आरंभे धणधण्णे उवयरणे कंखिया तहासूया ।
वयगुणसीलविहीणा कसायकलहप्पिया मुहरा ॥101॥
संघविरोहकुसीला सच्छंदा रहिदगुरुकुला मूढा ।
रायादिसेवया ते जिणधम्मविराहया साहू ॥102॥
आरम्भे धनधान्ये उपकरणे कांक्षितास्तथा असूयका: ।
व्रत-गुण-शीलविहीना: कषायकलहप्रिया: मुखरा: ॥
संघविरोधकुशीला: स्वच्छन्दा: गुरुकुलरहिता: मूढा: ।
राजादिसेवका: ते जिनधर्मविराधका: साधव: ॥
अन्वयार्थ : जो साधु आरम्भ (व्यापार आदि) में, धन-धान्य में तथा उपकरण मेंआकांक्षा (विशेष चाह) रखते हैं, जो ईष्र्यालु हैं, जो व्रत, गुण व शील से रहित हैं, जोकषाय व कलहों में प्रीति रखते हैं, जो वाचाल हैं, संघ में विरोध करने का जिनका स्वभावहै, जो स्वच्छन्द (अमर्यादित) हैं, जो गुरु-कुल में नहीं रहते, जो मूढ़ (मोहग्रस्त हैं), और जोराजा आदि के सेवक हैं, वे जैन धर्म की विराधना करने वाले हैं ॥101-102॥