+ प्रभावना अंग -
अठारहवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

अथ समायाते भन्यजनानन्दसंपादितकर्मणि नन्दीश्वरपर्वणि तया पतिप्रणयप्रेयस्या बुद्धदास्या प्रतिचातुर्मास्यमौर्विलादेव्याः स्यन्दनविनिर्गमेण भगवतः सकलभुवनोद्धरणस्थितेर्जिनपतेर्महामहोत्सवकरणमुत्से तुमिच्छन्त्या शुद्धोदनतनयस्येष्टार्थमष्टाहा सकलपरिवारानुगतमेतदुचितमुपकरणजातमवनिपतिर्याचितस्तथैव प्रत्यपद्यत । ऊर्विलादेव्यपि सुभगभावात्सपत्नीप्रभवं दौर्जन्यमनन्यसामान्यमप्रतीकारमाकलय्य सोमदत्ताचार्यमुर्पसद्य 'भदन्त, यद्यतस्मिन्वित्रिदिनभाविन्यष्टाहामहे पूर्वक्रमेण जिनपूजार्थे मथुरायां मदीयो रथो भ्रमिष्यति, तदा मे देहस्थितिहेतुषु वस्तुषु साभिलाषं मनः, अन्यथा निरभिलाषम्' इति प्रतिजिज्ञासमाना तेन सोमदत्तेन भगवता तन्मनोरथसमर्थनार्थमवलोकितवक्रण वज्रकुमारेण साधुना साधु संबोधिता 'मातः, सम्यग्दृशामेणीदृशामवाप्तप्रथमकथे, अलमलमावेगेन । यतो न खलु मयि तव समयेसविण्याश्चिन्तके पुत्रके सति भविताहतामहणीयाः प्रत्यवायः । तत्स्वस्थं पूर्वस्थित्यात्मस्थाने स्थातव्यम्' इति हृद्यमनवद्यममृषोद्यं च निगद्य, आसाद्य च धुर्गतिविद्याधरपुरं महामुनितया बान्धवधिषणतया च निखिलेन भास्करदेवमुख्येनाम्बरचरचक्रेण क्रमशः कृताभ्युत्थानादिक्रियः सप्रश्रयमागमनायतनमापृष्टः स्पष्टमाचष्ट। तदनन्तरमानन्ददुन्दुभिनादोत्तालक्ष्वेलितमुखरमुखमण्डलैः, सामयिकालंकारसारसजितगजवाजिविमानगमनप्रचलत्कर्णकुण्डलैः, अनेकानणुमणिकिङ्किणीजालजटिलदुकूलकल्पितपालिघ्वेंजराजिविराजितभुजपञ्जरैः, करिमकरसिंहशार्दूलशरभकुम्भीरशफर शकुन्तेश्वरपुरःसराकारपताकासन्तानस्तिमितकरैः, मानस्तम्भस्तूपतोरणमणिवितानदर्पणसितातपत्रचामरविरोचनचन्द्रभद्र कुम्भसंभृतशयः, अतुच्छदेवच्छन्दाविच्छेि नकोरथै स्यन्दनद्विपतुरगनरनिकीर्णसैन्यनिचयः, सजयघण्टापटुपटहकरटामृदङ्गशङ्खकाहलत्रिविलतालझल्लरीभेरिभम्भादिवाद्यानुगतगीतसंगतानाभोग सुभगसंचारैः, कुब्जवामनकिरातकितवनटनर्तकबन्दिवाग्जीवनविनोदानन्दितदिविजमनस्कारैः, से खेलखेचरसहचरीहस्तविन्यस्तस्वस्तिकप्रदीपधूपनि प्रभृतिविचित्रार्चनोपकरणरमणीयप्रसरैः, पिष्टातकपटवासप्रसूनोपहाराभिरामरमणीनिकरैः, अपरैश्च तैस्तैर्विधृतपूजापर्यायपरिवारैविहायोविहारैः सह तं वज्रकुमारभगवन्तमम्बरादवतरन्तमुत्प्रेक्ष्य 'भिक्षुदीक्षापटीयसी पुण्यभूयसी खलु बुद्धदासी, यस्याः सुगतर्सपर्यासमये समायातं सकलमेतत्सुरसैन्यम्' इति धृतधिषणे पौरजनान्त:करणे सति स भगवान्गगनगमनानीकैः साकमौर्विलानिलये निलीये सावष्टम्भमेष्टाहीमथुरायां चक्रचरणं परिभ्रमय्याहत्प्रतिबिम्बाङ्कितमेकं स्तूपं तत्रातिष्ठिपत्। अत एवाद्यापि तत्तीर्थ देवनिर्मिताख्यया प्रथते । बुद्धदासी दासीवासीद्ममनोरथा । भवति चात्र श्लोकः -


इसके बाद भव्यजनों को आनन्द देनेवाला नन्दीश्वर पर्व आया ।इस पर्वमें पूतिकवाहन राजा की रानी ऊर्विला देवी बड़ा भारी महोत्सव करके जिनेन्द्रदेवका रथ निकालती थी। बुद्धदासी ने उसके महोत्सव को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए बुद्धदेव की पूजाका आयोजन किया और उसके योग्य सब सामग्री राजा से माँगी। राजा ने सब सामान दे दिया। जब ऊर्विलाको अपनी सौत की इस असाधारण दुर्जनता का पता चला तो उसे इसका कोई प्रतीकार न सूझा ।तब वह सोमदत्त आचार्य के पास गई और बोली-भगवन् , यदि इस दो-तीन दिन में आनेवाले अष्टाह्निका पर्व में पुराने क्रमके अनुसार जिन भगवान्की पूजाके निमित्त से मेरा रथ मथुरा में निकलेगा तो मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगी, नहीं तो मेरा त्याग है।' यह सुनकर सोमदतने उसके मनोरथको पूर्ण करनेकी भावनासे मुनि वज्रकुमार की ओर देखा।वज्रकुमारने उसे समझाते हुए कहा-'सम्यग्दृष्टि ललनाओं में अग्रणी माता ! इतनी क्यों घबराती हो ? अपनी धर्ममाता की चिन्ता करने वाले मुझ पुत्र के होते हुए जिनभगवान्की पूजा में विघ्न नहीं हो सकता ।अतः निश्चिन्त होकर अपने महलों में जाकर बैठो।

इस प्रकार अपने हृदय की सच्ची बात को कहकर वज्रकुमार मुनि विद्याधर भास्कर देव के नगर में पहुँचे ।एक तो महामुनि होने से दूसरे बन्धुभाव होने से भास्करदेव वगैरह सभी विद्याधरों ने उनका सत्कार किया और विनयपूर्वक उनके आनेका कारण पूछा ।वज्रकुमारने सव समाचार कहा। सुनते ही सब विद्याधर उनके साथ मथुरा चलने को तैयार हो गये। खूब जोर-जोरसे बाजे बजने लगे। हाथी, घोड़े और विमान सामयिक अलंकारों से सजा दिये गये । विद्याधरोंने बड़ी-बड़ी मणियोंकी घंटियोंसे सुशोभित ध्वजाएँ अपने हाथों में ले ली। कुछके हाथों में हाथी, मगर, सिंह आदि के आकारों से चित्रित पताकाएँ थीं। कुछ के हाथों में मानस्तम्भ, स्तूप, तोरण, दर्पण, छत्र, चमर, शृङ्गार आदि थे। जय-जयकार के साथ घण्टा, नगारा, मृदंग, शंख, वीणा, झाँझ आदि बाजे बजने लगे और उनके स्वर के साथ स्त्रियाँ गाने लगीं। नट लोग कुबड़े, बौने आदि का रूप बनाकर नाचने लगे, भाटों ने स्तुति-गान करना प्रारम्भ कर दिया। विनोद की लहरें उठ पड़ी । विद्याधरों ने अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ हाथों में स्वस्तिक, दीप, धूपघट आदि पूजनकी सामग्री ले ली । स्त्रियों के हाथ केशर का चूर्ण, पुष्प आदि उपहारों से अलंकृत थे। इस प्रकार पूजन की विविध सामग्री लेकर सब विद्याधर बड़े उत्सव के साथ वज्रकमार मुनि के पीछे-पीछे चल दिये।

मथुरा नगरी में आकाश से नीचे उतरते हुए इन विद्याधरों को देखकर पुरवासी जनों ने समझा कि 'बुद्धदासी बड़ी पुण्यात्मा है उसी की बुद्धपूजा में सम्मिलित होने के लिए यह सब देवगण आये हैं। किन्तु वज्रकुमार मुनि विद्याधरों की इस सेना के साथ ऊर्विला रानी के महल में उतरे और उन्होंने अष्टाहिका-पर्व में मथुरा में रथयात्रा कराकर जिन-बिम्ब से सुशोभित एक स्तूप की वहाँ स्थापना की। इसी से आज भी वह तीर्थ 'देवनिर्मित' कहा जाता है। यह सब देखकर बुद्धदासी का मनोरथ भग्न हो गया।

इस विषय में एक श्लोक है । जिसका भाव इस प्रकार है

ऊर्विलाया महादेव्याः पृतिकस्य महीभुजः।
स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिर्वजकुमारकः ॥211॥
वज्रकुमार मुनि ने राजा पूतिक की रानी महादेवी ऊर्विला के रथ का विहार कराया ॥211॥

इत्युपासकाध्ययने प्रभावनविभावनो नामाष्टादशः कल्पः।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में प्रभावना अंगका वर्णन करनेवाला अठारहवाँ कल्प समाप्त हुआ।