+ निर्विचिकित्सा अङ्ग -
नौवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

(अब निर्विचिकित्सा अंग को बतलाते हैं-)

स्वस्यैव हि स दोषोऽयं यन्न शक्तः श्रुताश्रयम् ।
शीलमाश्रयितुं जन्तुस्तदर्थ वा निबोधितुम् ॥167॥
स्वतःशुद्धमपि व्योम वीक्षते यन्मलीमसम् ।
नासौ दोषोऽस्य किं तु स्यात्स दोषश्चक्षुराश्रयः ॥168॥
दर्शनाइहदोषस्य यस्तत्त्वाय जुगुप्सते ।
स लोहे कालिकालोकानूनं मुञ्चति काञ्चनम् ॥169॥
स्वस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिश्छायामनोहरः।
अन्तर्विचार्यमाणः स्यादौदुम्बरफलोपमः ॥170॥
तदैतिहह्ये च देहे च याथात्म्यं पश्यतां सताम् ।
उद्वेगाय कथं नाम चित्तवृत्तिःप्रवर्तताम् ॥171॥
'जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया यह उग्र तप प्रशंसनीय नहीं है, उसमें अनेक दोष हैं।' इस प्रकार चित्त में सोचना विचिकित्सा कहाता है। शास्त्र में कहे गये शील को पालने अथवा उसका आशय समझने में जो जीव असमर्थ है सो यह उसी का दोष है। स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन दिखाई देता है सो यह आकाश का दोष नहीं है किन्तु देखने वाले की आँखों का दोष है। जो मनुष्य शरीर में दोष देखकर उसके अन्दर बसने वाली आत्मा से ग्लानि करता है, वह लोहे की कालिमा को देखकर निश्चय ही सोने को छोड़ता है। अर्थात् जैसे लोहे की कालिमा का सोने से कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही शरीर की गन्दगी का आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः शरीर के गन्देपन को देखकर तपस्वी साधु की आत्मा से घृणा नहीं करनी चाहिए । अपना शरीर हो या दूसरे का, वह बाहर से ही मनोहर लगता है। उसके अन्दर की हालत का विचार करने पर तो वह उदुम्बर के फल के समान ही है । अतः इस परम्परागत उपदेश तथा इस शरीर के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले सज्जनों की चित्तवृत्ति (शरीर की गन्दगी को देखकर) कैसे व्याकुल हो सकती है ? ॥166-171॥

(भावार्थ – रत्नकरण्ड श्रावकाचार में निर्विचिकित्सा का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि यह शरीर स्वभाव से ही गन्दा है, किन्तु यदि उसमें रत्नत्रय से पवित्र आत्मा का वास है तो शरीर से ग्लानि न करके उस आत्मा के गुणों से प्रीति करने को निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि दुर्भाग्य से पीड़ित मनुष्यों को देखकर सुखी मनुष्यों के चित्त में यह भावना आ जाती है कि हम श्रीमान् हैं और यह बेचारा विपत्ति का मारा हुआ दीन-हीन प्राणी है, यह भला हमारे बराबर कैसे हो सकता है। इस प्रकार का अहंकार केवल अज्ञान मूलक है वास्तव में कर्मों के बन्धन में पड़े हुए सभी प्राणी समान हैं। अतः जो कर्मों के शुभोदय से फूलकर कों के अशुभोदय से पीड़ित प्राणियों से घृणा करते हैं और शास्त्र में प्रतिपादित जप-तप-नियमादिक को कष्टदायक जानकर उसे वृथा समझते हैं तथा तपस्वियों के मैले शरीर को देखकर उनकी निन्दा करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं-उनकी दृष्टि ठीक नहीं है। और जो वैसा नहीं करते, वे ही सम्यग्दृष्टि हैं ।)

(निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कथा इस सम्बन्ध में एक कथा है, उसे सुनिए -)

मिन्द्रकच्छदेशेषु मायापुरीत्यपरनामावसरस्य रौरुकपुरस्य प्रभोः प्रभावतीमहादेवीविनोदायतनादौहायनान्मेदिनीपतेः सहर्शनशरीरगदचिकित्सायामचिकित्सायामपरः कोऽपि क्षान्तमतिप्रसरो मोक्षलक्ष्मीकटाक्षावेक्षणाक्षुण्णपात्रे मर्यक्षेत्रे नास्तीत्येतच्च वासवसंशेशस्त्रिदशः पुरन्दरोदितासहमानप्रशस्तत्र महामुनिसमूहप्रचारप्रचरे नगरेऽवतीर्य सर्वाङ्गाधिनाऽप्रतिष्ठैकुष्ठकोष्ठकं निष्ठ यूतद्रवोद्रेकोपद्रुतदेहमखिलदेहिसंदोहोद्वेजनधैवणेक्षणघ्राणगरणविनिर्गलदनर्गलदुर्गन्धपू. यप्रर्वाहमूर्धस्फुटितस्फोटस्फुटचेष्टितानिष्टमतिकाक्षिप्ताशेषशरीरमभ्यन्तरोच्छयथुकोथोत्तरङ्गत्वगन्तरालप्रलीनाखिलनखनासीरमविच्छिन्नोन्मूंछेदतुच्छकच्छ्रच्छन्नसृक्कसारिणीसरॅन्सततलालास्रावमनवरतस्रोतःसंतातीसारसंभूतबीभत्सभामनेकशी विशिखाशिखोत्पतनिपताश्रिताशुचिरं शिदुर्दर्शवपुषमृषिवेषमादायाद नायावनीपतिभवनमभजत् । भूपतिरपि सप्ततलारब्धसौधमध्यमध्यासीनस्तमसाध्यव्याधिविधुरधिषाणाधीनविष्वाणोध्येषणाय निजनिलयमालीय मानमवलोक्य सौत्सुक्यमागत्य स्वीकृत्यच कृत्रिमातङ्कपावकपरवशास्वनितं मुहुर्मुहुर्महीतले निपतन्तमनुद्विग्नमनश्चरित्रः प्रकामदुर्जयखर्जनार्जनजर्जरितगात्रं काश्मीरपङ्कपिञ्जरेण भुजपअरेणोदनीयानीय चाशेनवेश्मोदरं स्वयमेवसमाचारितोपकारस्तदभिलाषोन्मेषसारैराहारैरुपशान्तार्शनीयोत्कण्ठमाकण्ठं भोजयामास ।

मायामुनिः पुनरपि तन्मनोजिशासमानमानसः प्रसभमतिगम्भीरगलगुहाकुहरोजिहानघोरघोषाभिघातघनघूर्णितापघनमप्रतिघं चीवमीत् / भूमीपतिरपि 'श्राः, कष्टमजनिष्ट, यन्मे मन्दभाग्यस्य गृहे गृहीताहारोपयोगस्यास्य मुनेमनः खेदपादपवितर्दिच्छर्दिः समभूत्' इत्युपेक्रुष्ठानिष्टचेष्टितवानमात्मानं विनिन्दन्मायामयमक्षिकामण्डलितकपोलरेखादेतन्मुखादसराललालाक्लिन्नमिन्दिरीमन्दिरारविन्दोदरसौन्दर्यनिकटेनाञ्जलिपुटेनादायादाय मेदिन्यामुदसृजत्। पुनश्चोगीर्णोदीर्णदुर्वर्णकूर निकरे 'भभ्रिमिनिर्भरारम्भपतितशरीरं सप्रयत्नकरस्थामसीमं' समुत्थाप्य जलजनितक्षालनप्रसंगमुत्तरीयदुकूलाञ्चलविलुप्तसलिलसंगमङ्गसंवाहनेनानुकम्पनविधानोचितवचनरचनेन च साधु समाश्वासयत्। तदनु प्रमोदामृतामन्दहृदयालवालक्लयोल्लसत्प्रीतिलतावनिः सुरचरो मुनिर्यथैवायं सहर्शनश्रवणोत्कण्ठितहृदि 'त्रिदिवोत्पादिपरिषदि परगुणग्रहणाग्रहनिधानेन विबुधप्रधानेन प्राज्यराज्यसमज्यार्जनसर्जितजगत्त्रयीनिजनामधेयप्रसिद्धिर्यथोक्तसम्यक्त्वाधिगमावधेयबुद्धि - रुपवर्णितस्तथैवायं मया महाभागो निर्वर्णित इति विचिन्त्य प्रकटितात्मरूपप्रसरस्तमवनीश्वरममरतरुप्रसूनवर्षानन्ददुन्दुभीनादोपघातशुचिभिः .. - साधुकारपरव्याहारावसरशुचिभिरुदारैरुपचारैरनिमिर्षविषयसंभूष्णुभिर्मनोभिलषितसंपादनजिष्णुभिस्तैस्तैः पठितमात्रैविधेयविद्योपदेशगभैर्वस्त्रसंदर्भश्च संभाव्य सुरसेव्यं देशमाविवेश ।


एक बार, मति, श्रुत और अवधि ज्ञान से युक्त सौधर्मेन्द्र देवों की सभा में उनके उपकार के लिए सम्यग्दर्शन रूपी रत्न के गुणोंका उदाहरण देते हुए बोला-'इस समय, मोक्ष रूपी लक्ष्मी के कटाक्ष को देखने के लिए निर्दोष पात्र स्वरूप इस मनुष्य लोक में, इन्द्रकच्छ देश की मायापुरी नगरी के स्वामी राजा उद्दायन के समान निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने वाला दूसरा नहीं है।'

यह बात वासव नाम के देव को सह्य नहीं हुई। वह अनेक महामुनियों के विहार से पवित्र उस नगरी में आया और उसने एक कोढ़ी मुनि का रूप धारण किया। उसके समस्त अंग कोढ़ से गल रहे थे, सारा शरीर बहते हुए पीब वगैरह से सना था, आँख, नाक, कान वगैरहके छिद्रों से अत्यन्त दुर्गन्धवाला मल बहता था, जिसे देखकर सबको ग्लानि होती थी, शरीरके ऊपरी भागमें अनेक फोड़े उठे हुए थे जिनपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। समस्त शरीरमें निरन्तर खाज उठ रही थी, ओठों के दोनों ओरसे निरन्तर राल टपकती थी और अतीसार रोग के कारण निरन्तर मल, बहता था ।गन्दी नालियों में गिरने उठने से उसका शरीर गन्दगी से भरा हुआ था।

ऐसे दुर्दर्शनीय साधु का वेष बनाकर भोजन करने के लिए वह देव राजभवन गया। अपने सतमंजिले महल में बैठे हुए राजा ने असाध्य रोग से व्याकुल बुद्धि वाले उस साधुको जैसे ही भोजन के लिए अपने महल की ओर आता हुआ देखा, वह बड़ी उत्सुकता के साथ उठकर आया और उसे पड़गाहा । बनावटी रोग से उसकी आवाज भारी हो रही थी, बार-बार वह पृथ्वीपर गिर पड़ता था तथा अत्यन्त भयानक खाज से उसका शरीर जर्जर हो चुका था । ऐसे उस साधु को वह राजा किसी उद्वेग के बिना केशर के लेप से पीली हुई अपनी भुजाओं में उठाकर भोजनशाला में लाया । और स्वयं ही सब उचित उपचार करके उसे भरपेट रुचिकर आहार कराया।

तब उस मायावी मुनि ने राजा के मन का भाव जानने की इच्छासे, मेघ के गर्जन को भी मात कर देने वाली गलेकी आवाज के साथ जो कुछ खाया पिया था वह सब वमन कर दिया ।'यह बड़ा बुरा हुआ जो मुझ अभागे के घर भोजन करने से मुनिराज को वमन हो गया। इस प्रकार अपने को अनिष्ट चेष्टाओं से युक्त मानकर वह राजा अपनी निन्दा करते हुए, मायामयी मक्खियों के झुण्डसे आक्रान्त उस साधु के मुखसे निरन्तर बहने वाली लार से सने हुए अन्न को, लक्ष्मी के निवासस्थान कमल के समान सौन्दर्यशाली अपनी अञ्जलि से उठा-उठाकर भूमिमें फेंकने लगा। फिर वमन किये हुए दुर्गन्धित अन्न पर मूर्छा आजानेके कारण एक दम गिर पड़े साधु के शरीर को बड़े श्रमके साथ अपने हाथों में उठाकर अपने दुपट्टे के कोने को जल में भिगोकर उससे उसे धोने लगा। तथा पगचम्पी वगैरह व दयापूर्ण शब्दों के द्वारा वह साधु को ढाढस बधाने लगा। राजा के इस सेवाभाव को देखकर मुनि वेषधारी उस देव के प्रमोदरूपी जल से परिपूर्ण हृदय रूपी क्यारी में प्रीतिरूपी लता लहलहाने लगी। वह सोचने लगा - 'सम्यग्दर्शन का वर्णन सुनने के लिए उत्कण्ठित देवताओं की सभा में, दूसरों के गुणों को ग्रहण करने का आग्रह रखने वाले इन्द्र ने तीनों लोकों में अपने नाम को ख्यात करनेवाले यथोक्त सम्यक्त्व के आराधक इस राजा के सम्बन्ध में जैसा कहा था वैसा ही इस महाभाग को मैंने पाया । ऐसा सोचकर उसने अपना असली रूप प्रकट कर दिया । और अमर तरु के पुप्पों की वर्षा, दुन्दुभि के आनन्दपूर्ण नाद तथा दूसरों के आदर-सत्कार के अवसरपर किये जाने वाले अन्य महान् उपचारों के द्वारा राजाका बड़ा सम्मान किया और उसे पाठमात्र से सिद्ध होनेवाली अनेक विद्याएँ तथा वस्त्र वगैरह देकर स्वर्गलोक को चला गया।

भवति चात्र श्लोकः


बालवृद्धगदग्लानान्मुनीनौहायनः स्वयम् ।
भजनिर्विचिकित्सात्मा स्तुतिं प्रापत्पुरन्दरात् ॥172॥
इसके विषय में भी एक श्लोक है, जिसका आश्रय इस प्रकार है -

"बाल, वृद्ध और रोग से पीड़ित मुनियो की स्वयं सेवा करनेवाला, निर्विचिकित्सा अंगका पालक, राजा उद्दायन इन्द्र के द्वारा प्रशंसित हुआ।"

इत्युपासकाध्ययने निर्विचिकित्सासमुत्साहनो नाम नवमः कल्पः।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में निर्विचिकित्सा अङ्ग का वर्णन करने वाला नौवाँ कल्प समाप्त हुआ ।