ग्रन्थ :
इत्युपासकाध्ययने जमदग्नितपःप्रत्यवसादनो नाम पञ्चमः कल्पः / पुनस्तौ त्रिदशौ मगधदेशेषु कुशाग्रनगरोपान्तापातिनि पितृवने कृष्णचतुर्दशीनिशि निशाप्रतिमाशयवशमेकाकिनं जिनदत्तनामानमुपासकमवलोक्य साक्षेपम् 'अरे दुराचाराचरणमते निराकृते अविदितपरमपद मनुष्यापसद, शीघ्रमिमामूर्ध्वशोषं शुष्कस्थाणुसमां प्रतिमां परित्यज्य पलायस्व / न श्रेयस्करं खलु तवात्रावसरं पश्यावः / यस्मादावां होतस्याः परतपुरभूर्यस्या भूमेः पिशाचपरमेश्वरौ / तदलमत्र कालव्यालावलोकनकरप्रंस्थानेन / मा हि कार्षीरन्तरायोत्कर्ष भावमतुच्छस्वच्छन्दकेलिकुतूहलबहलान्तःकरणप्रसवयोरावयोः' इत्युक्तमपि प्रकामप्रणिधानोद्युक्तमवेक्ष्य न्यतः कीनाशकाशरनिकायकायाकारघोरघनघस्मराडम्बरप्रथमप्रारम्भाव हैः प्रचण्डतडिदण्डसंघहोच्छलच्छब्दसंदोहदुःस है: निःसीमसमीरासरालसूत्कारसारप्रसरप्रबलैः करालवेतालकुलकाहलकोलाहलानुकूलैरन्यसामान्यैरन्यैश्च परिगृहीतगृहदाहबान्धवधनविध्वंसानुबन्धैः प्रत्यूहप्रबन्धैः" सबहुमानैस्तत्तद्वरप्रदानैश्च निःशेषामप्युषामध्यात्मसमाधिनिरोधनिघ्नौ विहितविघ्नावपि तमेकाग्रभावाभ्यासात्मसात्कृतान्तःकरणबहिःकरणेहितं शर्महर्म्यनिर्माणकार्मणपरमाणुप्रबन्धनाद्धर्मध्यानाञ्चालयितुं न शेकतुः। संजाते च खरकिरणविरोकनिकरनिराकृतान्धकारोदये प्रभातसमये समुपहृतोपसर्गव! प्रकामप्रसन्नसर्गौ तैस्तैर्महाभोगाचितैः प्रणयोदितैराश्लाघ्य तस्मै जिनदत्ताय विहायोविहाराय पञ्चत्रिंशद्वर्णानवद्यां विद्यां वितेरंतुः / इयं हि विद्या तवास्मदनुग्रहादम्बरविहारायासंसाधितापि भविष्यति परेषां त्वस्माद्विधेरिति ॥ जिनदत्तोऽपि कुलशैलशिखण्डमण्डनजिनायतनालोकनकुतूहलिताशयः समाचरितामरानुवर्तनसमयस्ता विद्यां प्रतिपद्य हृदयदर्शनोत्सवसमानीतनिखिलनिलिम्पोचलचैत्यालयस्तदवलोकनकृतकौतुकाय धरसेनाय परमाप्तोपासनपटवे पुष्पवटवे प्रादात् । पुनरप्यमितप्रभः 'विद्युत्प्रभ, जिनदत्तोऽयमतीवार्हदभिमतवस्तुपरिणतचित्तः स्वभावादेव च स्थिरमतिरशेषोपसर्गसहनप्रकृतिश्च / तदत्र महदप्यपकृतं कुलिशे घुणकीटचेष्टितमिव न भवति समर्थम् / अतोऽन्यमेव कञ्चनाभिनवजिनोपासनायतनचैतन्यं निकषाव' इति विमृश्योच्चलिताभ्यामेताभ्यां मगधमण्डलमण्डनसनाथो मिथिलापुरीनाथः पद्मरथो नाम नरपतिर्निजनगरनिकटतटीधरवृत्तदेहायां कालगुहायां निवासरसमनसो दीप्ततपसो निःशेषानिमिषपरिषनिषेव्यमाणाचरणचातुर्यात्सुधर्माचार्यात्तदङ्गाद्भुतप्रभाप्रभावदर्शनोलिए पशान्ताशयः सम्यग्दर्शनमणुव्रताश्रयमादाय तदिवस एव तदुपदेशानिश्चितात्परमेश्वरशरीरनिरतिशयप्रकाशमहिमः कृतनियमः सकलभुवनपतिस्तूयमानगुणगणोदन्तं श्रीवासुपूज्यभगवन्तमुपासितुं प्रतिष्ठमानः प्रमदेनादसुन्दरदुन्दुभिरवाकारितनिरवशेषपरिजनः समासत्समस्तविष्टविशिष्टादृष्टचेष्टः । .. स च दृष्टः कदाचिदपि क्षुद्रोपद्रवाविप्रलब्धः प्रारब्धश्च "पुरप्लोषान्तःपुरविध्वंसवरूँथिनीमथनप्रसभप्रभंजनोर्जितपर्जन्यपरुषवर्षोपलासारादिवसतिभिर्दमशार्दूलोत्तराकृतिभिर्विकृतिभिरुपद्रोतुम् । तथाप्यविचलितचेतसमवसायं सनरवरं कुजरं मायामयप्रतिधे स्ताघे व्याप्ताखिलदिगारामसंगमे कर्दमे निमजयद्यां ताभ्यां 'नमः सुरासुरोपसर्गसंगसूदनाभिधानमात्रमन्त्रमाहात्म्यसाम्राज्याय श्रीवासुपूज्याय' इति तत्र निमजतो भूभृतो वचनमाकर्ण्य तद्धैर्योत्कर्षोन्मिपत्तोषमनीषाप्रसराभ्यां लघुपरिमुषिताशेषविघ्नव्यतिकराभ्यामाचरितसत्काराभ्याम् 'अहो नूतनस्य सम्यक्त्वरत्नस्याच्छमसनपथ पत्ररथ, नैतचित्रमत्र यत्संधासत्त्वाभ्यामखिलैरपि लोकैरसदृशेषु भवादृशेषु न प्रभवन्ति प्रसंभप्रसवाः खुद्रोपद्रवाः । यतः। एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥155॥ इति निगीर्य, वितीर्य च जिनसमयाराधनवशे भवद्वंशे सर्वरुजापहारोऽयं हारः, सकलसपत्नसंतानोच्छेद्यमिदमातोद्यं च प्रेषणं करिष्यतीति कृतसंकेताभ्यां तवयमभिमतावस्थानं स्थान प्रास्थायि / त्रिदशेश्वरवदनजृम्भमाणगुणसंकथः पद्मरथोऽपि तत्तीर्थकृतो गणधरपदाधिकृतो भूत्वा कृत्वा चात्मानमनूनरत्नत्रयतन्त्रं मोक्षामृतपात्रमजायत / भवति चात्र श्लोक :- उररीकृतनिर्वाहसाहसोचितचेतसाम् ।
उभौ कामदुघौ लोको कीर्तेश्चाल्यं जगत्त्रयम् ॥156॥ इत्युपासकाध्ययने जिनदत्तस्य पद्मरथपृथ्वीनाथस्य च प्रतिज्ञानिर्वाहसाहसो नाम षष्ठः कल्पः। फिर वे दोनों देव मगध देश के कुशाग्र नगर के निकटवर्ती स्मशान में पहुँचे। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि का समय था । जिनदत्त नामका एक जैन श्रावक अकेला रात्रि में प्रतिमा योगसे स्थित था । उसे देखकर वे दोनों देव तिरस्कारपूर्वक बोले- 'अरे दुराचारी,विरूप, परम पद से अनजान, नीच मनुष्य ! शीघ्र ही इस सूखे ढूँठ के समान प्रतिमायोग को छोड़कर भाग जा। तेरा यहाँ ठहरना ठीक नहीं है क्योंकि हम दोनों इस स्मशान भूमिके पिशाचों के स्वामी हैं। हम दोनों का अन्तःकरण अति स्वच्छन्द होकर क्रीड़ा करने के लिए आतुर है। इसमें बाधा मत डालो।' इस प्रकार कहने पर भी उसे आत्मध्यान में तल्लीन देखकर उन दोनों ने विघ्न करना प्रारम्भ किया। यमराज के समान भयंकर काले-काले मेघ उमड़ आये, बिजली का भयंकर गर्जन तर्जन होने लगा, जोर की हवा सर-सर करती हुई बहने लगी, भयानक वेतालों की आवाज के जैसी आवाजें होने लगीं, जब इससे भी वह विचलित नहीं हुआ तो उसका गृह-दाह, बन्धु-बान्धवों और धनादिक का विनाश होता हुआ उसे दिखाया गया। जब इससे भी विचलित नहीं हुआ तो बड़े आदर के साथ उसे अनेक वरदान दिये गये । इस प्रकार उसकी समाधि को भंग करने के रातभर दोनों ने विघ्न किये, किन्तु एकाग्रता के अभ्यास से अपने मन को वश में कर लेने वाले उस जिनदत्त श्रावक को वे सुख का महल बनाने वाले कर्म परमाणुओं के बन्ध में कारणभूत धर्मध्यान से विचलित नहीं कर सके । इतने में प्रभात हो गया, सूरज की किरणों के प्रकाश से अन्धकार दूर हो गया। तब उन्होंने अपने उपसगों को समेट लिया और अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए भाग्यशालियों के योग्य प्रेमभरे वचनों से जिनदत्तकी प्रशंसा करके उसे आकाशमें बिहार करनेके लिए पैतीस अक्षरों की एक निर्दोष विद्या प्रदान की । और कहा-'यह विद्या बिना साधे ही हमारे प्रभाव से तुम्हें आकाश में विहार करा सकेगी और दूसरों को अमुक विधि से सिद्ध करने पर विहार करा सकेगी। जिनदत्त का मन भी कुलाचलों पर स्थित जिनालयों के दर्शनके लिए आकुल था ।अतः उसने देवताओं के कहे अनुसार उस विद्या को ग्रहण करके सब कुलाचलों पर स्थित चैत्यालयों का दर्शन किया और फिर वह विद्या उन चैत्यालयों के दर्शनके लिए उत्सुक, जिनेन्द्र देव के परम भक्त धरसेन को दे दी। फिर अमितप्रभ विद्युत्प्रभ से बोला-'विद्युत्प्रभ ! इस जिनदत्त का चित्त अर्हन्त भगवान के द्वारा कहे गये वस्तु तत्त्व के विषय में बहुत दृढ़ है तथा यह स्वभाव से ही स्थिर बुद्धि और समस्त उपसर्गों को सहन करने वाला है। इसलिए जैसे घुन के कीड़े वज्र में कुछ भी नहीं कर सकते वैसे ही कितना भी अपकार इसका कुछ भी बिगाड़ने में समर्थ नहीं है। अतः आओ जैन धर्म के किसी नये उपासक की परीक्षा करें । ' ऐसा विचार कर दोनों वहाँ से चल दिये और मगध देश के मण्डन स्वरूप मिथिलापुरी में पहुँचे । मिथिलापुरी का राजा पद्मरथ था ।एक दिन वह राजा अपने नगर के निकटवर्ती पहाड़ की भयानक गुफा में रहने वाले, महातपस्वी, समस्त देवों से सेवनीय और आचरणमें प्रवीण श्रीसुधर्माचार्य के दर्शनों के लिए गया। उनके शरीर की अद्भुत प्रभा और प्रभाव देखकर उसका राग शान्त हो गया और उसने उनसे सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत धारण कर लिये । उसी दिन उसने आचार्य के उपदेश से अर्हन्त भगवान्के अतिशय युक्त शरीर की महिमा को समझ लिया और नियम लेकर समस्त 'भुवनके स्वामी जिनके गुणोंका बखान करते हैं उन श्रीवासुपूज्य भगवान्के दर्शनों के लिए चल दिया । दुन्दुभिके मधुर शब्द को सुनकर समस्त परिजन भी साथ हो गये। दोनों देवताओं ने उस राजा को जाता हुआ देखा जो कभी भी क्षुद्र उपद्रवों से भी सताया नहीं गया था, और परीक्षा लेने के लिए विघ्न करना प्रारम्भ कर दिया। नगर दाह, रनवास का विनाश, सेना का नाश, जोर की हवा चलाकर मेघों के द्वारा घनघोर वर्षा, उल्कापात आदिके द्वारा तथा भयंकर सिंहों की आकृतियों के द्वारा उपद्रव करने पर भी जब पद्मरथ राजा का मन विचलित नहीं किया जा सका तो उन दोनों ने चारों ओर मायामयी कीचड़ बनाकर राजा सहित हाथी को उसमें डुबा दिया। डूबते हुए राजा के मुखसे निकला-'जिनके नाम मात्र से सुर और असुरों के द्वारा किये गये उपसर्ग दूर हो जाते हैं उन वासुपूज्य भगवान्को नमस्कार है।' यह शब्द सुनते ही उन दोनों देवों को परम हर्ष हुआ, उन्होंने तुरन्त ही सब विघ्नों को दूर कर दिया और राजाका सत्कार करते हुए बोले-'नये सम्यक्त्व रूपी रत्न के आश्रय रूप निष्कपट पद्मरथ ! प्रतिज्ञा और साहस में आपके समान कोई नहीं है, आप जैसे लोगों पर बलात् किये गये क्षुद्र उपद्रवों का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। क्योंकि - अकेली एक जिन-भक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य का संचय करने में और मुक्ति रूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है ॥155॥ यह कहकर उसे एक हार और वाद्य दिया तथा कहा कि यह हार जैन धर्म का पालन करने वाले तुम्हारे वंश के सब रोगों को हरेगा और यह वाद्य समस्त वैरियों की सन्तान का नाश करेगा। ऐसा कहकर वे दोनों देव अपने अभिमत स्थान को चले गये। देवों के द्वारा प्रशंसित पद्मरथ भी वासुपूज्य स्वामी के समवशरण में जाकर जिनदीक्षा धारण करके भगवान्का गणधर बन गया और अपने को सम्पूर्ण रत्नत्रय से अलंकृत करके मोक्षरूपी अमृत का पात्र हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि - जो अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में उचित साहस दिखलाते हैं, इस लोक और परलोकमें वे इच्छित वस्तुको पाते हैं, तथा उनके यशसे तीनों लोक चलायमान हो जाते हैं ॥156॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में जिनदत्त और राजा पद्मरथ के प्रतिज्ञा निर्वाह के साहस को बतलाने वाला छठा कल्प समाप्त हुआ। |