चम्मठ्ठिमंसलवलुद्धो सुणहो गज्जदे मुणिं दिठ्ठा ।
जह तह पाविठ्ठो सो धम्मिठ्ठं सगीयठ्ठो ॥106॥
चर्मास्थिमांसलवलुब्ध: शुनक: गर्जति मुनिं दृष्ट्वा ।
यथा तथा पापिष्ठ: स धर्मिठं दृष्ट्वा स्वकीयार्थ: ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार चर्म, अस्थि व मांस का लोभी कुत्ता मुनि को देखकरभोंकता है, उसी प्रकार (सम्यक्त्वरहित) वह पापी अपने स्वार्थ को दृष्टि में रखकर किसीधर्मात्मा को देखकर भोंकता है । विपरीत भाषण करता है ॥106॥