+ भव्यसेन मुनि की दुश्चेष्टा -
दसवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

(अब अमूढदृष्टि अङ्ग को बतलाते हैं-)

अन्तर्दुरन्तसंचारं बहिराकारसुन्दरम् ।
न श्रद्दध्यात्कुदृष्टीनां मतं किम्पाकसंनिभम् ॥173॥
जिसके अन्दर बुराइयाँ भरी हैं किन्तु जो बाह रसे सुन्दर है, किम्पाक फल के समान ऐसे मिथ्यादृष्टियों के मत पर श्रद्धा मत करो ॥173॥

श्रुतिशाक्यशिवाम्नायः क्षौद्रमांसासवाश्रयः ।
यदन्ते मखमोक्षाय विधिरत्रैतदन्वयः ॥174॥
वैदिक मत में मधु के प्रयोग का विधान है, बौद्ध मत में मांस-भक्षण का विधान है, और शैवमत में मद्य पान का विधान है। इन आम्नायों में जो यज्ञ और मोक्ष की विधियाँ है, उनमें भी उक्त वस्तुओं के सेवन का विधान आता है ॥174॥

भर्मिभस्मजटावोटयोगपट्टकटासनम् ।
मेखलाप्रोक्षणं मुद्रा वृषीदण्डः करण्डकः ॥175॥
शौचं मजनमाचामः पितृपूजानलार्चनम् ।
अन्तस्तत्त्वविहीनानां प्रक्रियेयं विराजते ॥176॥
को देवः किमिदं शानं किं तत्त्वं कस्तपःक्रमः ।
को बन्धः कश्च मोक्षो वा यत्तत्रेदं न विद्यते ॥177॥
नशा करना, भस्म रमाना, जटाजूट रखना, योगपट्ट, कटिसूत्र-धारण, यज्ञ के लिए पशुवध करना, मुद्रा, कुशासन, दण्ड, पुष्प रखने का पात्र, शौच, स्नान, आचमन, पितृतर्पण और अग्निपूजा, ये सब आत्मतत्त्व से विमुख साधकों की प्रक्रिया है ।।कौन देव है ? तत्त्व क्या है, तपस्या का क्रम क्या है ? बन्ध किसे कहते हैं ? मोक्षका क्या स्वरूप है ? ये सब बातें वहाँ नहीं हैं ॥175-177॥

प्राप्तागमाविशुद्धत्वे क्रिया शुद्धापि देहिषु ।
नाभिजातफलप्राप्त्यै विजातिष्विव जायते ॥178॥
तत्संस्तवं प्रशंसां वा न कुर्वीत कुदृष्टिषु ।
ज्ञानविज्ञानयोस्तेषां विपश्चिन्न च विभ्रमेत् ॥179॥
यदि देव और शास्त्र निर्दोष न हों तो प्राणियोंकी शुद्ध क्रिया भी श्रेष्ठ फल को नहीं दे सकती। जैसे विजातियों में कुलीन सन्तान की प्राप्ति नहीं होती । इसलिए मिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और न वचन से स्तुति.करनी चाहिए ।तथा समझदार मनुष्यों को उनके ज्ञानादिक को देखकर भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए ॥178-179॥

(भावार्थ – अतत्त्व को तत्त्व मानना, खोटे गुरु को गुरु मानना, कुदेव को देव मानना और अधर्म को धर्म मानना मूढता है। और जो इस प्रकार की मूढता नहीं करता वह अमूढ़दृष्टि अङ्ग वाला कहा जाता है । कुछ लोगों का यह भाव रहता है कि लौकिक कल्याण के लिए कुदेवों की आराधना करनी चाहिए। किन्तु यह सब लोकमूढ़ता है। इस प्रकार की मूढता सम्यग्दृष्टि को शोभा नहीं देती। )

अमृढदृष्टि अंग में प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा


इस विषय में एक कथा हैं, उसे सुनें

श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-मुक्ताफलमञ्जरीविराजितविलासिनीकर्णकुण्डलेषु पाण्डयमण्डलेषु पौरपुण्याचारविदूरितविथुरायां दक्षिणमथुरायामशेषश्रुतपारावारपारगमवधिवोधाम्बुधिमध्यसाधितसकलभुवनभागम् , अष्टाङ्गमहानिमित्तसंपत्तिसमधिकधिषणाधिकरणम् , अखिलश्रमणसंघसिंहोपास्यमानचरणम् अत्याश्चर्यतपश्चरणगोचराचारचातुरीचमत्कृतचित्तखचरेश्वरविरचितचरणार्चनोपचारं श्रीमुनिगुप्तनामव्याहारं भदन्तं भगवन्तं गगनगैमनाङ्गनापाङ्गामृतसारणीसंबन्धवीधस्य विजयार्धमेदिनीधस्य रतिकेलिविलासविगलितनिलिम्पललनामेखलामणौ दक्षिणश्रेणी मेघकूटपट्टनाधिपत्योपान्तः सुमतिसीमन्तिनीकान्तः संसारसुखपराङ्मुखप्रतिभश्चन्द्रशेखराय सुताय निजैश्वर्य वितीर्य पर्यवसितदेशयतिरूपः सकलाम्बरचरविद्यापरिग्रहसमीपः सप्रश्रयमभिवन्द्यानवद्यविद्यामहन् भगवन् , पौराङ्गनाशृङ्गारोत्तरङ्गापाङ्गपुनरुक्तस्मरशरायामुत्तरमथुरायां जिनेन्द्रमन्दिरवन्दारुहृदयदोहदवर्ती वर्तेऽहम् । अतस्तन्नगरीगमनाय तत्र भगवता भगवतानुज्ञातव्योऽस्मि । किं च कस्य तस्यां पुरि कथयितव्यमित्यपृच्छत् ।

श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-मुक्ताफलमञ्जरीविराजितविलासिनीकर्णकुण्डलेषु पाण्डयमण्डलेषु पौरपुण्याचारविदूरितविथुरायां दक्षिणमथुरायामशेषश्रुतपारावारपारगमवधिवोधाम्बुधिमध्यसाधितसकलभुवनभागम् , अष्टाङ्गमहानिमित्तसंपत्तिसमधिकधिषणाधिकरणम् , अखिलश्रमणसंघसिंहोपास्यमानचरणम् अत्याश्चर्यतपश्चरणगोचराचारचातुरीचमत्कृतचित्तखचरेश्वरविरचितचरणार्चनोपचारं श्रीमुनिगुप्तनामव्याहारं भदन्तं भगवन्तं गगनगैमनाङ्गनापाङ्गामृतसारणीसंबन्धवीधस्य विजयार्धमेदिनीधस्य रतिकेलिविलासविगलितनिलिम्पललनामेखलामणौ दक्षिणश्रेणी मेघकूटपट्टनाधिपत्योपान्तः सुमतिसीमन्तिनीकान्तः संसारसुखपराङ्मुखप्रतिभश्चन्द्रशेखराय सुताय निजैश्वर्य वितीर्य पर्यवसितदेशयतिरूपः सकलाम्बरचरविद्यापरिग्रहसमीपः सप्रश्रयमभिवन्द्यानवद्यविद्यामहन् भगवन् , पौराङ्गनाशृङ्गारोत्तरङ्गापाङ्गपुनरुक्तस्मरशरायामुत्तरमथुरायां जिनेन्द्रमन्दिरवन्दारुहृदयदोहदवर्ती वर्तेऽहम् । अतस्तन्नगरीगमनाय तत्र भगवता भगवतानुज्ञातव्योऽस्मि । किं च कस्य तस्यां पुरि कथयितव्यमित्यपृच्छत् ।

मुनिसत्तमः-'प्रियतम, यथा ते मनोरथस्तथाभिमतपथः समस्तु । संदेष्टव्यं पुनस्तत्रतावदेव यदुत तत्पुरीपुरंदरस्य वरुणधरणीश्वरस्य शचीसदृशः सुदृशः पतिजिनपतिचित्तचरणोपचारपदव्या महादेव्या रेवतीतिगृहीतनामया मदीयाशीर्वाच्या, तथावश्यकविशेषवश्यचित्तः सुव्रतभगवतो बन्दना च ।। देशे यतिवरः-किमपरः तत्र भगवन्, जैनो जनो नास्ति । भगवान्-'देशवतिन् , अलं विकल्पेन । तत्र गतस्य भविष्यति समस्ताप्याहतेतरशरीरिसपंक्षा समक्षा स्थिति। खचरविद्याबीजप्ररोहमल्लकः तुल्लको 'यथादिशति दिव्यज्ञानसंगवान्भगवान्' इति निगीर्य गगनचर्ययावतीर्य चोत्तरमथुसयां परीक्षेय तावदेकादशाङ्गनिधानं भव्यसेनम् । तदनु परीक्षिष्ये सम्यक्त्वरत्नवती रेवतीमिति कृतकौतुक : कलमकणिशकिंशारुप्रकाशकेशपेशलासरालचूलमुत्तप्तकाञ्चनरुचिरुचिरशरीरगौरतानुकूलमरविन्दमकरन्दपरागपिङ्गलनयनमतिस्पष्टविकटवर्णवर्णनोदीर्णवदनमेकादशवर्षदेशीयमतिविस्मयनीयं कपटबटुवेषमाश्लिष्य तन्मुनिमतमुर्दवसितमयासीत् । वेषमुनिस्तमीक्षणकमनीयं द्विजात्मजसजातीयं विलोक्य किलैवं स्नेहाधिक्यमालीलपत्–'हंहो, निखिलद्विजवंशव्यतिरिक्तसुकृतकृतकल्याणप्रकृतितया समस्तलोकलोचनानन्दो त्पादनपटो बटो कुतः खलु समागतोऽसि ।

अभिनवजनमनोह्लादनवचनागदप्रयोगचरकभट्टारक, सकलकलाविलासावासविद्वजनपवित्रात्पाटलिपुत्रात्' । 'किमर्थम्'। 'अध्ययनार्थम्' । 'क्वाधिजिंगांसाधिकरणमन्तःकरणम्' । 'वाङ्मलक्षालनकरप्रकरणे व्याकरणे'। 'यद्येवं मदन्तिके स्वाध्यायध्यानसर्वस्व समास्व । परवादिमदविदारणवाक्प्रक्रमा से भगवन् , साधु समासे । ___ तदन्वतीतवतीषु कियतीषुचित्कालकलासु 'बटो, ललाटंतपो वर्तते मार्तण्डः । तद्गृहाणेमं कमण्डलुम् । पर्यटयागच्छावः' । बटुः-'यथाज्ञापयति भगवान्' । पुनर्नगरबाहिरिकायां निर्गते सरूपसंयते स कपटबटुर्मायामयशष्पाङ्क रनिकरनिकीर्णी बिहारावतीर्णामवनिमकार्षीत् । तदर्शनादाकृतियतिरपि मनाग्यलम्बिष्ट । बटुः-'भगवन् , किमित्यकाण्डे विलम्ब्यते'। 'बटो, प्रवचने किलैते शष्पाङ्क राः स्थावराः प्राणिनः पठ्यन्ते'। 'भगवन्, श्वासादिषु मध्ये कियतिथगुणः खल्वमीषां प्राणः। केवलं रत्नाङ्क रा इव धराविकारा ोते"शष्पाकुराः।'

वेशमुनिः 'साध्वयमभिदधाति' इति विचिन्त्य विहत्य च निःशङ्कनिष्पादितनीहारो विरहितव्याहारः' करेण 'किमप्यभिनयन्नेवमनेनोक्तः-'भगवन् , किमिदं मौनेनामिनीयते। जिनरूपाजीव : अभिमानस्य रक्षार्थ प्रतीक्षार्थ श्रुतस्य च ध्वनन्ति मुनयो मौनमदनादिषु कर्मसु ॥ 180॥

इति मौनफलमविकल्प्य जातजल्पः 'द्विजात्मज, समन्विष्य समानीयतामावायत्कायो गोमयो भसितपटलमिष्टकाशकलं वा'। 'भगवन्, अखिललोकशौचोचितप्रवृत्तिकायां मृत्तिकायां को दोषः'। 'बटो, प्रवचनलोचननिचा यिकास्तत्कायिकाः किल तत्र सन्ति जीवाः'। 'भगवन्, ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीवगणः। न च तेषु तवयमुपलभ्यते'। 'यद्येवमानीयतां मृत्स्ना कृत्स्नाऽसुमत्सेव्या' । बटुस्तथाचर्य कुण्डिकामर्पयति । मुधामुनिर्जलविकलां कमण्डलु करेणाकलय्य 'वटो, रिक्तोऽयं कमण्डलुः ।

'भगवन् , इदमुदकमचिरवल्ले तल्ले समास्ते'। 'बटो, पटापूतपानीयादाने महदादीनवं किमिति यतो जन्तवः सन्ति। तदसत्यमिह स्वच्छतया विहायसीव पयसि तदनवलोकनादिति वचनात्तत्र बहिस्तन्त्रसंयमिनि तत्त्वाभिनिवेशवशिकाशयवेश्मनि तद्देशमुद्दिश्याश्रितशौचे खचरेण चिन्तितम् अत एव भगवानतीन्द्रियपदार्थप्रकाशनशेमुषींप्राप्तः श्रीमुनिगुप्त्यो[-तो]ऽस्य किमपि न वाचिकं प्राहिणोत् । यस्मादस्मिन्प्रदीपवर्तिवदनमिवान्तस्तत्त्वसर्गे निसर्गमलीमसं मानसं बहिः प्रकाशनसरसं च।


पाण्ड्य देश को दक्षिण मथुरा नगरी में श्री मुनिगुप्ताचार्य विराजमान थे। वे समस्त श्रुत समुद्र के पारगामी थे, उनके अवधिज्ञान रूपी समुद्र के मध्य में समस्त भुवन के भाग वर्तमान थे, वे अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे, समस्त मुनिसंघ उनके चरणों की उपासना करता था। उनके आश्चर्यकारी तपश्चरण को देखकर विद्याधरों के स्वामियों के चित्त भी आश्चर्यचकित हो गये थे और वे उनके चरणों की पूजा करते थे। विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणि के मेघकूट नामक नगर का राजा संसार के सुख से विमुख होकर, अपने पुत्र चन्द्रशेखर को अपना राज्य देकर विरक्त हो गया । और मुनि गुप्ताचार्य के समीप में उसने देशचारित्र धारण कर लिया । साथ ही परोपकार और वन्दना वगैरह के लिए उसने कुछ विद्याएँ भी अपने पास रक्खीं ।

एक दिन मुनिगुप्ताचार्य के पास जाकर वह बोला-"भगवन् , मैं उत्तर मथुरा के जिनालयों की वन्दना करना चाहता हूँ अतः उस नगरी को जाने की आज्ञा प्रदान करें। तथा उस नगरी में यदि किसी से कुछ कहना हो तो वह भी बतला दें कि किससे क्या कहूँ। आचार्य बोले-'प्रियवर ! अपने मनोरथ के अनुसार मथुरा नगरी को जाओ। और वहाँ के लिए मेरा इतना ही सन्देश है कि उस नगरी के स्वामी वरुण राजा की रानी जिन भगवान्के चरणों की अनन्य उपासिका पतिव्रता महादेवी रेवती को मेरा आशीर्वाद कहना और अपने आवश्यकों में लीन भगवान् सुव्रत मुनि से वन्दना कहना।'

'भगवन् ! क्या वहाँ अन्य जैन यति नहीं हैं ?'–देशव्रती ने पूछा ।

आचार्य—'देशव्रती ! यह पूछने की आवश्यकता नहीं है ।वहाँ जाने पर तुम्हें जैन और जैनेतर मनुष्यों की स्थिति प्रत्यक्ष हो जायेगी।'

आकाशगामिनी विद्या में पटु वह क्षुल्लक 'दिव्यज्ञानी भगवान् की जो आज्ञा' इतना कहकर आकाश मार्ग से उत्तर मथुरा में जा पहुँचा। वहाँ उसे कौतूहल हुआ कि पहले ग्यारह अङ्ग के धारी भव्यसेन की परीक्षा करनी चाहिए, फिर सम्यक्त्व रूपी रत्न से भूषित रेवती की परीक्षा करूँगा। यह सोच उसने ग्यारह वर्ष के बालक का अत्यन्त आश्चर्यकारक रूप बनाया । उसके धान्य की मञ्जरी के अग्रभाग की तरह पीले केश थे, तपाये हुए सोनेके समान शरीरका रूप था, शरीर के अनुरूप ही कमल के रस और रज के समान पीले नेत्र थे और मुख से अति स्पष्ट सुन्दर स्तुति पाठ करता था। ऐसा रूप बनाकर वह विद्याधारी क्षुल्लक भव्यसेन मुनि के वास स्थान पर गया।

उस सुन्दर ब्राह्मण बालक को देखकर वह मुनिवेषी बड़े स्नेह से इस प्रकार बोला -- 'समस्त ब्राह्मण वंश से अधिक उपार्जित पुण्य से मनोरम प्रकृति होने के कारण समस्त लोगों की आँखों को आनन्द देने वाले बालक, कहाँ से आते हो ?' 'नये मनुष्योंके मनको प्रसन्न करने वाले वचनों के प्रयोग में कुशल भगवन् , मैं समस्त कलाओं में प्रवीण, विद्वानों से पवित्र पाटलीपुत्र नगर से आता हूँ।

'क्यों आये हो ?'

'पढ़ने के लिए !'

'क्या पढ़ना चाहते हो ?'

'वचन दोषको दूर करने में समर्थ व्याकरण पढ़ना चाहता हूँ।'

'तो स्वाध्याय और ध्यान में लीन, तुम मेरे पास ही रहो'।

'हे परवादियों के मद को विदारण करने वाले वचनों में प्रवीण भगवान् ! जैसी आज्ञा। आपके पास ही ठहरता हूँ। उसके पश्चात् कुछ काल बीतने पर मुनि बोले

'बालक ! सूर्य मध्याह्न में आ गया है ।अतः कमण्डलु लो, चलो घूम आयें' ।

बालक-'भगवन् ! जो आज्ञा' ।

नगर से बाहर जाने पर उस कपटवेषी बालक ने उस विहार भूमि को मायामयी घासके अंकुरो से ढक दिया । उसे देख कर वह मुनिवेषी भी थोड़ा सकपका गया ।

बालक-'भगवन् ! व्यर्थ में क्यों देर करते हैं ?'

'बालक ! शास्त्र में घास के इन अंकुरों को स्थावर जीव बतलाया है।

भगवन् ! इनके श्वासादिक में से कितने प्राण होते हैं ? घास के ये अंकुर तो रनों के समान पार्थिव हैं।'

'यह बालक ठीक कहता है' यह सोचकर उस मुनिवेषी ने निःशंक हो कर उस तृणों से व्याप्त पृथ्वी पर विहार किया और शौच से निवृत्त होने पर मौनपूर्वक हाथसे संकेत किया। तब बालक बोला-'भगवन् , मौन से आप संकेत क्यों करते हैं ?' यह सुनकर वह मुनिवेषी 'अभिमान की रक्षाके लिए तथा शास्त्र की विनय के लिए भोजन आदि करते समय मुनिगण मौन धारण करनेको कहते हैं' मौनके इस फल का विचार किये बिना बोला-'ब्राह्मणपुत्र ! कहीं से भी खोजकर सूखा गोबर, राख या इंट का टुकड़ा लाओ।'

'भगवन् ! सब लोग मिट्टी से शुद्धि करते हैं, मिट्टी में क्या दोष है ?'

'बालक ! शास्त्र में कहा है कि मिट्टीमें पृथिवीकायिक जीव रहते हैं।'

'भगवान् ! जीवका लक्षण तो ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग है, किन्तु मिट्टी में ये दोनों नहीं पाये जाते।'

'तो सब जीवधारियों से सेवनीय मिट्टी लाओ।' बालक ने मिट्टी ला दी और कमण्डलु रख दिया। हाथ से कमण्डलु को खाली जानकर मुनिवेषी बोला- 'बालक ! यह कमण्डलु, खाली है'

'भगवन् ! सामने ताल में तो पानी है।'

'बालक ! बिना छने पानी को काममें लाने में बड़ा पाप है; क्योंकि उसमें जीव रहते हैं ?'

'यह बिल्कुल झूठ है क्योंकि आकाश की तरह स्वच्छ इस पानी में जीव नहीं दिखाई देते।'

यह सुनकर उस द्रव्य लिङ्गी ने तालपर जाकर शौच क्रिया की। यह सब देखकर वह विद्याधर सोचने लगा कि इसीलिए अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने की बुद्धि रखने वाले श्री मुनिगुप्ताचार्य ने इससे कुछ भी नहीं कहलाया । क्योंकि दीपक की बत्ती के मुख की तरह इसका मन तो स्वभाव से ही कलुषित है किन्तु बाहर में प्रकाश दिखाई देता है।

भवति चात्र श्लोकः -


जले तैलमिवैतिचं वृथा तत्र बहिर्बुति ।
रसवत्स्यान्न यत्रान्तर्बोधो वेधीय धातुषु ॥181॥
इत्युपासकाध्ययने भवसेनदुर्विलसनो नाम दशमः कल्पः ।


इस विषय में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -

जहाँ धातु में पारद की तरह अन्तर्बोध चित्त के अन्दर नहीं भिदता, वहाँ जल में तेल की तरह बाहर में ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ ही होता है ॥181॥

इस प्रकार उपासकाध्ययन में भव्यसेन मुनि की दुश्चेष्टा बतलाने वाला दसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।