+ आगम और तत्त्व की मीमांसा -
कल्प - ३

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

(अब ग्रन्थकार आगम और तत्त्वकी मीमांसा करते हैं-)

देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तद्वचनक्रमम् ।
ततश्च तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मतिं ततः ॥94॥
येऽविचार्य पुनर्देवं रुचिं तद्वाचि कुर्वते ।
तेऽन्धास्तत्स्कन्धविन्यस्तहस्ता वाञ्छन्ति सद्गतिम् ॥95॥
पित्रोः शुद्धौ यथाऽपत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते ।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता ॥96॥
सब से प्रथम देव की परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनों की परीक्षा करनी चाहिए । उसके बाद उसमें मन को लगाना चाहिए। जो लोग देव की परीक्षा किये बिना उसके वचनों का आदर करते हैं वे अन्धे हैं और उस देव के कन्धेपर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं। जैसे माता-पिता के शुद्ध होनेप र सन्तान में शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्त के विशुद्ध होने पर ही आगम में शुद्धता हो सकती है। अर्थात् यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगम में भी कोई दोष नहीं पाया जाता ।अतः पहले आप्त या देव की परीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद उसके वचनों को प्रमाण मानना चाहिए ॥94-96॥

वाग्विशुद्धापि दुष्टा स्याद् वृष्टिवत्पात्रदोषतः ।
वन्द्यंव चस्तदेवोच्चस्तोयवत्तीर्थसंश्रयम् ॥97॥
जैसे वर्षा का पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता है या सांप के मुख में जाकर विषरूप हो जाता है, वैसे ही पात्र के दोष से विशद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है। तथा जैसे तीर्थ का आश्रय लेने वाला जल पूज्य होता है वैसे ही जो वचन तीर्थकरों का आश्रय ले लेता है अर्थात् उनके द्वारा कहा जाता है वही पूज्य होता है ॥ 97॥

दृष्टेऽर्थे वेचसोऽध्यक्षादनमेयेऽनुमानतः।

पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाणता ॥98॥

जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे प्रत्यक्ष से देखा जा सकता है, उस वचन की प्रमाणता प्रत्यक्ष से साबित हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे अनुमान से ही जाना जा सकता है उस वचन की प्रमाणता अनुमान से साबित होती है। और जो वचन बिल्कुल परोक्ष वस्तु को कहता है, जिसे न प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है और न अनुमान से, पूर्वापर में कोई विरोध न होने से उस वचन की प्रमाणता सिद्ध होती है। अर्थात् यदि उस वचन के द्वारा कही गई बातें आपस में कटती नहीं हैं, तो उस वचन को प्रमाण माना जाता है ॥98॥

(भावार्थ- शास्त्रों में बहुत सी ऐसी बातों का भी कथन पाया जाता है जिनके विषय में न युक्ति से काम लिया जा सकता है और न प्रत्यक्ष से, ऐसे कथन को सहसा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। अतः उन शास्त्रों की अन्य बातें, जो प्रत्यक्ष और अनुमान से जानी जा सकती हैं वे यदि ठीक ठहरती हैं और यदि उनमें परस्पर में विरोधी बातें नहीं कही गई हैं तो उन शास्त्रों के ऐसे कथन को भी प्रमाण ही मानना चाहिए ।)

पूर्वापरविरोधेन यस्तु युक्तया च बाध्यते ।
मत्तोन्मत्तवचःप्रख्यः स प्रमाणं किमागमः ॥99॥
जिस आगम में परस्पर में विरोधी बातों का कथन है और युक्ति से भी बाधा आती है, पागल की बकवाद के समान उस आगम को कैसे प्रमाण माना जा सकता है ॥99॥

आगम का स्वरूप और विषय


हेयोपादेयरूपेण चतुर्वर्गसमाश्रयात् ।

कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः ॥100॥

आत्माना त्मस्थितिलोको बन्धमोक्षौ सहेतुको ।

आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ॥101॥

जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर, हेय और उपादेय रूप से त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है उसे आगम कहते हैं ॥ 100॥ तत्त्व के ज्ञाताओं का कहना है कि आगम में जीव, अजीव, उनके रहने के स्थान, लोक तथा अपने-अपने कारणों के साथ बन्ध और मोक्ष का कथन होता है ॥101॥

(भावार्थ- जिसमें चारों पुरुषार्थों का वर्णन करते हुए यह बतलाया गया हो कि क्या छोड़ने योग्य है और कौन ग्रहण करने योग्य है वही सच्चा आगम है। उस आगम में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का वर्णन रहता है।)



प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक है

उत्पत्तिस्थितिसंहारसाराः सर्वे स्वभावतः ।
नयद्वयाश्रयादेते तरङ्गा इव तोयधेः ॥102॥
जैसे समुद्र में लहरें होती हैं वैसे ही सभी पदार्थ द्रब्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होते हैं ॥102 ॥

(भावार्थ-जैन धर्म में प्रत्येक वस्तु को प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त माना है अर्थात् प्रत्येक वस्तु प्रति समय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और स्थिर भी रहती है। इस पर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों बातें तो परस्पर में विरुद्ध हैं, अतः एक वस्तु में एक साथ वे तीनों बातें कैसे हो सकती हैं, क्योंकि जिस समय वस्तु उत्पन्न होती है उस समय वह नष्ट कैसे हो सकती है और जिस समय नष्ट होती है उसी समय वह उत्पन्न कैसे हो सकती है। तथा जिस समय नष्ट और उत्पन्न होती है उस समय वह स्थिर कैसे रह सकती है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील है। संसारमें कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। उदाहरण के लिए बच्चा जब जन्म लेता है तो छोटा सा होता है, कुछ दिनों के बाद वह बड़ा हो जाता है। उसमें जो बढ़ोतरी दिखाई देती है वह किसी खास समय में नहीं हुई है, किन्तु बच्चे के जन्म लेने के क्षण से ही उसमें बढ़ोतरी प्रारम्भ हो जाती है और जब वह कुछ बड़ा हो जाता है तो वह बढ़ोतरी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है। इसी तरह एक मकान सौ वर्ष के बाद जीर्ण होकर गिर पड़ता है। उसमें यह जीर्णता किसी खास समय में नहीं आई, किन्तु जिस क्षण से वह बनना प्रारम्भ हुआ था उसी क्षण से उसमें परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया था उसी का यह फल है जो कुछ समयके बाद दिखाई देता है। अन्य भी अनेक दृष्टान्त हैं जिनसे वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील प्रमाणित होती है। इस तरह वस्तु के परिवर्तनशील होने से उसमें एक साथ तीन बातें होती हैं, पहली हालत नष्ट होती है और जिस क्षणमें पहली हालत नष्ट होती है उसी क्षणमें दूसरी हालत उत्पन्न होती है। ऐसा नहीं है कि पहली हालत नष्ट हो जाये उसके बाद दूसरी हालत उत्पन्न हो । पहली हालत का नष्ट होना ही तो दूसरी हालतकी उत्पत्ति है । जैसे, कुम्हार मिट्टी को चाक पर रखकर जब उसे घुमाता है तो उस मिट्टी की पहली हालत बदलती जाती है और नई-नई अवस्थाएँ उसमें उत्पन्न होती जाती हैं। पहली हालत का बदलना और दूसरी का बनना दोनों एक साथ होते हैं । यदि ऐसा माना जायेगा कि पहली हालत नष्ट हो चुकने के बाद दूसरी हालत उत्पन्न होती है तो पहली हालत के नष्ट हो चुकने और दूसरी हालत के उत्पन्न होने के बीच में वस्तु में कौन-सी हालत दशा मानी जायेगी। घड़ा जिस क्षण में फूटता है उसी क्षण में ठीकरे पैदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि घड़ा पहले फूट जाता है पीछे से उसके ठीकरे बन जाते हैं। घड़े का फूटना ही ठीकरे का उत्पन्न होना है और ठीकरे का उत्पन्न होना ही घड़े का फूटना है। अतः उत्पाद और विनाश दोनों एक साथ होते हैं—एक ही क्षण में एक पर्याय नष्ट होती है और दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, और इनके उत्पन्न और नष्ट होने पर भी द्रव्य-मूल वस्तु कायम रहता है -न वह उत्पन्न होता है। और न नष्ट । जैसे घड़ेक फूट जाने और ठीकरे के उत्पन्न हो जाने पर भी मिट्टी दोनों हालतों में बराबर कायम रहती है ।अतः वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त कहलाती है।)

तयाक्षयैकपक्षत्वे बन्धमोक्षक्षयागमः ।
तात्त्विकैकत्वसद्भावे स्वभावान्तरहानितः ॥103॥
वस्तु को देखने की दो दृष्टियाँ हैं- एक दृष्टि का नाम है द्रव्यार्थिक और दूसरी का नाम है पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से वस्तु ध्रुव है, और पर्यायार्थिक नय दृष्टि से उत्पाद व्ययशील है। यदि वस्तु को केवल प्रतिक्षण विनाशशील या केवल नित्य माना जायेगा तो बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। क्योंकि सर्वथा एक रूप मानने पर उसमें स्वभावान्तर नहीं हो सकेगा ॥103॥

(भावार्थ – वस्तु को उत्पाद विनाशशील न मानकर यदि सर्वथा क्षणिक ही माना जायेगा तो प्रत्येक वस्तु दूसरे क्षण में नष्ट हो जायेगी। ऐसी अवस्था में जो आत्मा बँधा है वह तो नष्ट हो जायेगा तब मुक्ति किसकी होगी ? इसी तरह यदि वस्तु को सर्वथा नित्य माना जायेगा तो वस्तु में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा। और परिवर्तन न होने से जो जिस रूप में है वह उसी रूप में बनी रहेगी । अतः बद्ध आत्मा सदा बद्ध ही बना रहेगा, अथवा कोई आत्मा बंधेगा ही नहीं; क्योंकि जब वस्तु सर्वथा नित्य है तो आत्मा सदा एक रूप ही रहेगा, न वह कर्ता हो सकेगा और न भोक्ता ।यदि उसे कर्ता भोक्ता माना जायेगा तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा। अतः प्रत्येक वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य मानना चाहिए ।)

आत्मा का स्वरूप


ज्ञाता दृष्टा महान सूक्ष्मः कृतिभुक्त्योः स्वयं प्रभुः।
भोगायतनमात्रोऽयं स्वभावादूर्ध्वगः पुमान् ॥104॥
ज्ञानदर्शनशून्यस्य न भेदः स्यादचेतनात् ।
ज्ञानमात्रस्य जीवत्वे नैकधीश्चित्रमित्रवत् ॥105॥
आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है,महान् और सूक्ष्म है, स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही भोक्ता है। अपने शरीरके बराबर है । तथा स्वभाव से हो ऊपर को गमन करनेवाला है॥ यदि आत्मा को ज्ञान और दर्शन से रहित माना जायेगा तो अचेतन से उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। अर्थात् जड़ और चेतन दोनों एक हो जायेंगे। और यदि ज्ञानमात्र को जीव माना जायेगा तो चित्र मित्र की तरह एक बुद्धि नहीं बनेगी ॥104-105॥

प्रेर्यते 'कर्म जीवेन जीवः प्रेयेत कर्मणा ।
एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ॥106॥
जीव कर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीव को प्रेरित करता है। इन दोनों का सम्बन्ध नौका और नाविक के समान है। कोई तीसरा इन दोनों का प्रेरक नहीं है ॥106 ॥

मन्त्रवन्नियतोऽप्येषोऽचिन्त्यशक्तिः स्वभावतः ।
अतः शरीरतोऽन्यत्र न भावोऽस्य प्रमान्वितः ॥107॥
जैसे मंत्र में कुछ नियत अक्षर होते हैं, फिर भी उसकी शक्ति अचिन्त्य होती है उसी तरह यद्यपि आत्मा शरीर परिमाणवाला है, फिर भी वह स्वभाव से ही अचिन्त्य शक्तिवाला है, अतः शरीर से अन्यत्र उसका अस्तित्व प्रमाणित नहीं है ॥107॥

जीव के भेद


त्रसस्थावरभेदेन चतुर्गतिसमाश्रयाः ।
जीवाः केचित्तथान्ये च पञ्चमी गतिमाश्रिताः ॥108॥
त्रस और स्थावर के भेद से जीव दो प्रकार के हैं; जो नरकगति, तिर्यञ्चगति मनुष्यगति, और देवगति में पाये जाते हैं । ये सब संसारी जीवों के भेद हैं । और पञ्चम गति को प्राप्त मुक्त जीव होते हैं ॥108॥

अजीव द्रव्य


धर्माधर्मौ नभः कालो पुद्गलश्चेति पञ्चमः ।
अजीवशब्दवाच्याः स्युरेते विविधपर्ययाः ॥109॥
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य कहलाते हैं । इनकी अनेक पर्यायें होती हैं ॥109॥

गतिस्थित्यप्रतीघातपरिणामनिबन्धनम् ।
चत्वारः सर्ववस्तूनां रूपाचात्मा च पुद्गलः ॥110॥
धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की गति में निमित्त कारण है। अधर्म द्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त कारण है। आकाश सब वस्तुओं को स्थान देने में निमित्त है और काल सब के परिणमन में निमित्त है। तथा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं, उसे पुद्गल कहते हैं ॥110॥

अन्योन्यानुप्रवेशेन बन्धः कर्मात्मनो मतः ।
अनादिः सावसानश्च कालिकास्वर्णयोरिव ॥111॥
प्रेकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशप्रविभागतः।
चतुर्धा भिद्यते बन्धः सर्वेषामेव देहिनाम् ॥112॥
बन्ध का स्वरूप और भेद आत्मा और कर्म का अन्योन्यानुप्रवेशरूप बन्ध होता है अर्थात् आत्मा और कर्म के प्रदेश परस्पर में मिल जाते हैं। स्वर्ण और कालिमा के बन्ध की तरह यह बन्ध अनादि और सान्त होता है अर्थात् जैसे सोने में खान से ही मैल मिला होता है और बाद में मैल को दूर करके सोने को शुद्ध कर लिया जाता है वैसे ही जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सान्त है,उसका अन्त हो जाता है। यह बन्ध चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशवन्ध ।यह चारों प्रकार का बंध सभी शरीरधारी जीवों के होता है ॥111-112॥

(भावार्थ – प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव है। कर्मोंमें ज्ञानादिको घातनेका जो स्वभाव उत्पन्न होता है,उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । कर्मों में अपने अपने स्वभाव को न त्यागकर जीव के साथ बंधे रहने के काल की मर्यादा के पड़ने को स्थिति बन्ध कहते हैं ।उनमें फल देने की न्यूनाधिक शक्ति के होने को अनुभाग बन्ध कहते हैं और न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्मस्कन्धों का जीव के साथ सम्बन्ध होने को प्रदेश बन्ध कहते हैं। सारांश यह है कि जीव के योग और कषायरूप भावों का निमित्त पाकर जब कार्मण वर्गणाएँ कर्मरूप परिणत होती हैं तो उनमें चार बातें होती हैं, एक उनका स्वभाव, दूसरे स्थिति, तीसरे फल देने की शक्ति और चौथे अमुक परिमाण में उसका जीव के साथ सम्बद्ध होना। इन चार बातों को ही चार बन्ध कहते हैं। सभी जीवों के दसवें गुणस्थान तक ये चारों प्रकारके बन्ध होते हैं ।आगे कषाय का उदय न होने से स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध नहीं होता। तथा चौदहवें गुणस्थान में योग के भी न रहने से कोई बन्ध नहीं होता। इस तरह अनादि होने पर भी यह बन्ध भव्य जीवके सान्त होता है।)

मोक्ष का स्वरूप


आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात् ।

नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥113॥

रागद्वेषादि रूप आभ्यन्तर मल के क्षय हो जाने से जीव के स्व स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष मै न तो आत्मा का अभाव ही होता है, न आत्मा अचेतन ही होता है और चेतन होने पर भी न आत्मा में ज्ञानादि का अभाव ही होता है ॥113 ॥

(भावार्थ – पहले बतला आये हैं कि बौद्ध आत्मा के अभाव को ही मोक्ष मानते हैं, वैशेषिक आत्मा के विशेष गुणों के अभाव को मोक्ष कहता है और सांख्य ज्ञानादि से रहित केवल चैतन्य को ही मुक्त आत्मा का स्वरूप मानता है। इन सभी को दृष्टि में रखकर ग्रन्थकार ने मोक्ष का स्वरूप बतलाया है।)

बन्ध और मोक्ष के कारण


वन्धस्य कारणं प्रोक्तं मिथ्यात्वासंयमादिकम् ।

रत्नत्रयं तु मोक्षस्य कारणं संप्रकीर्तितम् ॥114॥

मिथ्यात्व असंयम वगैरह को बन्ध का कारण कहा है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्षका कारण कहा है ॥114 ॥

मिथ्यात्व के भेद


प्राप्तागमपदार्थनामश्रद्धानं विपर्ययः।
संशयश्च त्रिधा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मलिनात्मनाम् ॥115॥
अथवा।


एकान्तसंशयाज्ञानं व्यत्यासविनयाश्रयम् ।
भवपक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चधा स्मृतम् ॥116॥
मलिन आत्माओं में पाये जाने वाले मिथ्यात्व के तीन भेद हैं -१. देव, शास्त्र और उनके द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान न करना, 2. विपर्यय और 3. संशय । अथवा मिथ्यात्व के पाँच भेद भी हैं-एकान्त मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, विपर्यय मिथ्यात्व और विनय मिथ्यात्व । ये पाँचों प्रकार का मिथ्यात्व संसार का कारण है ॥115-116॥

(भावार्थ – मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन का विरोधी है, उसके रहते हुए आत्मा में सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं हो सकता ।उसके पाँच भेद हैं ।अनेकान्तात्मक वस्तु को एकान्त रूप मानना एकान्त मिथ्यात्व है,जैसे आत्मा नित्य ही है या अनित्य ही है ।सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं या नहीं, इस प्रकारके सन्देह को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। देवादिक के स्वरूप को न जानना अज्ञान मिथ्यात्व है, इसके रहते हुए जीव हित और अहित का भेद नहीं कर पाता । झूठे देव, झूठे शास्त्र और झूठे पदार्थों को सच्चा मानकर उन पर विश्वास करना विपर्यय मिथ्यात्व है और सभी धर्मों, और उनके प्रवर्तकों को तथा उनके द्वारा कहे गये आचार विचार को समान मानना विनय मिथ्यात्व है। )

असंयम का स्वरूप


अवतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमतृप्तता।
इन्द्रियेच्छानुवर्तित्वं सन्तः प्राहुरसंयमम् ॥117॥
व्रतों का पालन न करना,अच्छे कामों में आलस्य करना, निर्दय होना, सदा असन्तुष्ट रहना और इन्द्रियों की रुचि के अनुसार प्रवृत्ति करना इन सब को सज्जन पुरुष असंयम कहते हैं ॥117॥

कषाय के भेद


कषायाः क्रोधमानाद्यास्ते चत्वारश्चतुर्विधाः।
संसारसिन्धुसंपातहेतवः प्राणिनां मताः ॥118॥
क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय चार प्रकार की कही है। इनमें से प्रत्येक के चार चार भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । ये कषायें प्राणियों को संसार रूपी समुद्र में गिराने में कारण हैं ॥118॥

(भावार्थ – कष धातुका अर्थ घातना है। ये क्रोध, मान, माया और लोभ आत्मा के गुणों को घातते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहते हैं। उनके चार दर्जे हैं। जो कषाय मिथ्यात्व के साथ रहकर जीव के संसार का अन्त नहीं होने देती उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। इस कषाय का उदय होते रहते सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं होता। जो कषाय अप्रत्याख्यान अर्थात् देशचारित्र को नहीं होने देती उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिस कषाय का उदय रहते प्रत्याख्यान अर्थात् सम्पूर्ण चारित्र प्रकट नहीं होता उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। और जिस कषायका उदय रहते यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता उसे संज्वलन कहते हैं । इस प्रकार ये कषायें आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुणकी घातक होने से जीव के उद्धार में सबसे प्रबल बाधक हैं। इनको दूर किये बिना कोई प्राणी संसार समुद्र से बाहर नहीं निकल सकता ।)

योग


मनोवाकायकर्माणि शुभाशुभविभेदतः।
भवन्ति पुण्यपापानां बन्धकारणमात्मनि ॥119 ॥
मन वचन और काय की क्रिया शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार की होती हैं। इनमें से शुभ क्रियाओं से आत्मा के पुण्य बन्ध होता है और अशुभ क्रियाओं से पापबन्ध होता है ॥119॥

(भावार्थ – हिंसा करना, चोरी करना, मैथुन करना आदि अशुभ कायिक क्रिया है। कठोर वचन बोलना, असत्य वचन बोलना, किसी की निन्दा करना आदि अशुभ वाचनिक क्रिया है। किसी का बुरा विचारना आदि अशुभ मानसिक क्रिया है। इन क्रियाओं से पाप बन्ध होता है। और इनसे बचकर अच्छे काम करना, हित मित वचन बोलना और दूसरों का भला विचारना आदि शुभ क्रियाओं से पुण्यबन्ध होता है । असल में शास्त्रकारों ने योग को बन्ध का कारण बतलाया है और चूंकि उक्त क्रियाएँ योग में कारण होती है इस लिए क्रियाओंको योग कहा है ।ऊपर भी क्रियाओं से आशय योग का ही है क्यों कि ग्रन्थकार बन्ध के कारण बतला रहे हैं और वे पाँच होते हैं- मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग। कोई कोई आचार्य प्रमाद को असंयम में ही गर्भित कर लेते हैं,जैसा कि सोमदेव सूरिने किया है। अतः उनके मत से चार ही बन्ध के कारण माने जाते हैं।)

(इस प्रकार बन्ध के कारण बतलाकर ग्रन्थकार लोक का स्वरूप कहते हैं-)

निराधारो निरालम्बः पवमानसमाश्रयः।
नभोमध्यस्थितो लोकः सृष्टिसंहारवर्जितः ॥120॥
लोक का स्वरूप यह लोक निराधार है, निरालम्ब है-कोई इसे धारण किये हुए नहीं हैं, केवल तीन प्रकार की वायु के सहारे से आकाश के बीचोबीच में यह ठहरा हुआ है। न इसकी कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी विनाश ही होता है।

(भावार्थ – जैन धर्म के अनुसार आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है। आकाश का काम सब द्रव्यों को स्थान देना है। उस आकाश के बीच में चौदह राजू ऊँचा, उत्तर दक्षिण सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम नीचे सात राजू , मध्य में एक राजू , पुनः पाँच राजू और अन्त में एक राजू विस्तार वाला लोक है । लोक का आकार दोनों पैर फैलाकर तथा कूल्हों पर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए पुरुषके समान है । पूर्व पश्चिममें पैर के नीचे लम्बाई 7 राजू है, कटिभाग में एक राजू है, दोनों कोनियों के स्थान पर पाँच राजू है और ऊपर सिर पर एक राजू है। वैसे तो यह लोक आकाश का ही एक भाग है। किन्तु जितने आकाश में सभी द्रव्य पाये जाते हैं उतने को लोकाकाश कहते हैं और लोक से बाहर के शुद्ध आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। इस तरह आकाशके दो भाग हो गये हैं ।वह आकाश स्वयं ही अपना आधार है उसके लिए किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। अब रह जाते हैं शेष द्रव्य, उनमें भी जो चार द्रव्य अमूर्तिक हैं उन्हें भी किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एक तो वे आकाश की ही तरह अमूर्तिक और स्वाधार हैं। दूसरे उनका साधारण आधार आकाश द्रव्य है ही, अतः उन्हें भी किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है। अब रह गये मूर्तिक पदार्थ. सो उनका भी साधारण आधार तो आकाश ही है तथा दूसरा आधार वायु है । वायु तीन प्रकार की है घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय । वलय चूड़ी या कड़े को कहते हैं जो गोल होते हैं ।जैसे कड़ा हाथ में पहिरने पर वह हाथ को चारों ओ रसे घेर लेता है वैसे ही लोक को चारों ओर से तीनों वायु घेरे हुए हैं इस लिए उन्हें वातवलय कहा है । ये वातवलय ही पृथ्वी वगैरह को धारण करने में सहायक हैं। )

अथ मतम्


जैनों की इस मान्यता पर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं -

नैव लग्नं जगत्वापि भूभूधाम्भोधिनिर्भरम् ।
धातारश्च न युज्यन्ते मत्स्यकूर्माहिपोत्रिणः ॥121॥
एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे ।
कल्प्यते पवनो जैनैरित्येतत्साहसं महत् ॥122॥
यो हि वायुर्न शक्तोऽत्र लोष्टकाष्ठादिधारणे।
त्रैलोक्यस्य कथं स स्याद्धारणावसरक्षमः ॥123॥
पृथ्वी, पहाड़, समुद्र वगैरह के भार से लदा हुआ यह जगत् किसी के भी आधार नहीं है, तथा मच्छ, कच्छप, वासुकीनाग और शूकर इसके धारणकर्ता हो नहीं सकते। ऐसा विचार करके जैन लोग इस निरालम्ब जगत् का धारणकर्ता वायु को मानते हैं ।किन्तु यह उनका बड़ा साहस है, क्योंकि जो वायु हमारे देखने में इंट पत्थर लकड़ी वगैरह का भी बोझ सम्हालने में असमर्थ है, वह तीनों लोकों को धारण करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥121-123॥

तदसत् ।


किन्तु उनका यह आक्षेप ठीक नहीं है, क्योंकि

ये लावयन्ति पानीयैर्विष्टपं सचराचरम्।
मेघास्ते वातसामर्थ्यार्तिक न व्योनि समासते ॥124॥
जो मेघ पानी के द्वारा चराचर जगत्को जलमय बना देते हैं, वे वायु के द्वारा ही क्या आकाशमें नहीं ठहरे रहते 1 ॥124॥

(भावार्थ – आज कल तो हजारों टन बोझा ले जाने वाले वायुयान वायु के सहारे ही आकाश में उड़ते हुए पाये जाते हैं। अतः वायु में बड़ी शक्ति है और वही लोक को धारण करने में समर्थ है। मच्छ कछुवे आदि को जो पुराणों में पृथ्वी का आधार माना गया है. वह विज्ञान सम्मत नहीं है ।)

जैन मुनियों पर दोषारोपण


प्राप्तागमपदार्थेष्वपरं दोषमपश्यतः


जैन आप्त, जैन आगम और उनके द्वारा कहे हुए पदार्थों में अन्य दोष न पाकर कुछ लोग जैन मुनियों में दोष लगाते हैं। वे कहते हैं कि

अमजनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता।
मिथ्यादृशो वदन्त्येतन्मुनेदोषचतुष्टयम् ॥125॥
जैनों के साधु स्नान नहीं करते, आचमन नहीं करते, नंगे रहते हैं और खड़े होकर भोजन करते हैं । इन दोषों का समाधान इस प्रकार है ॥१२५॥

तत्रैष समाधिः


उनका समाधान

ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् ।
मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ॥126॥
संगे कापालिकोत्रेयीचाण्डालशबरादिभिः ।
ऑप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्जपेन्मन्त्रमुपोषितः ॥127॥
ब्रह्मचर्य से युक्त और आत्मिक आचार में लीन मुनियों के लिए स्नान की आवश्यकता नहीं है । हाँ, यदि कोई दोष लग जावे तो उसका विधान है ।यदि मुनि हाथ में खोपड़ी लेकर माँगने वाले वाममार्गी कापालिकों से, रजस्वला स्त्री से, चाण्डाल और म्लेच्छ वगैरह से छू जाये तो उसे स्नान करके, उपवास पूर्वक कायोत्सर्ग के द्वारा मंत्र का जप करना चाहिए ॥126-127॥

(भावार्थ – साधारणतः मुनि के लिए स्नान करनेका निषेध है; क्योंकि मुनि अखण्ड ब्रह्मचारी होते हैं तथा आरम्भ आदि से दूर रहते हैं। हाँ, यदि ऊपर कही गई कोई अशुद्धि हो जाये तो वे स्नान करके बाद को उसका प्रायश्चित्त करते हैं ।)

ऋतुमती स्त्रियों की शुद्धि


एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके ।
दिने शुद्धयन्त्यसंदेहमृतौ व्रतगताः स्त्रियः ॥128॥
जो स्त्रियाँ व्रताचरण करती हैं, वे ऋतुकाल में एकाशन अथवा तीन दिनका उपवास करके, चौथे दिन स्नान करके निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं ॥128॥

(इस प्रकार मुनियों के स्नान करने का कारण बतलाकर ग्रन्थकार आचमन विधि की आलोचना करते हैं)

यदेवांगमशुद्धं स्यादद्भिः शोध्यं तदेव हि ।
अङ्गुलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृत्यते ॥129॥
निष्पन्दादिविधौ वक्र यद्यपूतत्वमिष्यते ।
तर्हि वक्रापवित्रत्वे शौचं नारभ्यते कुतः ॥130॥
शरीर का जो भाग अशुद्ध हो, जलसे उसी की शुद्धि करनी चाहिए। अंगुलियों में साँप के काट लेने पर नाक को नहीं काटा जाता है ॥126॥ अधोवायु का निस्सरण आदि करने पर यदि मुख में अपवित्रता मानते हो तो मुख के अपवित्र होने पर अधोभागमें शौच क्यों नहीं करते हो ॥130॥

(भावार्थ – ब्राह्मण धर्म में विहित कर्म करने से पहले शरीर की शुद्धि के लिए तीन बार हाथ पर जलपान किया जाता है। इसे ही आचमन कहते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि शरीर का जो भाग अशुद्ध हो जल से उसी की शुद्धि करनी चाहिए, जलपान कर लेने से अशुद्ध शरीर कैसे शुद्ध हो सकता है ? यदि मुख अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए और यदि कोई दूसरा अंग अशुद्ध हो तो उसकी शृद्धि करनी चाहिए। सबकी शुद्धि जलपान मात्र से तो नहीं हो सकती / अतः आचमन करना व्यर्थ है।)

(अब मुनियों की नग्नता का समर्थन करते हैं-)

विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने ।
तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम पिकल्मपः ॥131॥
नैष्किचन्यमहिंसा च कुतः संयमिनां भवेत् ।
ते संगाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥132॥
विद्वान् लोग विकार से द्वेष करते हैं, अविकारता से नहीं । ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नग्नता से किस बातका द्वेष ? यदि मुनिजन पहिरने के लिए वल्कल, चर्म अथवा वस्त्र की इच्छा रखते हैं तो उनमें नैकिचन्य-मेरा कुछ भी नहीं है ऐसा भाव तथा अहिंसा कैसे सम्भव है ? अर्थात् वस्त्रादिककी इच्छा रखने से उससे मोह तो बना ही रहा तथा वस्त्र के धोने वगैरह में हिंसा भी होती ही है ॥131-132॥

(अब मुनियों के खड़े होकर आहार ग्रहण करने का समर्थन करते हैं-)

न स्वर्गाय स्थिते तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः ।
किं तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिप्यते ॥133॥
पाणिपत्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने ।
यावत्तावदहं भुजे रहस्याहारमन्यथा ॥134॥
बैठकर भोजन करने से स्वर्ग नहीं मिलता और न खड़े होकर भोजन करने से नरकमें जाना पड़ता है ।किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए ही खड़े होकर भोजन करते हैं ।मुनि भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि-' जबतक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरे में खड़े होकर भोजन करने की शक्ति है तब तक मैं भोजन करूँगा अन्यथा आहार को छोड़ दूंगा। इसी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते है ॥133-134॥

(भावार्थ – मुनि खाने के लिए नहीं जीते, किन्तु जीने के लिए खाते हैं। जैसे गाड़ी को ठीक चलाने के लिए उसे औंघ देते हैं वैसे ही इस शरीर रूपी गाड़ी के ठीक तरह से चलते रहने के लिए मुनि इसे उतना ही आहार देते हैं जितने से यह शरीर चलता रहे और मुनि के स्वाध्याय ध्यान वगैरह कार्यों में उससे कोई बाधा उपस्थित न हो। इसलिए तथा आत्मनिर्भर बने रहने के लिए वे खड़े होकर और बायें हाथ की कनकी अंगुलीमें दायें हाथकी कनकी अंगुलि दबाकर बनाये गये हस्तपुटमें भोजन करते हैं। श्रावक एक-एक ग्रास उसकी बाई हथेली पर रखता जाता है और वे उसे शोधकर दायें हाथ की अंगुलियों से मुँह में रखते जाते हैं। खड़े होकर भोजन करने से आत्मनिर्भरता बनी रहती है, भोजन में अलौल्यता रहती है और परिमित आहार होता है तथा हाथ में भोजन करने से एक तो पात्र की आवश्यकता नहीं रहती, दूसरे यदि शोधकर खाते समय भोजन में अन्तराय हो जाता है तो बहुत सा भोजन खराब नहीं होता, अन्यथा भरी थाली भी छोड़ना पड़ सकती है ।अतः खड़े होकर हाथ में भोजन करना मुनिके लिए विधेय है।)

(अब केशलोंच का समर्थन करते हैं-)

अदैन्यासंगवैराग्यपरीपहकृते कृतः।
अत एव यतीशानां केशोत्पाटनसद्विधिः ॥135॥
अदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परीषह के लिए मुनियों को केशलोंच करना बतलाया है ॥135॥

(भावार्थ – मुनियों के पास एक दमड़ी भी नहीं रहती, जिससे क्षौरकर्म करा सकें, यदि दूसरे से माँगते हैं तो दीनता प्रकट होती है, पास में छुरा वगैरह भी नहीं रख सकते ।और यदि केश बढ़ाकर जटा रखते हैं तो उसमें जूं वगैरह पड़ जाती हैं इसलिए वह हिंसा का कारण है। इसके विपरीत केशलोंच करने में न किसी से कुछ माँगना पड़ता है, न कोई हिंसा होती है, प्रत्युत उससे वैराग्यभाव दृढ़ होता है और कष्टों को सहने की क्षमता बढ़ती है, इसलिए मुनिगण केशलोंच करते हैं।)

इत्युपासकाध्ययन आगमपदार्थपरीक्षो नाम तृतीयः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में आगम और उसमें कहे गये पदार्थों की परीक्षा नामका तीसरा कल्प समाप्त हुआ।