+ निःशंकित तत्त्व -
कल्प - ७

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

इतश्च संगमितंसकलोपकरणसेनो धरसेनोऽप्यतुच्छभूच्छायावन्ध्ये पर्वेदिवसांसतेयीमध्ये सर्वतो यातुधानधावनप्रवर्धिनीषु स्मशानमेदिनीषु प्रवर्तिततदाराधनानुकूलमण्डलो न्यतासु"दितु नितितरक्षावलोऽवगणः'' कृतसकलीकरणो "भागधेयीविधानसमये वटविटपाने "पतिवराकरकर्तितसूत्रसरसहस्रसंपादितमात्मासनसमानान्तरालोचितमन्तजल्पसंकल्पितमन्त्रवाक्यः सिक्यं निबध्य प्रबन्धना धस्तादूर्ध्वमुखविन्यस्तनिशिताशेषशस्त्रो यथाशास्त्रं बहिर्निवेशिताष्टविधेष्टिसिद्धिस्तद्विद्याराधनसमृद्धबुद्धिर्बभूव ।

अत्रान्तरे निष्कारणकलिकार्याअनसुन्दर्या निशीथ'पथवर्तिवीक्षणे क्षपाक्षणे मध्यदेशे प्रसिद्धविजयपुरस्वामिनः सुन्दरीमहादेवीविलासिनः स्वकीयप्रतापबहुल वाहनाहुतीकृतारातिसमितेररिमन्थमहीपतेर्ललितो नाम सुतः समस्तव्यसनाभिभूतत्वाद्दायाँ दक्रव्यादसंपादितसाम्राज्यपदापायः परमुपायमपश्यन्नदृश्याञ्जनावर्जनोर्जितप्रज्ञः प्रतीताञ्जनचोरापरसंशः किलैवमुक्तः–'कुशाग्रेपुरपरमेश्वरस्याग्रमहिण्यास्ताविष्याः सौभाग्यरत्नाकरं नाम कण्ठालंकारमिदानीमेव यद्यानीय प्रयच्छसि, तदा त्वं मे कान्तः, अन्यथा प्रणयान्तः' इति। . सोऽपि कियद्गहनमेतत्' इत्युदारमुदाहृत्य प्रियतमामनोरथमन्वर्थकं चिकीर्षुनिजच्छायाश्यताशीलकजलबहललोचनयगलं विधाय प्रयार्य च तन्महीश्वरगृहं गृहीततदलंकारस्तत्प्रभाप्रसरसमुल्लक्ष्यमाणचरणसंचारः शब्दशस्त्रोत्तालाननकरैस्तलवरानुचरैरभियुक्तो निस्तरीतुमशक्तः परित्यज्य तदाभरणमितस्ततो नगरबाहिरिकायां विहरमाणस्तं धरसेनं प्रदीपं दीप्तिवशादधस्तादत्रनिवेशभयावेशान्मुहुर्मुहुरारोहावरोहावहदेहदोनम लोक्योपढौक्य च तं देशमेवं निर्दिदेश–'अहो प्रलयकालान्धकाराविलायामस्यां वेलायां महासाहसिकवृषन्दुष्करकर्मकारिन् को नाम भवान् ?

धरसेनः-'कल्याणवन्धो, महाभागवृत्तस्य जिनदत्तस्य विदितपुष्पबटुनियोगसंबन्धोऽहमेतदुपदेशादाकाशविहारव्यवहारनिषद्यां विद्यां सिसाधयिषुरत्रायाशिषम्' । अञ्जनचोरः-'कथमियं साध्यते।' धरसेनः-कथयामि । पूजोपचारनिषेक्ये ऽस्मिन्निःशङ्कमुपविश्य विद्यामिमामकुण्ठकण्ठं पठन्नेकैकं शरप्रवेकं स्वच्छधीश्छिन्द्यादवसाने गगनगमनेन युज्यते । यद्येवमपसरापसर । त्वं हि तलोन्मुखनिखातनिशितशस्त्रसंजातभीतमतिर्न खलु भवस्यैतत्साधने यज्ञोपवीतदर्शनेनार्थावर्जनकृतार्थः समर्थः । तत्कथय मे यथार्थवादहृद्यां विद्याम् । एनां साधयामि' । ततस्तेनात्महितकटुना पुष्पवटुना साधुसमर्पितविद्यः सम्यग्विदितवेद्यः संत्रीत्याss. सन्नशिवागारोऽअनचौरः स्वप्नेऽप्यपरवञ्चनाचारनिवृत्तचित्तो जिनदत्तः । स खलु महतामपि महान्प्रति पन्नदेशयतिव्रततन्त्री जन्तुमात्रस्याप्यन्यथा न चिन्तयति, किं पुनश्चिराय समाचरितोपचारस्य तनूद्भवनिर्विशेषं पोषितस्यास्य धरसेनस्यान्यथा चिन्तयेत्' इति निश्चित्य निविश्य च सौत्सुक्यं सिक्ये निःशङ्कशेमुषीकः स्वकीयसाहसव्यवसायसंतोषितसुरासुरानीकः सकृदेव तच्छरप्रसरं चिच्छेद, आससाद च खेचरपदम् । पुनर्यत्र जिनदत्तस्तत्र मे गमनं भूयादिति विहिताशंसनः काञ्चनाचलमेखलानिलयिनि सौमनसवनोदयिनि जिनसमनि जिनदत्तस्य धर्मश्रवणकृतो गुरुदेवभगवतः समीपे तपो गृहीत्वावगाहितसमस्तैतिह्यतत्त्वो हिमवच्छेलचूलिकोन्मीलितकेवलज्ञानः कैलासकेसरकान्तारगतो मुक्तिश्रीसमागमसङ्गिभोगायतनो बभूव ।

भवति चात्र श्लोकः


क्षत्रपुत्रोऽक्षविक्षिप्तः शिक्षितादृश्यकज्जलः ।
अन्तरिक्षगति प्राप निःशङ्कोऽजनतस्करः ॥157॥
अब जिस धरसेन को जिनदत्त ने देवों के द्वारा दी गई आकाशगामिनी विद्या साधने के लिए दी थी, उसकी कथा सुनिए ।

समस्त साधन सामग्री को एकत्र करके धरसेन भी घने अन्धकार से पूर्ण अमावस्या की रात्रि के समय में राक्षसों के संचार से व्याप्त स्मशान भूमि में विद्या साधने के लिए गया। वहाँ उसने विद्याराधन के अनुकूल मण्डल की रचना की, सब दिशाओं में रक्षावलय स्थापित किये, फिर सकलीकरण क्रिया की, फिर बट के पेड़ के नीचे, अपने आसन से समान अन्तराल पर, कन्या के हाथसे काते गये हजार धागों से बने हुए छीके को, मन-ही-मन मंत्रोच्चारण करते हुए बाँधा। फिर छीके के नीचे सब तीक्ष्ण शस्त्रों को स्थापित किया, जिनका मुँह ऊपर की ओर था। फिर शास्त्रानुसार आठ प्रकार की इष्ट सिद्धि को स्थापित करके उस विद्या की आराधना के लिए तैयार हुआ इसी बीचमें एक घटना घटी। मध्य देश के विजयपुर नगर का स्वामी राजा अरिमन्थ बड़ा प्रतापी था। उसकी पट्टरानी का नाम सुन्दरी था। उनके ललित नाम का एक पुत्र था। वह बड़ा व्यसनी था । इसीलिए उसे अन्य बान्धवों ने उसके राज्यपद प्राप्ति में बाधाएँ डाली। तब उसने दूसरा उपाय न देखकर एक ऐसा अञ्जन सिद्ध किया जिसके लगा लेने से वह अदृश्य हो जाता था। इससे उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई और उसका नाम अञ्जन चोर प्रसिद्ध हो गया ।जिस रात्रि में धरसेन विद्या साधने का उपाय करता था उसी रात्रि में जब अञ्जन चोर अपनी प्रियतमा के पास गया तो उसने कहा- 'कुशाग्रपुर के राजा की पट्टरानी के गले का 'सौभाग्यरत्नाकर' नाम का आभूषण यदि इसी समय लाकर मुझे दोगे तो तुम मेरे पति हो, नहीं तो हमारे तुम्हारे प्रेम का अन्त है।' यह सुनकर अञ्जनचोर बोला-'यह क्या कठिन है।' इतना कहकर अपनी प्रियतमा के मनोरथ को पूरा करने के लिए वह अपनी आँखों में अञ्जन लगाकर अदृश्य हो गया और उस राजा के महल में पहुंचा।

जैसे ही वह उस आभूषण को चुराकर चला वैसे ही उसकी चमक से कोतवालके सशस्त्र सिपाहियों ने उसके पद-संचार को लक्ष्य करके हल्ला करते हुए उसका पीछा किया। निकल भागने में अपने को असमर्थ देखकर अञ्जनचोर ने उस आभूषण को वहीं छोड़ दिया और नगर के बाहर इधर-उधर भागता हुआ जलते हुए दीप को देखकर उस स्थान पर आया जहाँ धरसेन नीचे लगे हुए अस्त्रों के भय से कभी छी केसे उतरता था और कभी चढ़ता था।

'प्रलयकाल के अन्धकार से व्याप्त इस काल में दुष्कर कर्म करने वाले महा साहसी पुरुष ! तुम कौन हो ?' अजन चोर ने पूछा

धरसेन - मेरे हितैषी मित्र ! महाभाग जिनदत्त के उपदेश से आकाशविहारिणी विद्या को सिद्ध करने की इच्छासे मैं यहाँ आया हूँ ।

अञ्जनचोर-यह कैसे साधी जाती है ?

धरसेन - पूजा के द्वारा सिञ्चित इस छीके पर निःशङ्क बैठकर इस विद्या को मन्दस्वर से पढ़ते हुए निर्मल मन से छीके की एक-एक डोर को काटना चाहिए। ऐसा करनेसे अन्त में आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जायगी।

अञ्जनचोर- हटो हटो, छीके के नीचे खड़े किये गये तीक्ष्ण शस्त्रों से तुम भयभीत हो गये हो, इसलिए जनेऊ दिखाकर ही अपना काम निकालने वाले तुम इस विद्याको सिद्ध नहीं कर सकते । अतः इस सच्ची विद्या को मुझे बतलाओ । मैं इसको साधता हूँ। यह सुनकर आत्महित के वैरी उस धरसेन ने अंजन चोर को भले प्रकार से विद्या अर्पित कर दी। सब बातों को जानकर उसी भव से मोक्ष जाने वाला अञ्जन चोर विचारने लगा-'जिनदत्त सेठ स्वप्न में भी दूसरों को ठगने का विचार नहीं कर सकता। फिर चिरकाल से अपने पुत्र की तरह जिस का लालन-पालन किया है उस धरसेन के विषय में तो वह ऐसा सोच ही कैसे सकता है ?' ऐसा निश्चित करके वह बड़ी उत्कण्ठा के साथ उस छीके पर बैठ गया और निःशंक होकर अपने साहस से सुर और असुरों के समूह को सन्तुष्ट करने वाले उस अञ्जन चोर ने एक साथ ही सब धागोंको काट दिया और विद्याधर बन गया। फिर उसने यह इच्छा की कि जहाँ जिनदत्त है वहीं मैं पहुँचूँ। यह इच्छा करते ही वह सुमेरु पर्वत पर स्थित सौमनस वन के जिनालय में, आचार्य गुरुदेव से धर्म श्रवण करते हुए जिनदत्त के पास पहुँच गया और जिनदीक्षा ग्रहण करके परम्परा से चले आये हुए समस्त तत्त्वों को जानकर हिमवान् पर्वत की चोटीपर केवलज्ञानी बन गया फिर कैलास पर्वत से मुक्ति-श्री को वरण करके मुक्त हो गया।

इस विषयमें एक श्लोक निम्न प्रकार है

अञ्जनचोर राजपुत्र था, किन्तु इन्द्रियों की विषयलालसा ने उसे पागल कर दिया था। तब उसने अदृश्य होने का अञ्जन बनाना सीख लिया। फिर वह निःशक होकर विद्याधर बन गया । और मुक्त हो गया ॥157॥

इस प्रकार उपासकाध्ययनमें निःशंकित तत्त्व को प्रकट करने वाला सातवाँ कल्प समाप्त हुआ।