णिच्छयववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणदि सो ।
जं कीरदि तं मिच्छारूवं सव्वं जिणुद्दिठ्ठं ॥119॥
निश्चयव्यवहारस्वरूपं यो रत्नत्रयं न जानाति स: ।
यत् करोति तत् मिथ्यारूपं सर्वं जिनोद्दिष्टम् ॥
अन्वयार्थ : जो रत्नत्रय को निश्चय व व्यवहार । इन (दो) स्वरूपों से नहीं जानताहै, वह जो कुछ भी (आचरण) करता है, वह सब मिथ्यारूप (निष्प्रयोजन) होता है, ऐसाजिनेन्द्र देव ने कहा है ॥119॥