
सम्मद्दंसण सुद्धं जाव दु लभदे हि ताव सुही ।
सम्मद्दंसण सुद्धं जाव ण लभदे हि ताव दुही ॥153॥
सम्यग्दर्शनं शुद्धं यावत् तु लभते हि तावत् सुखी ।
सम्यग्दर्शनं शुद्धं यावत् न लभते हि तावत् दु:खी ॥
अन्वयार्थ : जब तक यह जीव शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त करता, तब तक दु:खी रहता है । किन्तु जब शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, तब सुखी हो जाता है ॥153॥