सुदणाणब्भासं जो ण कुणदि सम्मं ण होदि तवयरणं ।
कुव्वंतो मूढमदी संसारसुहाणुरत्तो सो ॥92॥
श्रुतज्ञानाभ्यासं यो न करोति, सम्यक् न भवति तपश्चरणम् ।
कुर्वन् मूढमति: संसारसुखानुरक्त: स: ॥
अन्वयार्थ : श्रुत (शास्त्र) का ज्ञानाभ्यास जो नहीं करता, उसका तपश्चरणसमीचीन (यथार्थ) नहीं होता । (क्योंकि) वह (तब) तपश्चरण करता हुआ भी सांसारिकसुख में अनुरक्त होता है ॥92॥