सिविणे वि ण भुंजदि विसयाइं देहादिभिण्णभावमदी ।
भुंजदि णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ॥133॥
स्वप्नेऽपि न भुंक्ते विषयान् देहादिभिन्नभावमति: ।
भुंक्ते निजात्मरूपं शिवसुखरक्तस्तु मध्यमात्मा स: ॥
अन्वयार्थ : जो स्वप्न में भी विषयों का सेवन नहीं करता है और शरीर आदि सेभिन्न अपनी आत्मा को मानता है, तथा जो मोक्ष-सुख में लीन अपनी आत्मा का अनुभवकरता है, वह मध्यम आत्मा (अन्तरात्मा) होता है ॥133॥