णिय-अप्पणाणझाणज्झयणसुहामियरसायणं पाणं ।
मोत्तूणक्खाण सुहं जो भुंजदि सो हु बहिरप्पा ॥126॥
निजात्मज्ञानध्यानाध्ययनसुखामृतरसायनपानम् ।
मुक्त्वा अक्षाणां सुखं यो भुंक्ते स खलु बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो निज आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूपी अमृत-तुल्य रसायनके पान को छोड़ कर, इन्द्रियों के सुख को भोगता है, वह निश्चय ही 'बहिरात्मा' है ॥126॥