णिंदावंचणदूरो, परिसहउवसग्गदुक्ख सहमाणो ।
सुहझाणज्झयणरदो गयसंगो होदि मुणिराओ ॥95॥
निन्दार्वनदूर:, परीषहोपसर्गदु:खं सहमान: ।
शुभध्यानाध्ययनरत: गतसङ्गो भवति मुनिराज: ॥
अन्वयार्थ : वे (दूसरों की) निन्दा व वंचना (ठगने की प्रवृत्ति) से दूर रहा करते हैं, परीषह वउपसर्ग के दु:खों को सहन करने वाले होते हैं, शुभ ध्यान व स्वाध्याय में निरत रहते हैं, ऐसेपरिग्रह-रहित मुनिराज होते हैं ॥95॥