+ बलि को देशनिर्वासन -
उन्नीसवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

(अब वात्सल्य अंगको कहते हैं-)

अर्थित्वं भक्तिसंपत्तिः प्रयुक्तिः (प्रियोक्तिः) सत्क्रियाविधिः।
सधर्मसु च सौचित्यकृतिर्वत्सलता मता ॥212॥
धर्मात्मा पुरुषों के प्रति उदार होना, उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर सत्कार तथा अन्य उचित क्रियाएँ करना वात्सल्य है ॥212॥

स्वाध्याये संयमे सङ्के गुरौ सब्रह्मचारिणि ।
यथौचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥213॥
स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और सहाध्यायीका यथायोग्य आदर-सत्कार करने को कृती पुरुष विनय कहते हैं॥213 ॥

आधिव्याधिनिरुद्धस्य निरवद्येन कर्मणा ।
सौचित्यकरणं प्रोक्तं वैयावृत्यं विमुक्तये ॥214॥
जो मानसिक या शारीरिक पीड़ा से पीड़ित हैं, निर्दोष विधि से उनकी सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य कहा जाता है । यह वैयावृत्य मुक्तिका कारण है ॥214॥

जिने जिनागमे सूरौ तपःश्रुतपरायणे ।
सद्भावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥215॥
जिन-भगवान् में, जिन-भगवान् के द्वारा कहे हुए शास्त्र में, आचार्य में और तप और स्वाध्याय में लीन मुनि आदि में विशुद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता है उसे भक्ति कहते हैं ॥215॥

चातुर्वर्ण्यस्य संघस्य यथायोग्यं प्रमोदवान् ।
वात्सल्यं यस्तु नो कुर्यात्स भवेत्समयी कथम् ॥216॥
जो हर्षित होकर चार प्रकार के संघ में यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ॥216॥

तेद्वतैर्विद्यया वित्तैः शारीरैः श्रीमदोश्रयैः ।
त्रिविधातङ्कसंप्राप्तानुपकुर्वन्तु संयतान् ॥217॥
इसलिए व्रतों के द्वारा, विद्या के द्वारा, धन के द्वारा, शरीर के द्वारा और सम्पन्न साधनों के द्वारा शारीरिक मानसिक और आगन्तुक रोगों से पीड़ित संयमीजनों का उपकार करना चाहिए ॥217॥

(भावार्थ – जिस प्रकार एक सच्चा हितैषी भृत्य अपने स्वामी के कार्य के लिए सदा तैयार रहता है वैसे ही धर्म के कार्यों को करने में सदा तैयार रहना, धर्म के अंगों की रक्षा के लिए अपनी जान तक लगा देना वात्सल्य है। सम्यग्दृष्टि को वात्सल्य से परिपूर्ण होना चाहिए। किसी भी धर्मायतन पर विपत्ति आने पर उसे तन, मन और धन लगाकर दूर करना चाहिए । हम धर्म से तो प्रेम करें और धर्म के जो अंग हैं-जिनबिम्ब, जिनमन्दिर, जिनागम, जैन साधु, गृहस्थ वगैरह, उनके प्रति उदासीन बने रहें, तो हमारा वह धर्म-प्रेम आखिर है क्या वस्तु ? जब धर्म के अंग ही नहीं रहेंगे तो धर्म ही कैसे रह सकता है ? जैसे शरीर की स्थिति उसके अंगों और उपांगों की स्थिति पर निर्भर है वैसे ही धर्म की स्थिति उसके उक्त अंगों के आश्रित है । अतः धर्म-प्रेमी का यह कर्तव्य है कि वह धर्म के अंगों से प्रेम करे-उनके ऊपर कोई विपत्ति आई हो तो उसे प्राणपण से दूर करने की चेष्टा करे। इसी से वात्सल्य अंग का वर्णन करते हुए श्री पञ्चाध्यायी के कर्ताने लिखा है कि जिनविम्ब जिनालय वगैरह में से किसी के उपर भी घोर संकट आने पर बुद्धिमान् सम्यग्दृष्टि सदा उसे दूर करने के लिए तत्पर रहता है और जब तक उनमें आत्मबल रहता है, मन्त्र, तलवार और धनका बल रहता है तब तक उस संकट को न वह सुन ही सकता है और न देख ही सकता है। ' आज इस प्रकार का वात्सल्य देखने में नहीं आता। साधर्मी भाई मुसीबत में पड़े रहते हैं और हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। साधु त्यागियोंके कष्टों की ओर हमारा कोई ध्यान नहीं है। अपने ही भाइयों की कन्या के विवाह के अवसर पर हम उससे हजारों का दहेज माँगते हैं। कोई गरीब निराश्रय हो तो उसकी सहायता करने की भावना हम में नहीं होती। उनका दुःख देखकर हमारा हृदय द्रवित हो भी जाये तो भी हम उनकी सहायता नहीं करते। मौखिक सहानुभूति मात्र प्रकट करके चुप हो जाते हैं। इस तरह की बेरुखाई से धर्म की स्थिति कभी भी नहीं रह सकती। अतः जो सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा है वह सबकी यथायोग्य सेवा-शुश्रूषा करके, अपने हृदय की भक्ति को प्रकट करता है और इस तरह वात्सल्य अंग का पालन करके अपना और दूसरों का महान् उपकार करता है।)

वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध विष्णुकुमार मुनि की कथा


श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-अवन्तिविषयेषु सुधान्धःसौधस्पर्द्धिशालायां विशालायां पुरि प्रभावतीमहादेवोश्रितशर्मसीमा जयवर्मनामा काश्यपीश्वरः शाक्यवाक्यवारिधिविक्रान्तिनश्रेण शुक्रण चार्वाकलोकदिवस्पतिना बृहस्पतिना रुद्रमुद्रानुद्रितविवेकेन प्रह्लादकेन चानुजेनानुगतेन वेदविद्याबलिना बलिना सचिवेन चिन्त्यमानराज्यस्थितिरेकदा समस्तशास्त्राभ्यासवर्षविस्फारितसरस्वतीतरङ्गपरम्पराप्लावनपवित्रितविनेयजनमनोनलिननिकुरुम्बस्य परमतपश्चरणगणग्रहणाजिह्मब्रह्मस्तम्बस्य महामुनिपञ्चशतीवर्यस्य भगवतोऽकम्पनाचार्यस्य महर्द्धिजुषः सर्वजनानन्दनं नाम नगरोपवनमधितस्थुषश्चरणार्चनोपचाराय राजमार्गेषु महोत्सवोत्साहो सेकिपरिजनं पौरजनमभ्रंलिहगेहाप्रभागावसरे दिग्विलोकानन्दमन्दिरे स्थितः समवलोक्य 'कोऽयमकाण्डे प्रचण्डः पौराणामुद्यावद्योगें नियोगः' इति वितर्कयन्, सकलसमयसंभविप्रसूनस्तिमितहस्तपल्लवान्तरालाद्वनपालात् 'देव, भवदर्शनोत्सुकवनदेवतालोचने भगवत्तपःप्रभावप्रवृत्तसमस्ततून्मादितमेदिनीनन्दने निजलक्ष्मीविलक्ष्यीकृतगन्धमादने पुरोपवने सद्गुणश्रीसंपादितसमूहेन" महता मुनिसमूहेन सर्वसत्त्वानन्दप्रदानोदाराभिधासुधाप्रबन्धावधीरितामृतमरीचिमण्डलो निखिलदिक्पालमौलिमणिनायकमुकुरैन्दीभवत्पादनखमण्डल: पुण्यद्विपयूथबन्धनवारिरकम्पनसूरिः समायातः । तदुपासनाय चास्योजयिनीजनस्य महामहावहश्चित्तोत्साहः' इत्याकर्ण्य प्रतूर्णमेतत्पादवन्दनोद्यतहृदयस्तत्र गमनाय तं मिथ्यात्वप्रबलतालताश्रय लिं बलिमपृच्छत् । सधर्मधुरोधरणगंलिबलिः–


इसके विषयमें एक कथा है उसे सुनें -

अवन्ति देश की विशाला नगरी में जयवर्म नामक राजा राज्य करता था। उसके चार मंत्री थे शुक्र, बृहस्पति, प्रह्लाद और बलि ।शुक्र बौद्ध शास्त्र में निष्णात था, बृहस्पति चार्वाक दर्शन में बृहस्पति के तुल्य था, प्रह्लाद शैव था और बलि वेदविद्यामें पारंगत था । एक बार समस्त शास्त्रों में पारंगत और परम तपस्वी अकम्पनाचार्य पाँच सौ मुनियों के संघ के साथ सर्वजनानन्दन नाम के उपवनमें आकर ठहरे। अपने आकाशचुम्बी महल के ऊपर से आचार्य की चरण पूजा के लिए बड़े उत्साह के साथ राजमार्ग से जाते हुए पुरवासियों को देखकर राजा विचारने लगा-असमयमें ये पुरवासी उद्यानकी ओर क्यों जाते हैं ?

इतने में ही सब ऋतुओं के फल-फूल हाथ में लेकर वनपाल उपस्थित हुआ और बोला 'स्वामी ! नगर के उपवन में बड़े भारी मुनि-संघ के साथ सब जीवों को आनन्द देने वाले, अपने अमृत मय वचनों की वर्षा से चन्द्रमा को भी तिरस्कृत करने वाले अकम्पनाचार्य गुरु पधारे हैं। उनके तप के प्रभाव से आई हुई समस्त ऋतुओं ने उपवन को पृथिवी का नन्दनवन बना दिया है ।उनकी उपासना के लिए उज्जैनी वासियों का उत्साह उमड़ पड़ा है।'

यह सुनकर राजाका मन उनके चरणों की वन्दना करने के लिए आतुर हो उठा। राजा ने मुनियों के पास चलने के लिए बलि मंत्री से पूछा । सच्चे धर्म की धुरा को उखाड़ फेंकने में पटु बलि बोला -

देव, न वेदादपरं तत्त्वं न श्राद्धादपरो विधिः ।
न यज्ञादपरो धर्मो न द्विजादपरो यतिः ॥218॥
राजन्, वेद से उत्कृष्ट कोई तत्त्व नहीं है। श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरी विधि नहीं है। यज्ञ से बड़ा कोई दूसरा धर्म नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर दूसरा कोई यति नहीं है' ॥218 ॥

सन्मार्गसोंच्छेदकः प्रहादकः


सन्मार्ग का नाशक प्रह्लाद मंत्री बोला --

अद्वैतान्न परं तत्त्वं न देवः शङ्करात्परः ।
शेवशास्त्रात्परं नास्ति भुक्तिमुक्तिप्रदं वचः ॥219॥
अद्वैत से उत्कृष्ट दूसरा कोई तत्त्व नहीं है, शंकर से बड़ा दूसरा कोई देवता नहीं है । और शैव शास्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मुक्ति और मुक्ति को देनेवाला शास्त्र नहीं है' ॥219॥

तथा नास्तिक्याधिक्यवाक्यवाचस्पती शुक्रबृहस्पती अपि राक्षे स्वप्रज्ञां विज्ञापयामासतुः । मनागन्तःक्षुभितमतिः क्षितिपतिः-'अहो दुजेनतालतालम्बनकुजा द्विजाः, किं ममैव पुरतो भवतां भारती प्रगल्भते, किं वा बुधप्रवेकस्य लोकस्यापि ? सन्नीतिवसुमतीविदारणहेलिबलि:-'इलापाल, यदि तवास्मन्मनीषोत्कर्षविषये सेयं मनः, तदास्तां तावदभ्यस्तशास्त्रप्रवीणप्रसः परः प्राज्ञः। किं तु सर्वस्यापि वादेर्वादे पुरस्तात्परिगृहीतविद्यानवद्या एवं'। स्थिरप्रकृतिः क्षोणीपतिः-'यद्येवं शूराणां कातराणां च रणे व्यक्तिर्भविष्यति' इत्यभिधायानन्ददुन्दुभिरवोपार्जितपरिजनपूजोपकरणो विजयशेखरं नाम करिणमारुह्यान्तःपुरानुगमग्राह्योऽतिवाय नगरमार्गमुपगतारामसीमसंसर्गः, ततः करिणोऽवतीर्य गृहीतार्यवेषपरिकरः कतिपयाप्तपरिवारपुरःसरस्तं व्रतविद्यानवयं भगवन्तं यथावदभिवन्द्य समाचरितनीचासनपरिग्रहः सविनयाग्रहं स्वर्गापवर्गमार्गस्वरूपनिरूपणपरायणः सद्धर्मसनाथां कथां प्रथयामास । सत्कर्मवंशप्रभिदलिर्बलिः-'स्वामिन् , कोऽयं स्वर्गापवर्गास्तित्वसंग्रहे देवस्य दुराग्रहः, यतो द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुरुषः। तयोरन्योन्यमनन्यसामान्यस्नेहरसोत्सेकप्रादु. भूतिः प्रीतिः प्रत्यक्षसमधिसर्गः स्वर्गो न पुनरदृष्टः कोऽपीष्टः स्वर्गः समस्ति'।

गुणभूरिः सूरिः-'सकले प्रमाणबले बले, किं प्रत्यक्षताधिकरणमेकमेव प्रमाणं समस्ति'। नास्तिकेन्द्रमनोरथरथमातलिर्बलिः–'अखिलश्रुतधरोद्धारादिपुरुषविदुष, एकमेव' । भगवान् - 'कथं तर्हि भवतः पित्रोर्विवाहाद्यस्तित्वतन्त्रम् , कथं वा तवादृश्यानां वंश्यानामवस्थितिः, स्वयमप्रत्यक्षप्रमेयत्वादाप्तपुरुषोपदेशाश्रितौ स्वपक्षपरिक्षतिः परमतोत्सवकृतिश्च। बलिभट्टो भट्ट इवेतस्तटमितो मदोत्कटः करटीति संकटप्रघट्टकमापतितः परं सभाजनसभाजनकरमुत्तरमपश्यन्नश्लीलमसभ्यसर्ग निरर्गलमार्ग किमपि तं भगवन्तं प्रत्युवाच । तितिपतिरतीव मन्दाक्षविक्षिप्तवीक्षणो मुमुक्षुसमक्षमासन्नाशिवताशनिसंघट्ट बलिभट्ट प्रतिष्ठाभङ्गभयात्किमप्यनभिल प्य 'भगवन् , संपन्नतत्त्वसंबन्धस्य निजस्खलितप्रवृत्तचित्तमहामोहान्धस्य सद्धर्मध्वंसहेतोर्जन्तोनिसर्गस्थैर्यमेरुषु गुणगुरुषु न खलु दुरपवादकरणात्परमवसाने प्रहरणमस्ति' इति वचनपुरःसरं कथान्तरमनुबध्य साधु समाराध्य च प्रशान्ति हैमवतीप्रभवगिरिमकस्पनसूरि विनेयजनसंभावनौचित्यशया तदनुहयात्मसदनमासाद्यापरेदयुरपरदोषमिषेण सनिकारकरणमनुजैः सह कर्मस्कन्धबन्धवार्द्ध लिं बलि निजदेशानिर्वासयामास । भवतश्चात्र श्लोको --


नास्तिक शिरोमणि शुक्र और बृहस्पति ने भी राजासे अपना अभिप्राय कहा ।थोड़ा क्षुब्ध होकर राजा बोला-'अहो दुर्जन रूपी लता के आधारभूत द्विज वृक्षो, क्या मेरे ही सामने आपकी जबान चलती है या विद्वानों के सामने भी कुछ बोल सकते हैं ?

'बलि बोला-'राजन् ! यदि हमारी बुद्धि के वैशिष्टय के विषय में आपके मन में ईर्ष्या है तो समस्त शास्त्रोंमें प्रवीण विद्वान्की तो बात ही क्या, सर्वज्ञ भी यदि वादी हो तो उसके सामने भी हमारी विद्या निर्दोष उतरेगी।'

'यदि ऐसा है तो शूर-वीर और कायर की पहचान रण में ही होगी।' ऐसा कहकर उस स्थिरस्वभाव राजा ने आनन्द सूचक भेरी बजवायी। उसे सुनकर उसके परिवार के लोग पूजा की सामग्री ले-लेकर आ गये । तब राजा विजयशेखर नाम के हाथीपर चढ़कर चल दिया और नगर के बाहर उद्यान की सीमा में पहुँचते ही हाथी से उतर पड़ा। तथा अपने परिवार के कुछ आप्त पुरुषों के साथ आचार्य के पास जाकर और उनके चरणों की वन्दना करके एक नीचे आसन पर बैठ गया और विनय पूर्वक स्वर्ग और मोक्ष का स्वरूप बतलाने की प्रार्थना करके चुप हो गया। आचार्य ने स्वर्ग और मोक्ष का निरूपण करते हुए धर्म चर्चा की। तब बलि बोला 'स्वामी ! स्वर्ग और मोक्ष का अस्तित्व मानने का दुराग्रह आप क्यों करते हैं ? बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ष के पुरुष का परस्पर में जो असाधारण प्रेम रस उत्पन्न होता है. उसे प्रीति कहते हैं यह प्रीति ही साक्षात् स्वर्ग है, उससे भिन्न कोई दूसरा अदृश्य स्वर्ग नहीं है।' आचार्य- बलि ! क्या एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही है ?

बलि -'हाँ, समस्त श्रुतरूपी पृथिवी का उद्धार करने वाले आदि पुरुष के तुल्य विद्वन् महात्मन् , एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।'

आचार्य - तो फिर तुम्हारे माता पिता ने विवाह किया था इत्यादि में क्या प्रमाण है ? और तुम्हारे पूर्व पुरुष थे इसमें भी क्या प्रमाण है ? यदि कहोगे कि जो वस्तुएँ हमारे प्रत्यक्ष में नहीं हैं उन्हें हम प्रामाणिक पुरुषों के कथन से मानते हैं तो ऐसा मानने में तुम्हारे पक्ष की हानि होती है और हमारे मत की पुष्टि होती है।

इस उत्तर को सुनकर बलि संकट में पड़ गया और सदस्यों के लिए प्रीतिकर उत्तर न सूझने पर असभ्य वचन बकने लगा। यह देखकर राजाकी आँखें शरम से गढ़ गईं। किन्तु प्रतिष्ठा के भङ्ग होने के भय से उसने मुनिजनों के सामने बलि से कुछ भी नहीं कहा और बोला-'भगवन् ! जिसका चित्त महामोह से अन्धा हो रहा है और जो समीचीन धर्म को ध्वंस करने पर तत्पर है तथा वर्तमान तत्त्वों से ही सम्बन्ध रखता है उस मनुष्य के पास मेरु के समान स्थिर आप सरीखे गुरुओं का अपवाद करने के सिवा दूसरा हथियार नहीं है।'

इस प्रकार चर्चा का प्रसङ्ग बदलकर, और परम शान्तिरूपी गंगा नदी के उद्गमके लिये हिमवान् पर्वत के तुल्य अकम्पनाचार्य की शिष्यजनों के योग्य आराधना करके तथा आज्ञा लेकर राजा अपने महलों में लौट आया ।और दूसरे दिन अन्य अपराध के बहाने से बलिको उसके साथी मंत्रियों के साथ तिरस्कारपूर्वक देश से निर्वासित कर दिया।

इस विषय में दो श्लोक हैं जिसका भाव इस प्रकार है -

सन्नसंश्च समावेव यदि चित्तं मलीमसम् ।
यात्यान्तः क्षयं पूर्वः परंश्चाशुभचेष्टितात् ॥220॥
स्वमेव हन्तुमीहेत दुर्जनः सजनं द्विषन् ।
योऽधितिष्ठेत्तुलामेकः किमसौ न व्रजेदधः ॥221॥
'यदि चित्त मलीन है तो सज्जन और दुर्जन दोनों समान हैं। उनमें से सज्जन तो अशान्ति के कारण नष्ट हो जाता है और दुर्जन बुरे कार्यों के करने से नष्ट हो जाता है। क्योंकि सज्जन से द्वेष करने वाला दुर्जन स्वयं अपने ही घात की चेष्टा करता है। ठीक ही है जो अकेला ही तराजू में बैठ जाता है वह नीचे क्यों नहीं जायेगा' ॥220-221॥

इत्युपासकाध्ययने बलिनिर्वासनो नामैकोनविंशः कल्पः ।

इस प्रकार उपासकाध्ययन में बलि के देशनिर्वासन का वर्णन करनेवाला उन्नीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।