कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो समपरस्स वेरग्गो ।
सुदभावणेण तत्तिय तम्हा सुदभावणं कुणह ॥151॥
कुशलस्य तप:, निपुणस्य संयम: शमपरस्य वैराग्यम् ।
श्रुतभावनेन तत्-त्रयं तस्मात् श्रुतभावनां कुर्यात् ॥
अन्वयार्थ : कुशल साधक को तप की सिद्धि हो जाती है, निपुण साधक कोसंयम और शमभावी (शान्तस्वभावी) को वैराग्य हो जाता है, किन्तु श्रुत की भावना (बारम्बारअभ्यास) से ये तीनों सध जाते हैं, इसलिए श्रुतभावना करनी चाहिए ॥151॥