ण वि जाणदि जिणसिद्ध सरूवं तिविहेण तह णियप्पाणं ।
जो तिव्वं कुणदि तवं सो हिंडदि दीहसंसारम ॥116॥
नापि जानाति जिनसिद्धस्वरूपं त्रिविधेन तथा निजात्मानम् ।
य: तीव्रं करोति तप: स हिण्डते दीर्घसंसारम ॥
अन्वयार्थ : जो जीवात्मा जिनेन्द्र देव व सिद्ध परमेठी के स्वरूप को तथा अपनीआत्मा को उसके (बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा । इन) तीन भेदों के साथ नहीं जानताहै, वह (भले ही) तीव्र तप करम, किन्तु दीर्घ संसार में भ्रमण करता (भटकता) रहता है ॥116॥