
मिच्छंधयाररहिदं हियमज्झं सम्मरयणदीवकलावं ।
जो पज्ज्लदि स दीसदि, सम्मं लोयत्तयं जिणुद्दिठ्ठं ॥160॥
मिथ्यात्वान्धकाररहिते हृदयमध्ये सम्यक्त्वरत्नदीप-कलापम् ।
य: प्रज्वालयति स पश्यति सम्यक् लोकत्रयं जिनोद्दिष्टम्॥
अन्वयार्थ : जो मिथ्यात्व रूपी अन्धकार से रहित अपने हृदय में सम्यक्त्व रत्नरूपी दीप-समूह को प्रज्वलित करता है, वह तीनों लोकों को भलीभांति देखताहै ॥160॥