ग्रन्थ :
अब उपगृहन अंग को बतलाते हैं उपगृहस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् ।
उपगूहन, स्थितिकरण, शक्ति के अनुसार प्रभावना और वात्सल्य ये गुण सम्यक्त्व रूपी सम्पदा के लिए होते हैं ॥184॥वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ॥184॥ तत्र-क्षान्त्या सत्येन शौचेन मार्दवेनार्जवेन च ।
क्षमा, सत्य, शौच, मार्दव, आर्जव, तप, संयम और दान के द्वारा धर्म की वृद्धि करनी चाहिए। तथा जैसे माता अपने पुत्रों के अपराध को छिपाती है वैसे ही यदि साधर्मियों में से किसी से दैववश या प्रमाद वश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुण सम्पदा से छिपाना चाहिए। क्या असमर्थ मनुप्य के द्वारा की गई गल्ती से धर्म मलिन हो सकता है ? मेढ़क के मर जाने से समुद्र दुर्गन्धित नहीं हो जाता ॥जो न तो दोष को ढाँकता है और न धर्म की वृद्धि करता है, वह जिनागम का पालक नहीं है और उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होना भी दुष्कर है ॥185-188॥तपोभिः संयमैर्दानैः कुर्यात्समयबृंहणम् ॥185॥ सवित्रीव तनूजानामपराधं सधर्मसु । दैवप्रमादसंपन्नं निगृहेद् गुणसंपदा ॥186॥ अशक्तस्यापराधेन किं धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृते याति पयोधिः पूतिगन्धिताम् ॥187॥ दोषं गृहति नो जातं यस्तु धर्म न हयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमबहिस्थिते ॥188॥ (भावार्थ – इस गुण के दो नाम हैं एक उपबृंहण और दूसरा उपगूहन ।अपनी आत्मा की शक्ति को बढ़ाना या उसे दुर्बल न होने देना उपबृंहण कहलाता है। जनता में धर्मका उत्कर्ष करना भी उपबृंहण गुण कहलाता है। तथा यदि किसी साधर्मी बन्धु से कभी कोई ग़ल्ती बन गई हो तो उसे प्रकट न होने देना उपगृहन हैं। ये दोनों एक ही गुण के दो नाम दो कार्यों की अपेक्षासे रख दिये गये हैं, वास्तवमें ये दोनों एक ही हैं, क्योंकि उपगृहन के बिना उपबृंहण नहीं होता ।यदि छोटी मोटो भूलों के लिए भी साधर्मी भाइयों के साथ कड़ाई बरती जायेगी और उन्हें जाति और धर्म से वंचित कर दिया जायेगा तो उस से धर्म की हानि ही होगी, क्योंकि धार्मिक पुरुषों के विना धर्म कैसे ठहर सकता है। अतः सम्यग्दृष्टि को समझदार माता के समान साधर्मी भाइयों से व्यवहार करना चाहिए । जैसे समझदार माता एक ओर इस बातका भी ध्यान रखती है कि उसकी सन्तान कुमार्गगामी न हो जाये और दूसरी ओर उसकी गल्तियों को ढाँककर उसकी बदनामी भी नहीं होने देती तथा एकान्त में उसे समझा बुझाकर उसे क्षमा कर देती है, वैसा ही भाव अपराधी भाइयों के प्रति भी होना चाहिए। जो पुरुष इस तरह का व्यवहार करते हैं उनमें ही सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है । किन्तु दोषों का उपगूहन करनेका यह आशय नहीं है कि दोषी दोष करता रहे और धर्म प्रेमवश दूसरे उस दोषको ढाँकते ही रहें। दैव या प्रमादवश हो गये किसी दोष के कारण किसी धर्मात्मा की अवज्ञा और निन्दा न करके उस दोष को छिपाना तो उचित ही है । किन्तु यदि धर्म का वेष धारण करके कोई ढोंगी जानबूझकर अनाचार करता हो और समझानेपर भी न मानता हो तो ऐसे ढोगियों के दोषों को छिपाना उपगूहन अंग नहीं है।) उपगहन अंग में प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्त की कथा श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-सुराष्ट्रदेशेषु मृगेक्षणापदमलमूलावलोकितापहसितानङ्गास्त्रतन्त्रे पाटलिपुत्र सुसीमाकामिनीमकरध्वजस्य यशोध्वजस्य भूभुजः पराक्रमाक्रमाक्रान्तसकलप्रवीरः सुवीरो नाम सूनुरनासादितविद्यावृद्धसंयोगसमयत्वाद्विटविदूषकदूषितहृदयत्वाच्च प्रायेण परद्रविणदारादानोदारक्रियः क्रीडार्थमेकदा क्रीडावने गतः कितवकिरातपेश्यतोहरवीरपरिषदमिदमवादीत्–'अहो, विक्रमैकरसिकेषु महासाहसिकेषु भवत्सु मध्ये किं कोऽपि मे प्रार्थनातिथिमनोरथसारथिरस्ति, यः खलु पूर्वदेशनिवेशावाप्तकीर्तने तामलिप्तिपत्तने पुण्यपुरुषकाराभ्यामात्मसात्कृतरत्नाकरसारस्य जिनेन्द्रभक्तनामावतारस्य वणिक्पतेः सप्ततलागाराग्रिमभूमिभागिनि जिनसमनि छत्रत्रयशिखण्डमण्डनीभूतमद्भुतद्योतसेनोडं वैडूर्यमणिमानयति, तदानेतुः पुनरभिलाषविषयनिषेकमेव पारितोषिकम् । तत्र च सदर्पः सूर्पो नाम समस्तमलिम्लुचाग्रेसरो वीरः किलैवमलापीत्-'देव, कियद्गहनमेतद्यतो योऽहं देवप्रसादाद्वियदवसानविरचितामरावतीपुरस्य पुरंदरस्यापि चूडालंकारनूतनं रत्नं पातालमूलनिलीनभोगवतीनगरस्योरगेश्वरस्यापि फणगुम्फनाधिक्यं माणिक्यमपहरामि, तस्य मे मनुष्यमात्रपरित्राणधरणिमणि लोचनगोचरागारविहारमपहरतः कियन्मात्रं महासाहसम् इति शौर्य गर्जित्वा निर्गत्यागत्य च गौडमण्डलमपरमुपायमप श्यन्मणिमोषीयातिप्ततुल्लकवेषश्चान्द्रायणाचरणैः पक्षपारणाकरणैर्मासोपवासप्रारम्भैरपरैरपि तपःसंरम्भैः क्षोभितनगनगरपामग्रामणीगणः क्रमेण जिनेन्द्रभक्तभावाधिकरणतामभजत् । एकान्तभक्तिशक्तः स जिनेन्द्रभक्तस्तं मायात्मसात्कृतप्रियतमाकारमपरमार्थाचारमजाननार्यवर्यावश्यमनेकानय॑रत्नरचितजिनदेहसंदोहेऽस्मद्देवगृहे त्वया तावदासितव्यं यावदहं बहित्रयात्रां विधाय समायामि' इत्ययाचत । अप्रकटकूटकपटक्रमः प्रियतमः 'श्रेष्ठिन् , मैवं भाषिष्ठाः, यदङ्गनाजनसंकीर्णेषु द्रविणोदीर्णेषु देशेषु विहितोकसां प्रायेणामलिनमनसामपि सुलभोदाहाराः खलु खलजनतिरस्काराः'। श्रेष्ठी-'देशयतीश, न सत्यमेतत् । अपरिज्ञातपरलोकव्यवहारस्यावशेन्द्रियव्यापारस्य हि पुरुषस्य बहिःसङ्गे स्वान्तं विकुरुतां नाम, न पुनर्यथार्थदृशामनन्यसामान्यसंयमस्पृशां यमस्पृशां भवादृशां यतीशाम्' इति बह्वाग्रहं देवगृहपरिग्रहाय तमयथार्थमुनिमभ्यर्थ्य कलत्रपुत्रमित्रबान्धवेष्वकृतविश्वासो मनःपरिजनदिनशकुनपवनानुकूलतया नगरबाहिरिकायां प्रस्थानमकार्षीत्। मायामुनिस्तस्मिन्नेवावसरे तदगारमाकुलपरिवारमवबुध्यार्धावशेषायां निशि कृतरत्नापहारस्तन्मरीचिप्रचारादारक्षिकैरनुद्रुतशरीरः पलायितुमशक्तस्तस्यैव धर्महयंनिर्माणपरमेष्ठिनः श्रेष्ठिनः प्रस्थानावासनिवेशमाविवेश । श्रेष्ठयपि दुरालापबहलात्तत्कोलाहला 'वाग्विद्राणनिद्रस्तदैव मृषामुनिमुद्रमवसाय स्वभावतः शुद्धाप्तागमपदार्थसमाचारनयस्य निशेषान्यदर्शनव्यतिरिक्तान्वयस्य समयस्याविदितपरमार्थजनापेक्षया दुरपवादो माभूदिति चः विचिन्त्य समस्तमप्यारतिकलोकमेवमभणीत्-'अहो दुर्वाणीकाः, किमित्येनं संयमिनमभैल्लेन संभावयन्ति भवन्तः, यदेष खलु महातपस्विनामपि महातपस्वी परमंनिःस्पृहाणामपि परमनिःस्पृहः प्रकृत्यैव महापुरुषो मायामोषरहितचित्तवृत्तिरस्मदभिमतेन मणिमेनमान यत्कथं नाम स्तेनभावेन भवद्भिः संभावनीयः। तत्प्रतूर्णमभ्यर्णीभूय प्रसन्नवपुषः सदाचारकैरवार्जुनज्योतिषमेनं क्षमयत स्तुत नमस्यत वरिवस्यत च। ... भवति चात्र श्लोकः इस अंग के विषय में एक कथा है उसे सुनें - सुराष्ट्र देश के पाटलीपुत्र नगर का राजा यशोध्वज था। उसके वड़ा पराक्रमी सुवीर नाम का पुत्र था। विद्यावृद्ध सज्जनों का समागम न मिलने तथा विलासी और बदमाशों की संगति में पड़ जाने से वह परधन और परस्त्री का लम्पट हो गया था। एक बार क्रीड़ा करने के लिए वह क्रीडावन में गया। वहाँ एकत्र हुए ठग, चोर और भीलों की परिषद से वह बोला-'आप लोग बड़े पराक्रमी और बड़े साहसी हैं। आप में से जो कोई तामलिप्ति नगरमें अपने पुण्य और पौरुष से समुद्र की सारभूत सम्पत्ति को उपार्जित करनेवाले जिनेन्द्र भक्त सेठके सत मंजिले महल के ऊपर बने हुए जिनालय में से तीन छत्रों की चोटी में जड़ी हुई अद्भुत कान्ति वाली वैडूर्यमणि को चुरा लायेगा उसे उसकी इच्छानुसार पारितोषिक दिया जायेगा। यह सुनकर समस्त चोरों का मुखिया सूर्प बड़े गर्व से बोला-'स्वामी यह क्या कठिन है ? जो मैं आपकी कृपा से आकाश के अन्तमें बनी हुई अमरावती नग रीके स्वामी इन्द्र के मुकुटमें लगे हुए रत्नको और पातालके अन्दर छिपी हुई भोगवती नगरी के स्वामी शेषनाग के फण में लगे हुए माणिक्य को हर सकता हूँ, उसके लिए आँखों से दिखाई देने वाले महल के ऊपर स्थित और मनुष्य मात्र के लिए शरणभूत मन्दिर से मणि चुराना कौन साहस का काम है ?" इस प्रकार अपने शौर्य की गर्जना करके सूर्य नाम का चोर वहाँ से निकलकर गौड देश में आया। दूसरा उपाय न देख उसने मणि चुराने के लिए क्षुल्लक का वेष बना लिया। कभी वह चान्द्रायण व्रत करता था, कभी एक पक्ष में पारणा करता था और कभी एक मास का उपवास करता था। इस प्रकार की तपस्या से नगर, गाँव वगैरह में सर्वत्र हलचल मच गई। फैलते-फैलते यह चर्चा जिनेन्द्र भक्त के कानों तक भी पहुँची । वह परमभक्त उस मायावी के कपट वेष को न जानकर उससे प्रार्थना करनेके लिए गया कि-'आर्य श्रेष्ठ ! जब तक मैं देश की यात्रा करके न लौटु, तब तक आप अनेक अमूल्य रत्नों से रचित मेरे जिनालयमें ही ठहरें ।' अपने कपट जाल को छिपाने के लिए वह बोला-'सेठ जी! ऐसा मत कहिए; क्योंकि स्त्रियों से व्याप्त और धन से परिपूर्ण स्थान पर ठहरने वाले निर्मल चित्त व्यक्तियों का भी दुष्टजनों के द्वारा तिरस्कार किये जाने के उदाहरण पाये जाते हैं।' सेठ–'क्षुल्लक महाराज ! यह बात सत्य नहीं है। जिसने परलोक को नहीं जाना और जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, बाह्य निमित्त के मिलने पर उसका मन भले ही खराब हो जाये, किन्तु यथार्थदर्शी और असाधारण संयम के पालक आप जैसे यतिपतियों के विषय में यह बात लागू नहीं हो सकती।' इस प्रकार स्त्री, पुत्र, मित्र तथा बन्धु-बान्धवों का विश्वास न करके वह सेठ आग्रह पूर्वक उस कपटवेषी को लिवा लाया। तथा मन, कुटुम्बीजन, दिन, शकुन और वायु को अनुकूल पाकर परदेश यात्रा के लिए नगरके बाहर जाकर ठहर गया । उसी दिन वह कपटी मुनि उस मकान को आदमियों से भरपूर जानकर आधी रात के बीतने पर रत्न को चुराकर जैसे ही चला वैसे ही उस रत्न की चमकसे द्वारपालों ने उसे जाते देख लिया और वे उसके पीछे दौड़े। अपने को भागने में असमर्थ देख वह चोर उसी मकान में घुस गया जिसमें प्रस्थान के लिए सेठ ठहरा हुआ था। कोलाहल सुनकर सेठ की नींद खुल गई और उसने उस कपटी मुनि को पहचानकर सब मामला समझ लिया। किन्तु अनजान आदमी के कारण सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सत्य पदार्थों के अनुगामी जिन-शासनकी बदनामी न हो इस विचारसे वह सब रक्षकों से बोला-'अरे बकवादियो ! इस साधु का क्यों तिरस्कार करते हो ? यह महातपस्वियों में भी महातपस्वी और अत्यन्त निस्पृहों में भी अत्यन्त निस्पृह है। इसका चित्त माया और मोहसे रहित है। तथा यह प्रकृतिसे ही महापुरुष है ।यह मेरे कहनेसे ही मणि लाया है । तुम्हें इसके साथ चोरका-सा बर्ताव नहीं.करना चाहिए। अतः शीघ्र पास जाकर प्रसन्न मन से सदाचार रूपी कुमुद के लिए चन्द्रमा के तुल्य उस साधु से क्षमा माँगो, उसकी स्तुति करो, और उसे नमस्कार करो।' इस विषय में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है मायासंयमनोत्सू सूर्प रत्नापहारिणि ।
'माया के नियंत्रण में प्रवीण रत्न को चुरानेवाले सूर्प के दोष को जिनेन्द्र भक्त सेठ ने छिपाया' ॥189॥ दोषं निषूदयामास जिनेन्द्रो भक्तवाक्परः ॥189॥ इत्युपासकाध्ययने धर्मोपहणार्हणो नाम द्वादशः कल्पः । इस प्रकार उपासकाध्ययन में उपबृंहण गुण का वर्णन करने वाला बारहवाँ कल्प समाप्त हुआ। |