कतकफलभरियणिम्मल जलं ववगयकालिया सुवण्णं च ।
मलरहियसम्मजुत्तो भव्ववरो लहइ लहु मोक्खं ॥161॥
कतकफलभृतनिर्मलं जलं व्यपगतकालिकं सुवर्णं च ।
मलरहितसम्यक्त्वयुक्तो भव्यवरो लभते लघु मोक्षम् ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार निर्मली (कतक) डालने से जल निर्मल हो जाता है,(आग से) सुवर्ण की कालिमा दूर हो जाती है, उसी प्रकार निर्दोष सम्यक्त्व से युक्त श्रेठभव्य प्राणी शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है ॥161॥