर्मरहितगृहिशोभा ।
ज्ञानविहीनं तपोऽपि च जीवं विना देहशोभा इव ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार दुर्ग के बिना राजा की, दान व दया धर्म से रहित गृहस्थकी, तथा जीव के बिना देह की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान के बिना तप भी शोभा प्राप्त नहीं करता ॥87॥