+ मूढ़ता का निषेध -
कल्प - ४

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

लोक में प्रचलित मूढ़ताओं का निषेध


सूर्याधों ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः।
संध्यासेवाग्निसत्कारो गेहदेहार्चनो विधिः ॥136॥
नदीनदसमुद्रषु मजन धर्मचेतसा।
तरुस्तूपानभक्तानां वन्दनं भृगुसंश्रयः ॥137॥
गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मत्रस्य निषेवणम।
रत्नवाहनभूयतशस्त्रशैलादिसेवेनम् ॥138॥
समयान्तरपाखण्डवेदलोकसमाश्रयम् ।
एवमादिविमूढानां शेयं मूढमनेकधा ॥139॥
वरार्थ लोकवार्तार्थमुपरोधार्थमेव का।
उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥140॥
क्त शायैव क्रियामीषु न फलावाप्तिकारणम् ।
यद्भवेन्मुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत् ॥141॥
सूर्य को अर्घ देना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति होने पर दान देना, सन्ध्या बन्दन करना, अग्नि को पूजना, मकान और शरीर की पूजा करना, धर्म मान कर नदियों और समुद्र में स्नान करना, वृक्ष स्तूप और प्रथम प्रास को नमस्कार करना, पहाड़ की चोटीसे गिरकर मरना, गौके पृष्ठ भाग को नमस्कार करना, उसका मूत्र पान करना, रत्न सवारी पृथ्वी यक्ष शस्त्र और पहाड़ वगैरह की पूजा करना, तथा धर्मान्तरके पाखण्ड, वेद और लोक से सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रकारकी अनेक मूढताएं जाननी चाहिएँ ॥ वरकी आशा से या लोक रिवाज के विचार से या दूसरों के आग्रहसे इन मूढ़ताओं का सेवन करने से सम्यग्दर्शन की हानि होती है ।जिस प्रकार ऊसर भूमि में खेती करने से केवल क्लेश ही उठाना पड़ता है, फल कुछ भी नहीं निकलता, उसी तरह इन मूढ़ताओं के करने से केवल क्लेश ही उठाना पड़ता है, फल कुछ भी नहीं निकलता ॥136-141॥

वस्तुन्येव भवेद्भक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके।
न घरत्नेषु रत्नाय भावो भवति भूतये ॥142॥
अदेवे देवताबुद्धिमव्रते व्रतभावनाम् ।
अतत्त्वे तत्त्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमुत्सृजेत् ॥143॥
तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत्कोऽपि सर्वथा।
मिश्रत्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ॥144॥
वस्तु में की गई भक्ति ही शुभ कर्म का बन्ध कराती है। जो रत्न नहीं है उसे रत्न मानने से कल्याण नहीं हो सकता ॥ कुदेव को देव मानना, अव्रत को व्रत मानना और अतत्त्व को तत्त्व मानना मिथ्यात्व है अतः इसे छोड़ देना चाहिए ॥ फिर भी यदि कोई इन मूढ़ताओं का सर्वथा त्याग नहीं करता (और सम्यक्त्व के साथ-साथ किसी मूढ़ता का भी पालन करता है ) तो उसे सम्यमिथ्यादृष्टि मानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सेवन के कारण उस के धर्माचरण का भी लोप कर देना अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है ॥142-144॥

(भावार्थ – ऊपर जिन मूढ़ताओं का उल्लेख किया है, उनमें से बहुत-सी मूढ़ताएँ आज भी प्रचलित हैं, और लोग धर्म मानकर उन्हें करते हैं, किन्तु उनमें कुछ भी धर्म नहीं है । वे केवल धर्म के नाम पर कमाने-खाने का आडम्बर मात्र है। ऐसी मूढ़ताओं से सबको बचना चाहिए ॥ किन्तु यदि कोई किसी कारण से उन मूढ़ताओं को पूरी तरह से नहीं त्याग देता और अपने धर्माचरण के साथ उन्हें भी किये जाता है तो उसे एक दम मिथ्यादृष्टि न मानकर सम्यङ् मिथ्यादृष्टि मानने की सलाह ग्रन्थकार देते हैं। वे उसके उस धर्माचरणका लोप नहीं करना चाहते,जो वह मूढ़ता पालते हुए भी करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार के समय में लोक-रिवाज या कामना वश कुछ जैनों में भी मिथ्यात्वका प्रचार था और बहुत से जैन उसे छोड़ने में असमर्थ थे। शायद उन्हें एक दम मिथ्यादृष्टि कह देना भी उन्हें उचित नहीं ज़चा, इसलिए सम्यमिथ्यादृष्टि कह दिया है, वैसे तो मिथ्यात्वसेवी जैन भी मिथ्यात्वी ही माने गये हैं।)

न स्वतो जन्तवः प्रेर्या दुरीहाः स्युर्जिनागमे ।
स्वत एव प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ॥145॥
जिन मनुष्यों की चेष्टाएँ या इच्छाएँ अच्छी नहीं हैं उन्हें जिनागम में स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए । अर्थात् ऐसे मनुष्यों को जैन धर्म में लाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि वे स्वयं इधर आवे तो उनके योग्य अनुग्रह-साहाय्य कर देना चाहिए ॥145॥

इस प्रकार उपासकाध्ययन में मूढ़ता का निषेध करनेवाला चौथा कल्प समाप्त हुआ।