+ निःकांक्षित तत्त्व -
आठवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

(अब निष्कांक्षित अंग को बतलाते हैं-)

स्यों देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा वसुमतीपतिः।
यदि सम्यक्त्वमाहात्म्यमस्तीतीच्छां परित्यजेत् ॥158॥
उदश्वितेव माणिक्यं सम्यक्त्वं भवजैः सुखैः।
विक्रीणानः पुमान्स्वस्य वञ्चकः केवलं भवेत् ॥159॥
यदि सम्यग्दर्शन में माहात्म्य है तो 'मैं देव होऊँ', 'यक्ष होऊँ', अथवा 'राजा होऊँ' इस प्रकार की इच्छा को छोड़ देना चाहिए। जो सांसारिक सुखों के बदले में सम्यक्त्व को बेच देता है वह छाछ के बदले में माणिक्य को बेच देने वाले मनुष्य के समान केवल अपने को ठगता है ॥158-159॥

चित्ते चिन्तामणिर्यस्य यस्य हस्ते सुरद्रमः ।
कामधेनुर्धने यस्य तस्य कःप्रार्थनाक्रमः ॥160॥
उचिते स्थानके यस्य चित्तवृत्तिरनाकुला ।
तं श्रियः स्वयमायान्ति स्रोतस्विन्य इवाम्बुधिम् ॥161॥
जिस सम्यग्दृष्टि के चित्त में चिन्तामणि है, हाथ में कल्पवृक्ष है, धन में कामधेनु है, उसको याचना से क्या मतलब ? जिसकी चित्तवृत्ति उचित स्थान को पाकर निराकुल हो जाती है, समुद्र में नदियों की तरह लक्ष्मी उसे स्वयं प्राप्त होती है ॥160-161॥

उपासकाध्ययन तत्कुदृष्टयन्तरोद्भूतामिहामुत्र च संभवाम् ।
सम्यग्दर्शनशुद्ध यर्थमाकांक्षां त्रिविधां त्यजेत् ॥162॥
अतः सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिए अन्य मिथ्या मतों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली, तथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी तीन प्रकार की इच्छाओं को छोड़ देना चाहिए ॥162॥

(भावार्थ – सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है निःकांक्षित । जिसका अर्थ है-'कांक्षा मत करो।' और कांक्षा कहते हैं भोगों की चाह को । जो विषय इन्द्रियों को नहीं रुचते, उनसे द्वेष करना ही भोगों की चाह की पहचान है, क्योंकि इन्द्रियों को रुचनेवाले विषयों की चाह के कारण ही न रुचने वाले विषयों से द्वेष होता है। देखा जाता है कि विपक्ष से द्वेष हुए बिना पक्ष में राग नहीं होता और पक्ष में राग हुए बिना उसके विपक्ष से द्वेष नहीं होता। अतः इष्ट भोगों की चाह के कारण ही अनिष्ट भोगों से द्वेष होता है और अनिष्ट भोगों से द्वेष होने से ही इष्ट भोगों की चाह होती है। जिसके इस प्रकार की चाह है वह नियम से मिथ्यादृष्टि है; क्योंकि एक तो चाह करने से ही भोगों की प्राप्ति नहीं हो जाती। दूसरे, कर्मों के उदय से प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु अनिष्ट ही मानी जाती है। इसलिए ज्ञानी पुरुष कर्म और उसके फल की चाह बिल्कुल नहीं करता। तीसरे, पदार्थों में जो इष्ट और अनिष्ट बुद्धि की जाती है वह सब दृष्टि का ही दोष है, क्योंकि पदार्थ न तो स्वयं इष्ट ही होते हैं और न स्वयं अनिष्ट ही होते हैं। यदि पदार्थ स्वयं इष्ट या अनिष्ट होते तो प्रत्येक पदार्थ सभी को इष्ट या अनिष्ट होना चाहिए था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। एक ही पदार्थ किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट प्रतीत होता है। अतः पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि भी मिथ्यात्व के उदय से ही होती है। जिसके मिथ्यात्व का उदय नहीं होता उसकी दृष्टि वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखती है और यथार्थ में कर्मों के द्वारा प्राप्त होनेवाला फल अनिष्ट ही होता है क्योंकि वह दुःख का कारण है । अतः सम्यग्दृष्टि कर्मों के द्वारा प्राप्त होने वाले भोगों की चाह नहीं करता। )

निष्कांक्षित अंग में प्रसिद्ध अनन्तमति की कथा


मनङ्गमतिमेवमपृच्छत्-'वत्से, अभिनवविवाहभूषणसुभगहस्ते, वास्ते 'समुल्लिखितलाञ्छनेन्दुसुन्दरमुखी प्रियसखी तवातीवकेलिशीलप्रकृतिरनन्तमतिः।'

अनङ्गमतिः-'तात, वणिग्वृन्दारक दारिकोद्गीयमानमङ्गला कृत्रिमपुत्रकवरव्याजेनात्मपरिणयनाचरणपरिणामपेशला पञ्जरास्थितशुकसारिकावदनवाद्यसुन्दरे वासोवासपरिसरे समास्ते।

'समाहृयतामितः'। '

यथादिशति तात'। ,

प्रियदत्तश्रेष्ठी वृद्धभावात्परिहासालापनपरमेष्ठी समागतां सुतामवलोक्य 'पुत्रि, निसर्गविलासरसोत्तरङ्गापाङ्गीपहसितामृतसरणिविषये सदैव पंञ्चालिकाकेलिकिलँहृदये संप्रत्येव तव मन्मथपथाः परिणयनमनोरथाः। तद् गृह्यतां तावत्समस्तव्रतैश्वर्यवर्य ब्रह्मचर्यम्। अत्रैष ते सातो भगवानशेषश्रुतप्रकाशनाशयभूरिधर्मकोर्तिसूरिः।।

अनन्तमतिः-तात, नितान्तं गृहीतवत्यस्मि । न केवलमत्र मे भगवानेव साक्षी किंतु भवानम्बा च । अन्यदा तु। उद्भिन्ने स्तनकुड्मले स्फुटरसे हासे विलासालसे किंचित्कम्पितकैतवाधरभरप्राये वचःप्रक्रमे।


अब इस विषय में एक कथा कहते हैं, उसे सुनिए अंगदेश की चम्पा नगरी में वसुवर्धन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पट्टरानी का नाम लक्ष्मीमति था । राज्य श्रेष्ठी प्रियदत्त था और उसकी पत्नी अंगवती थी ।एक बार एकदम प्रातः अष्टहानि का पर्व का क्रिया कर्म करने के लिए प्रियदत्त सेठ स्त्रियोचित सकल गुणों से युक्त अपनी पत्नी के साथ सहकूट चैत्यालय जाने को था । उसने अपनी लड़की की सखी अनंगमती से पूछा विवाहके नये भूषणों से अलंकृत पुत्री अतीव परिहास प्रिय तेरी सखी चन्द्रमुखी अनन्तमती कहाँ है ?

अनंगमती बोली-'पिता जी ! स्वच्छन्द विचरण करने वाले तोता मैना के मधुर कलरव से गुंजित घर के निकट भाग में, वह गुड्डे के विवाह के बहाने से अपने विवाह का स्वप्न देख रही है और श्रेष्ठीजनों की लड़कियाँ मंगल गान कर रही हैं।'

'उसे बुलाओ ?'

'जो आज्ञा'

श्रेष्ठी प्रियदत्त वृद्ध हो जाने से परिहास करने में बड़ा पटु था। कन्या को आई हुई देखकर बोला- 'पुत्रि ! सदैव गुड्डी से खेलने के लिए विकल तुम्हारे हृदय में अभी से विवाहका मनोरथ हो चला है, अतः समस्त व्रतों में श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करो। समस्त श्रुत के ज्ञाता भगवान् धर्मकीर्ति सूरि तुम्हारे साक्षी हैं।'

अनन्तमती बोली-पिताजी ! मैंने ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया। और इसमें केवल भगवान् ही साक्षी नहीं हैं किन्तु आप और माताजी भी साक्षी हैं । उक्त घटना को घटे वर्षों बीत गये और अनन्तमती में यौवन का संचार हो चला। उसके अंग-प्रत्यंग विकसित हो उठे। जब वह हँसती थी तो उसकी हँसी अलसाई हुई होती थी।

कन्दाभिनवात्रवृत्तिचतुरे नेत्राश्रिते विभ्रमे
प्रादायेव च मध्यगौरवगुणं वृद्ध नितम्बे सति ॥163॥
जब बोलती थी तो उसके ओष्ठ कुछ बनावटी कम्पन को लिये हुए होते थे। और आँखों में, कामदेव के नवीन अस्त्रों के संचालन में चतुर कटाक्ष ने अपना डेरा डाल दिया था। और मध्यभाग की गुरुता को मानो लेकर नितम्ब भाग विकसित हो गया था ॥163॥

समायाते मुहुरुत्पथप्रथमानमन्मथोन्मार्थमन्थरसमस्तसत्त्वस्वान्ते सद्यः प्रसूतसहकाराङ्कुरकवलकषायकण्ठकोकिलकामिनीकुहारावासरालितमनोजविजय मलयाचलमेखलानिलीनकिन्नरमिथुनमोहनामोदमेदुरपरिसरन्समीरसमुदये विकसत्कोशकुर वकप्रसवपरिमलपानलुब्धमधुकरीनिकरझङ्कारसारप्रसरे वसन्तसमयावसरे सा प्रसरत्स्मरविकारा स्मरस्खलन्मतिगतिरनगमतिः सह सहचरीसमूहेन मदनोत्सवदिवसे दोलान्दोलनलालसमानसा स्वकीयरूपातिशयसंपत्ति[ति]रस्कृतसकलभवनाङ्गनाङ्गविलासासुकेशीप्रियतमानुगतेन कृतकामचारप्रचारचेतसा पूर्वापराकूपारपालिन्द्री सुन्दरीसनाथोत्सङ्गधरस्य विजयार्धावनीधरस्य विद्याधरीविनोदपादपोत्पादक्षोण्यां दक्षिणश्रेण्यां किन्नरगीतनामनगरनरेन्द्रेण कुण्डलमण्डितनाम्नाम्बरचरेण निचायितां ।


शृङ्गारसारममृतधु तिमिन्दुकान्ति मिन्दीवरद्युतिमनङ्गशरांश्च सर्वान् ।
आदाय नूनमियमात्मभुवा प्रयत्ना त्सृष्टा जगत्त्रयवशीकरणाय बाला ॥164॥
यौवन के साथ ही वसन्त ऋतु भी आ टपकी । समस्त प्राणियों के मन को कामदेव ने सताना प्रारम्भ कर दिया। आमके वृक्षों पर मौर आ गये और उसे खाकर कोयलने 'कुह' 'कुह' करके कामदेव की विजय यात्रा को सूचना कर दी। मलय वायु बहने लगी। कमलों पर भौरें गुंजार करने लगे।

एक बार मदनोत्सव के दिन रूपवती युवती अनन्तमती अपनी सखियों के साथ झूला झूलने के लिए उद्यानमें गई। विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणि में स्थित किन्नर गीत नामक नगर का स्वामी कुण्डलमण्डित विद्याधर अपनी पत्नी सुकेशी के साथ आकाश में विहार करता था। उसने उसे देखा। और उसके लावण्य से मोहित होकर सोचने लगा-'शृङ्गार से सार, अमृतसे तरलता, चन्द्रमा से कान्ति, कमल से शोभा और कामदेव से बाणों को लेकर ही स्वयंभू ब्रह्माने तीनों लोकों को वश में करने के लिए इस बाला की रचना बड़े श्रम से की है ॥164॥

इति विचिन्त्याभिलषिता च। ततस्तामपजिहीर्षुधिषणेन"मुहुनिवृत्य निर्वर्तितनिजनिलयसुकेशीनिवेशेन प्रत्यागत्यापहृत्य च पुनर्नभश्चरपुरं प्रत्यनुसरता गगर्ने मार्गाढे प्रतिनिवृत्तकुपितसुकेशीदर्शनाशङ्किताशयेन तत्कायसंक्रमितावलोकिनीपर्णलघुविद्याद्वयन शङ्खपुराभ्यर्णभागिनि भीमवननामनि कानने मुक्ता। तत्र च मृगयाप्रेशंसनमागतेन भीमनाम्ना किरातराजलक्ष्मीसीम्नावलोकिता, नीता चोपान्तप्रकोणदिफलच्छल्लि पल्लिम् । एतद्रुपदर्शनदीप्तमदेनमदेन च तेन स्वतः परतश्च तैस्तैरुपायैरात्मसंभोगसहायैः प्रार्थिताप्यसंजातकामिता हठात्कृतकठोरकामोपक्रमेण तत्परिगृहीतव्रतस्थैर्याश्चर्यितकान्तारदेवताप्रातिहार्यात्पर्याप्तपक्कणप्लोषेण मृत्युहेतुकातङ्कपावकपच्यमानशरीरेण च 'मातः, क्षमस्वैकमिममपराधम्' इत्यभिधाय वनेचरोपचारोपचीयमानसहचरीचित्तोत्कण्ठे शङ्खपुरपर्यन्तपर्वतोपकण्ठे परिहृता तत्समीपसमावासितसार्थानीकेन पुष्पकनामकेन वणिक्पतिपाकेनावलोकिता सती स्वीकृता च तेन तेन चार्थेन स्वस्य वशमानेतुमसमर्थन कोशलदेशमध्यायामयोध्यायां पुरि व्यालिकाभिधानकामपल्लवकन्दल्याः शंफल्लयाः समर्पिता। तयापि मदनमदसंपादनावसथाभिः कथाभिः क्षोभयितुमशक्या तद्राजधानीविनिवेशस्य सिंहमहीशस्योपार्यनीकृता। तेनाप्यलब्धतन्मनःप्रवेशेन विलक्षितातिप्तदुरभिसंधिना तत्कन्यापुण्यप्रभावप्रेरितपुर देवतापादितान्तःपुरपुरीपरिजनापकारविधिना साधु संबोध्य नियमसमाहितहृदयचेष्टा विसृष्टा पितृस्वसुः सुदेवीनामधेयायाः पत्युः पितुश्चाहहत्तस्य सुगृहीतनामवृत्तस्य जिनेन्द्रदत्त स्योदवसितसमीपवर्तिनं विरतिचैत्यालयमवाप्य तत्र निवसन्ती यमनियमोपवासपूर्वकैर्विधिभिः क्षपितेन्द्रियमनोवृत्तिर्भवन्ती। तस्मादङ्गदेशनगराजिनेन्द्रदत्तं चिरविरहोत्तालं श्यालं विलोकितुमागतेन प्रियदत्तश्रेष्ठिना वीक्ष्य विषयाभिलापमोषपरुषकचा सा विहितबहुशुचा पुनः प्रत्याय्य तस्मै जिनेन्द्रदत्तसुतायाहहत्ताय दातुमुपक्रान्ता-'तात, तं भदन्तं भगवन्तं पितरं मातरं च तां प्रमाणीकृत्य कृतनिरवधिचतुर्थव्रतपरिग्रहा। ततः कथमहमिदानी विवाहविधये परिकल्पनीया' इति निगीर्य कमलश्रीसकाशे बिरतिविशेषवशं रत्नत्रयकोशमभजत् ।


यह सोच उसको हरने की इच्छा से अपने घर की ओर लौटा । वहाँ अपनी पत्नी सुकेशी को छोड़कर फिर उसी उद्यान में आया और अनन्तमती को हरकर आकाश मार्ग से अपने नगर की ओर चल दिया। आधे मार्ग में लौटती हुई अपनी कुपित पत्नी को देखकर उसके भय से उसने उसे पर्णलघु नामकी दो विद्याओं को सौंप दिया और उन्होंने अनन्तमती को शंखपुर के निकटवर्ती भीमवन नाम के जंगलमें छोड़ दिया। वहाँ शिकार खेलने के लिए आये भिल्लराज भीम ने उसे देखा और वह उसे अपनी कुटिया पर ले आया, जहाँ आस-पास में इंगुदी वृक्ष के फलों की लताएँ फैली हुई थीं। भिल्लराज इसके रूप को देखकर कामान्ध हो गया। उसने स्वयं तथा दूसरे के द्वारा अनन्तमती से भोग की बारम्बार प्रार्थना की, किन्तु वह तैयार नहीं हुई। तब उसने बलात्कार करने का प्रयत्न किया ।किन्तु उसके व्रतके माहात्म्य से वन देवता ने उसकी रक्षा की और शबरालय में आग लगा दी। जब भिल्लराजका शरीर जलने लगा और उसने मृत्यु निकट देखी तो बोला-'माता ! मेरे इस एक अपराध को क्षमा करो।' इस प्रकार क्षमा माँगकर उसने अनन्तमती को शंखपुर के निकटवर्ती पर्वत के समीपमें छुड़वा दिया । वहाँ पास में व्यापारियों का एक समूह आकर ठहरा हुआ था। वणिक् पति के पुत्र पुष्पक ने अनन्तमती को देखा और जिस-तिस उपायों से उसे वशमें लाने का प्रयत्न किया। जब वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं हो सका तो उसने उसे कौशल देशके मध्यमें बसी हुई अयोध्या नगरी में व्यालिका नाम की वेश्या को सौंप दिया ।वेश्या ने कामोन्मत्त करने वाली कथाएँ सुना-सुनाकर उसे क्षुब्ध करना चाहा किन्तु वह भी अपने प्रयत्न में असफल रही। तब उसने उसे अयोध्या के राजा सिंह महीपति को भेंट कर दिया। राजा सिंह भी जब उसके हृदय में स्थान नहीं पा सका तो उसने उसके साथ बलात्कार करना चाहा ।तब उस कन्या के पुण्य के प्रतापसे नगर देवता ने आकर उसकी रक्षा की वहाँ से निकलकर वह अपने पिता की भगिनी सुदेवी के पति तथा अर्हद्दत्त के पिता जिनेन्द्रदत्त के निकटवर्ती चैत्यालय में जाकर रहने लगी और यम नियम तथा उपवास के द्वारा इन्द्रियों और मन की चंचलता को दूर करने लगी। एक दिन अनन्तमती का पिता श्रेष्ठी प्रियदत्त अंगदेश से अपने बहनोई जिनेन्द्रदत्त को देखने के लिए आया। वहाँ उसने अपनी पुत्री अनन्तमती को देख बहुत विलाप किया और बाद को उसे जिनेन्द्रदत्त के पुत्र अर्हद्दत्त से विवाहने का प्रस्ताव किया। तव पुत्री बोली-'पिताजी ! भगवान् आचार्य, आप और अपनी जननी को साक्षी करके मैंने आजन्म के लिए ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया था। अतः अब कैसे मैं विवाह की विधिके लिए तैयार हो सकती हूँ।'

ऐसा कहकर उसने कमलश्री आर्यिका के समीप में व्रत धारण कर लिये।

इसके विषय में एक श्लोक भी है

भवति चात्र श्लोकः हासात्पितुश्चतुर्थेऽस्मिन्नतेऽनन्तमतिः स्थिता ।
कृत्वा तपश्च निष्काङ्क्षा कल्पं द्वादशमाविशत् ॥165॥
इत्युपासकाध्ययने निष्काङ्क्षिततत्त्वावेक्षणो नामाष्टमः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में निःकांक्षित तत्त्व को बतलानेवाला आठवाँ कल्प समाप्त हुआ ।