+ अमूढ़ता अंग -
ग्यारहवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

परीक्षितस्तावत्प्रसभांविर्भविष्यद्भवसेनो भवसेनस्तदिदानी भगवदाशीर्वादपादपोत्पादवसुमती रेवती परीक्षे, इत्याक्षिप्तान्तःकरणः पुरस्य॑ पुरंदरदिशि हसांशोत्तंसावासवेदिकान्तरालकमलकर्णिकाम्तीर्णमृगाजिनासीनपर्यङ्कपर्यायम् , अमरसरःसंजातसरोजसूत्रवर्तितोपवीतपूतकायम् ,'अमृतकरकुरङ्गकुलकृष्णसारकृत्तिकृतोत्तरासंगसंनिवेशम् , अनवरतहोमारम्भसंभूतभसितपाण्डुपुण्ड्र कोत्कटनिटले देशम् , अम्बरेचरतरङ्गिणीजलक्षालितकल्पकुजवल्कलवलितोत्तरीयप्रतानपरिवेष्टितजटावलयम् , अमृतान्धसिन्धुरोधःसंजातकुतपाङ्कराक्षमालाकमण्डलुयोगमुद्राङ्कितकरचतुष्टयम् , उपासनसमायात-मतङ्ग-भृगु - भर्ग-भरत गौतम-गर्गपिङ्गल-पुलह-पुलोम-पुलस्ति-पराशर-मरीचि-विरोचन चञ्चरीकानीकास्वाद्यमानवदनारविन्दकन्दरविनिर्गलन्निखिलवेदमकरन्दसंदोहम्, उभयपाॉवस्थितमूर्तिमन्निखिलकलाविलासिनीसमाजसंचार्यमाणचामरप्रवाहम् , उदारनादनारदमुनिना मन्यमानप्रतीहारव्यवहारम् , अम्भोभवोद्भवाकारमासाद्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास! सापि जिनेश्वरचरणप्रणयमण्डपमण्डनमाधवी वरुणधरणीश्वरमहादेवी नृपतिपुरोहितात्तमुदन्तमाकर्ण्य त्रिषष्टिशलाकोन्मेषेषु पुरुषेषु मध्ये ब्रह्मा नाम न कोऽपि श्रूयते । तथा --


भवसेनको परीक्षा हो चुकी । अब भगवान् मुनि गुप्ताचार्य के द्वारा आशीर्वाद पाने वाली रेवती रानी की परीक्षा करनी चाहिए। ऐसा सोचकर उस विद्याधर ने नगर की पूर्व दिशामें ब्रह्मा का रूप बनाया। वेदिका के मध्य में कमल की कर्णिका पर बिछे हुए मृगचर्म पर वह पर्यङ्कासन से बैठा हुआ था । मान-सरोवर में उत्पन्न हुए कमल के धागों से बना हुआ यज्ञोपवीत उसके शरीरपर पड़ा हुआ था। चन्द्रमा के हिरण के वंश के कृष्णसार मृग के चर्म का बना हुआ उसका दुपट्टा था। निरन्तर होने वाले होम की भस्म का त्रिपुण्ड उसके मस्तक पर सुशोभित था।

गंगा के जल से धोये गये कल्पवृक्ष के वल्कल से उसकी जटाएँ बँधी हुई थीं ।गंगा के किनारों पर उगे हुए दूर्वाङ्कुर, रुद्राक्ष माला, कमण्डलु और योगमुद्रा से उसके चारों हाथ युक्त थे। उसकी उपासना के लिए मतङ्ग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिङ्गल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पाराशर, मरीचि और विरोचन ऋषिरूपी भ्रमरों की सेना आई हुई थी, जो उसके मुखकमल रूपी गुफा से झरने वाले समस्त वेदरूपी पुष्पमधु के समूह का स्वाद ले रही थी। दोनों ओर खड़े होकर समस्त मूर्तिमान् कलाओं की तरह देवांगनाएँ चामर ढारती थीं और नारद मुनि द्वारपाल का काम करते थे। इस प्रकार ब्रह्मा का रूप धारण करके उस विद्याधर ने समस्त नगरमें हलचल मचा दी।

जिनेन्द्र भगवान्के चरणों में स्नेहरूपी मण्डप को सुशोभित करने के लिए माधवीलता के समान उस वरुण राजा की पटरानी रेवती ने जब राजपुरोहित के मुख से उक्त वृत्तान्त सुना तो वह विचारने लगी कि तेरसठ शलाकापुरुषों में तो किसीका भी नाम ब्रह्मा नहीं है । तथा -

आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य ।
ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ॥182॥
"आत्मा को, मोक्ष को, ज्ञान को, चारित्र को और भरत के पिता ऋषभदेव को ब्रह्मा कहते हैं । इनके सिवा और कोई ब्रह्मा नहीं है" ॥182॥

इति चानुस्मृत्याविस्मयमतिरतिष्ठत् । पुनः कीनाशदिशि पवनाशनेश्वरशरीरशयनाश्रितापंघनमितस्ततः प्रकामप्रसरत्तदङ्गोत्तरङ्गकान्तिप्रकाशपरिकल्पितामृताम्बुधिसंनिधानम्, उल्लेखोल्लसत्फणामणिमरीचिनिचयसिचयाचरितनिरालम्बाम्बरवितानभावम् , अमोद्यानप्रसूनमञ्जरीजालजटिलप्रतानवनमालामकरन्दमण्डितकौस्तुभप्रभाभावम्, असितसितरत्नकुण्डलोहयोतसंपादितोभयं पक्षपंक्षद्वयाक्षेपम्, अनेकमाणिक्याधिकाटितकिरीटकोटिविन्यस्तास्तोकस्तबकपारिजातप्रसवपरिमलपानपरिचयचटुलेचचरीकचयरच्यमानापेरेन्दीवरशेखरकलापमति गम्भीरनाभीनदैनिर्गतोनालने लनिलयनिलीनहिरण्यगर्भसंभाष्यमाणनामसहस्रकलमाखण्डले जलधिसुतासंवाह्यमानक्रमकम लमनश्चरणशङ्खसारङ्गनन्दकसंकीर्णकरम् , असुरवृन्दबन्दीकृतसुन्दरीसंपाद्यमानचामरोपचारव्यतिकरम्, अरुणानुजविनीयमानसेवागतसुरसमाजम्, 'अधोक्षजवषं विशिष्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि जिनसमयरहस्यावसायसरस्वती रेवती कर्णपररम्परया किंवदन्तीमेतामुपश्रुत्य 'सन्ति खल्यर्धचक्रवर्तिनो नव कौमोदकीप्रभवः । ते तु संप्रति न विद्यन्ते । अयं पुनरपर एवं कश्चिदिन्द्रजालिको लोकविप्रलम्भनायावतीर्णः' इति निर्णीयाविचलितचित्ता समासीत्। पुनः पाशभृद्दिशि शिशिरगिरिशिखराकारकायशाक राश्रितशरीराभोगमन्वग्भृतनगनन्दनानिबिरीशस्तनतुङ्गिमस्तिमितपृष्टभागम् , अनिमिषवनविसर्पिकर्पूरोद्भिदें गर्भसंभवपरागपाण्डुरितपिण्डपरिकरम्, अचिरगोरोचनाभङ्गरागपिङ्गलाम्बकंपरिकल्पितभालसरःस्वर्णसरोजाकरम्, अबालकपालदलकलापालवालवलयविलसन्मौलिमूलव्यतिकरम् अतिविकटजटाजूटकोटरपर्यटद्गगना टनतटनीतरङ्गकरकेलिकुतूहलितवालपालेय करम् , अाभरणे भङ्गिसंदर्भिताने भकभुजङ्गभोगे'संगतानेकमाणिक्यविरोक निकरातिशयसारशार्दूलाजिनविराजमानम. उडमरडमरुकाजे कावकृपाणपरशुत्रिशूलखटवाङ्गादिसहसंकटशकोट कोटावस्ता कई कोटिविस्तारम् , स्तम्बर मासुरचर्मद्रवद्रुधिरदुर्दिनीकृतनावनीप्रतानम् , अनलोद्भव-निकुम्भ कुम्भोदर हेरम्ब-भिगिरिटि-प्रभृति-पारिषदपरिषत्परिकल्प्यमानबलिविधानम् , अहिर्बुध्नावतरनिधानमाकारमनुकृत्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । ___सापि स्याद्वादसरस्वतीसुरभिसंभावनबै ल्लवी वरुणमहीशमहादेवी इमां जनश्रुति कुतश्चित्पश्चिमप्रतोलिसृताद्विपश्चितो निश्चित्य, निशम्यन्ते खलु प्रवचने तपःप्रत्यवायवार्ताs भद्रा रुद्रास्ते पुनः संप्रति स्वकीयकर्मणां विपाकात्कालिन्दीसोदरोदरगर्तवर्तिनः संजाताः। तदयमपर एव कश्चिनरेन्द्र विद्याविनोदाविदग्धहृदयमर्दी कपर्दीति च प्रपद्य निःसंदिग्धबोधा समासिष्ट । पुनः स्वापतेयेशदिशि विश्वंभरातलादूर्ध्वम् , अयोमुखासनदशसहस्रार्धावकृष्टम् , एकेन्द्रनीलशिलावर्तुलाधिष्ठानोत्कृष्टम,अखिलंगतिगर्तोत्तरणमार्गेरिव सोपानसर्गश्चतुर्दिशमुपाहितावतारम्, अनर्घद्रुघणमणिश्लाघ्योनतनवप्राकारान्तराचरितस्पष्टाष्टविधवसुंधरम्, अनवधिनिर्माणमाणिक्यसूत्रितत्रिमेखलालंकारकण्ठीरपीठप्रतिष्ठपरमेष्ठिप्रतिममशेषतः समासीनद्वादशसभान्तरालविलसन्निलम्पाने काशोकानोकहप्रमुखप्रातिहार्योपशोभितम्, ईषदुन्मिषदनिमिषोद्यानप्रसूनोपहारहरिचन्दनामोदसनाथगन्धकुटीसमेतम्, अनेकमानस्तम्भतडागतोरणस्तूपध्वजधूपं निपनिधाननिर्भरमुरगनरानिमिषनायकानीकानीतमहामहोत्सवप्रसरम्,अभितो भवसेनप्रभृत्याहंताभासप्रभावितयात्राधिकरणं समवशरणं विस्तार्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयांमास। सापि जिनसमयोपदेशरसैरावती रेवतीमं व्रतान्तोपक्रमं कुतोऽपि जैनाभासप्रतिभातोऽवबुध्य सिद्धान्ते खलु चतुर्विंशतिरेव तीर्थकराः, ते चाधुना सिद्धिवधूसौधमध्यविहाराः, तदेषोऽपर एव कोऽपि मायाचारी तद्र पधारी' इति चावधार्याविपर्यस्तमतिः पर्यात्मधामन्येव प्रवर्तितधर्मकर्मचक्रे सुखेनासांचक्रे । पुनर्वहुकूटकपटमतिर्देशयतिस्ताभिर्विविधप्रकृतिभिराकृतिभिस्तदास्वनितमक्षुभितमवगत्योपात्तमासोपवासिवेषः क्रियामात्रानुमेयनिखिलकरणोन्मेपो गोचराय तदालयं प्रविष्टस्तया स्वयमेव यथाविधिप्रतिपन्नचेष्टस्तथापि विद्याबलादनल नाशवमनादिविकारप्रबलात्कृतानेकमानसोद्वेजनवैयात्यो रेवत्याः क्वचिदपि मनोमूढतामपश्यन् , 'अम्ब, सर्वाम्बरचरचित्तालंकारसम्यक्त्वरत्नाकरक्षोणि दक्षिणमथुरायां प्रसिद्धावसथः सकलगुणमणिनिर्माणविदूरावनिः श्रीमुनिगुप्तमुनिर्मदर्पितरचनैर्वचनैः परिमुषिताशेषकल्मषसंवनैरखिलकल्याणपरम्पराविरोचनैर्भवतीं रेवतीमभिनन्दयति । रेवती भक्तिरसवशोल्लसल्लपनरागाभिरामं ससंभ्रमं च सप्तप्रचारोपसदैः पदेस्तां दिशमाश्रित्य श्रुतविधानेन विहितप्रणामा प्रमोद मानमनःपरिणामा तदर्पितान्याशोर्वचनान्यादिता।...


ऐसा विचारकर कुछ आश्चर्य करके चकित हो वह बैठी रही।

इसके पश्चात् उस विद्याधर ने नगर की दक्षिणदिशा में विष्णुका रूप धारण किया। विष्णु भगवान् शेषनाग शैय्यापर लेटे हुए थे ।इधर-उधर फैली हुई उनके शरीर की कान्ति के प्रकाश से अमृत का समुद्र-सा बन गया था। उनके शेषनाग के फण के मणि की किरणों के समूहरूपी वस्त्र से निरालम्ब आकाश में चन्दोआ-सा तना था। अनेक प्रकारके मणि-मुक्ताओं से बने हुए उसके मुकुट की चोटी पर पारिजात वृक्ष के फूलों के बड़े-बड़े गुच्छे रखे थे। उनकी सुगन्ध का पान करने के लिए उन पर बहुत से भौंरे एकत्र हो गये थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानो नीले कमलों का बना यह दूसरा शिरोभूषण है। विष्णु की गहरी नाभि से एक ऊँची नाल निकली हुई थी उसपर ब्रह्मा विराजमान थे और वे सहस्रनाम का पाठ करते थे। लक्ष्मी उनके चरण-कमलों की सेवा कर रही थी। उनके हाथों में शंख, चक्र, कमल और खड्ग थे । बन्दिनी बनाई गई दैत्यों की सुन्दरी स्त्रियाँ चमर ढारती थीं और सेवा के लिए आये हुए देवताओं को अन्दर ले जाने के लिए गरुड़ राजद्वार पर खड़े हुए थे।

इस प्रकार विष्णु का रूप धारण करके उस विद्याधर ने समस्त नगरमें हलचल मचा दी। जिन-शासन के रहस्य को जानने में सरस्वती के तुल्य रेवती रानी ने भी परम्परा से इस बात को सुना। सुनकर वह विचारने लगी कि विष्णु नौ होते हैं किन्तु वे आजकल नहीं है। लोगों को ठगनेके लिए यह कोई इन्द्रजालिया आया हुआ है। ऐसा निर्णय करके वह नहीं गई। इसके पश्चात् उसने पश्चिम दिशा में रुद्र का रूप धारण किया। वह हिमालय पर्वत के शिखर के आकार शरीरवाले वृषभपर बैठे हुए थे। उनके वाम भागमें पार्वती बैठी थी। गोरोचता और भाँग के राग से पीले हुए नयन ऐसे मालूम होते थे मानो मस्तक रूपी सरोवर में स्वर्ण-कमल खिले हुए हैं। गलेमें नरमुण्डों की माला पड़ी हुई थी। जटाओं के अन्दर विहार करती हुई गंगा नदी की लहरों में बाल-चन्द्रमा खेलता था ।भूषण की तरह धारण किये गये बृहत्काय सर्प की फणके रत्नों की किरणों से चितकबरा हुआ सिंह चर्म धारण किये हुए थे ।डमरू त्रिशूल खट्वांग आदि लिये हुए थे ।गजासुर के चर्म से टपकने वाले रक्त ने नृत्यभूमि में वर्षा ऋतु का समय उपस्थित कर दिया था। कार्तिकेय, कुम्भ, निकुम्भ, गणेश आदि उनकी पूजा करते थे। इस प्रकार रुद्र का रूप धारण करके उस विद्याधर ने समस्त नगर को क्षोभित कर दिया ।स्याद्वादवाणी रूपी कामधेनु को दुहने वाली रेवती महारानी ने भी पश्चिम दिशा के मार्ग से आनेवाले किसी ब्राह्मण से उक्त समाचार सुना। वह सोचने लगी कि शास्त्र में तपोभ्रष्ट ऋषियों से रुद्रों की उत्पत्ति सुनी जाती है। किन्तु इस समय तो वे सब अपने-अपने कर्मों के उदयसे यमराज के उदर में चले गये। इस लिए यह कोई इन्द्रजाल विद्या के द्वारा मूर्ख मनुष्यों के हृदयों को फुसलानेवाला दूसरा ही रुद्र है ऐसा निर्णय करके वह रह गई।

इसके बाद उस विद्याधर ने उत्तर दिशामें जिनेन्द्र देव के समवशरण की रचना की । धरातल से पाँच हजार धनुष की ऊँचाई पर एक इन्द्र नीलमणि की गोलाकार उसकी भूमि थी । उस तक पहुँचने के लिए चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ बनी हुई थीं जो ऐसी प्रतीत होती थीं कि मानो चारों गति रूपी गड्ढों से निकलने के ये मार्ग हैं। बहुमूल्य मणि से निर्मित नौ ऊँचे प्राकार बने थे जिनके मध्य में आठ भूमियाँ थीं। माणिक्य से बनी हुई तीन कटनियों से सुशोभित सिंहासन पर वह परमेष्ठी की तरह विराजमान था। चारों ओर बारह सभाएँ लगी थी और उनके बीच में अशोक वृक्ष आदि प्रातिहार्य थे। अनेक गन्धकुटी थीं, जो देवोद्यान के अधखिले हुए पुष्पों से और हरिचन्दन की सुगन्धसे युक्त थीं। अनेक मानस्तम्भ, तालाब, तोरण, स्तूप, ध्वजा, धूपघट और निधियाँ वहाँ विराजमान थीं ।तिर्यञ्च मनुष्य और देवों के स्वामियों की सेना के द्वारा वहाँ महामहोत्सव हो रहा था। उससे प्रभावित होकर भवसेन आदि जैनाभास वहाँ यात्रा के लिए आ रहे थे । ऐसे समवशरण की रचना करके उस विद्याधर ने समस्त नगर में हलचल मचा दी। जिनागम के उपदेशरूपी जल की नदी के तुल्य रेवती रानी किसी जैनाभास से इस समाचार को जानकर विचारने लगी कि आगम में चौबीस ही तीर्थङ्कर बतलाये हैं और वे सब इस समय मुक्तिरूपी वधू के महल में विहार करते हैं। इसलिए यह कोई मायाचारी है जो उनका रूप धारण किये हुए है। ऐसा निर्णय करके वह अपने घर में ही धर्म कर्म करती हुई सुखपूर्वक बैठी रही।

इसके बाद अनेक रूप धरने में चतुर वह क्षुल्लक अनेक रूपों के द्वारा भी रेवती रानी को चञ्चल हुआ न देखकर, एक मास का उपवास करने वाले साधु का वेष बनाकर अत्यन्त शिथिल इन्द्रियों के साथ आहार के लिए रेवती रानी के घर पर आया। रेवती ने स्वयं ही विधि के अनुसार सब काम किया, किन्तु उस क्षुल्लक ने विद्या के बलसे कभी अग्नि को बुझाकर और कभी वमन आदि करके उसके मन को उद्विग्न करने का बहुत प्रयास किया, फिर भी वह उद्विग्न नहीं हुई। यह देखकर वह बोला—'माता ! दक्षिण मथुरा में विराजमान सकल गुणों से भूषित श्री मुनिगुप्त मुनि मेरे द्वारा समस्त पाप से रहित कल्याणकारक वचनों से आपका अभिनन्दन करते हैं।'

यह सुनते ही रेवती रानीका मुख भक्तिरसके राग से रंजित हो उठा। उसने तत्काल ही दक्षिण दिशा में सात पग चलकर शास्त्रानुसार प्रणाम किया और हर्ष से गद्गद होकर मुनि के द्वारा दिये गये आशीर्वादको स्वीकार किया। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -

भवति चात्र श्लोकः


कादम्बा_गोसिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् ।
आगतेष्वप्यभून्नैषा रेवती मृढतावती ॥183॥
'ब्रह्मा, विष्णु, शिव और जिनके स्वयं पधारने पर भी रेवती रानी मूर्ख नहीं बनी ॥183॥

इत्युपासकाध्ययनेऽमूढतापौढिपरिवृढो नामैकादशः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में अमूढ़ता अंग का वर्णन करने वाला कल्प समाप्त हुआ।