ण सहंति इदरदप्पं थुवंति अप्पाणमप्पमाहप्पं ।
जिब्भणिमित्तं कुणंति कज्ज्ं ते साहु सम्म-उम्मुक्का ॥105॥
न सहन्ते इतरदर्पं स्तुवन्ति आत्मानम् आत्ममाहात्म्यम् ।
जिउीानिमित्तं कुर्वन्ति कार्यं ते साधव: सम्यक्त्व-उन्मुक्ता: ॥
अन्वयार्थ : जो दूसरम के बड़प्पन को सहन नहीं करते और स्वयं का एवं अपनेमहत्त्व का ही गुणगान करते हैं, तथा अपनी जिउीा के लिए प्रयत्नशीलरहते हैं, वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं ॥105॥