दिव्वुत्तरणसरिच्छं जाणिच्चाहो धरमदि जदि सुद्धो ।
तत्तायसपिंडसमं भिक्खू तुह पाणिगदपिंडं ॥113॥
दिव्योत्तरणसदृशं ज्ञात्वा अहो धर इति यदि शुद्धम् ।
तप्तायसपिण्डसमं भिक्षो! तव पाणिगतपिण्डम् ॥
अन्वयार्थ : हे मुने! तुम्हारम (अपने) हाथों में रखा हुआ आहार (पिण्ड) अग्नि मेंतपाये हुए लोहे के पिण्ड की तरह यदि शुद्ध (व निर्दोष) है, तो उसे दिव्य नौका की तरहजान कर ग्रहण करो ॥113॥