+ वात्सल्य अंग -
बीसवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

बलिद्विजः सानुजस्तथा सकलजनसमक्षमसूक्ष्मसूक्ष्मणपूर्वकं निर्वासितः सन्मुनिविषयरोषोन्मेषकलुषितः कुरुजाङ्गलमण्डलेषु तहिलासिनीजलकेलिविगलितकालेयपाटलकल्लोलाधरसुरसरित्सीमन्तिनीचुम्बितपर्यन्तप्रसरे हस्तिनागपुरे साम्राज्यलक्ष्मीमिव लक्ष्मीमती महादेवीमवहाय सरस्वतीरसावगाहसागरस्य श्रुतसागरस्य भगवतोऽभ्यणे पित विनयविष्णुना "विष्णुना लघुजन्मना सूनुना सार्धं प्रवर्धितदीक्षाप स्य महापनस्य महीपतेर्महान्तं पमनामनिलयं तनयमशिश्रियत् । पनोऽपि चारसंचाराद्विदितवंशविद्याप्रभावाय तस्मै वलिसचिवाय सर्वाधिकारिकं स्थानमदात् । . बलिः-'देव, गृहीतोऽयमनन्यसामान्यसंभावनाह्लादः प्रसादः किंतु कर्णेजपवृत्तीनां लञ्चलुचनोचितचेतःप्रवृत्तीनां च प्रायेण पुरुषाणां नियोगिपदं हृदयास्पदं न शोर्योर्जितचित्तस्योदारवृत्तस्य च तदसाध्यसाधनेन नन्वयं जनो निदेशदानेनागृहोतव्यः' । पद्मः-'सत्यमिदम्' कि तु स्वामिसमीहितसमर्थनसंवीणेषु भवद्विधेषु सचिवेषु सत्सु किं नामासाध्यं समस्ति। अन्यदा तु कुम्भपराधिकृतमूर्तिः सिंहकीर्ति म नृपतिरनेकायोधनलब्धयशःप्रसाधनः संनद्धसारसाधनो हस्तिनागपुरावस्कन्दप्रदानायागच्छन्, एतनगरच्छन्नावसर्पनिवेदितागमनः पद्मनिदेशादभ्यमित्रीणप्रयाणपरायणेन कूटप्रकामकदनकोविदधिषणेन बलिनामध्ये प्रबंन्धेन युद्धयमानः, नामनिर्गमविधानः प्रधानैयुद्धसिद्धान्तोपान्तैः सामन्तैश्च सार्धं प्रवध्य तस्मै हृदयशल्योन्मूलनप्रमदमतये क्षितिपतये प्राभृतीकृतः । क्षितिपतिः-शस्त्रशास्त्रविद्याधिकरणव्याकरणपतञ्जले बले, निखिलेऽपिं बले चिरकालमनेकशः कृतकृष्ण वदनच्छायस्यास्य द्विष्टस्य विजयानितान्तं तुष्टोऽस्मि । तद्याच्यतां मनोभिलाषधरो वरः' । बलिः-'अलक' यदाहं याचे तदार्य प्रसादोकर्तव्यः' इत्युदारमुदार्य पुनश्चतुरङ्गबलःप्रबलः प्रतिकूलभूपालविनयनाय पन्नमवनोपतिमादेशं याचित्वा सत्त्वरमशेषाशावशनिवेशानीकसत्रितसकलमहीतलो दिग्विजयया त्रार्थमुच्चचाल। अत्रान्तरे विहारवशाद्भगवानकम्पनाचार्यस्तेन महता मुनिनिकायेन साकं हास्तिनपुरमनुसृत्योत्तरदिग्विलासिन्यवतंसकुसुमतरौ हेमगिरौ महावगाहायां गुहायां चातुर्मासीनिमित्तं स्थिति बबन्ध । बलिरपि निखिलजलधिरोधः सविधवनविनोदितवीरवधूहृदयो दिग्विजयं विधायागतस्तं भगवन्तमवबुध्य चिरकालव्यवधानेऽप्यलेकविषनिषेक इव जातप्रकोपोद्रेकस्तदपराधविधानाय धराधीश्वरं पुरावितीर्णवरव्याजेन समाशाखार्द्धमात्मैकशासनप्राज्यं राज्यमन्तःपुरप्रचारैश्वर्यमात्रसमतः पनतोऽभ्यर्थ्य मखमिषेण मुनिसैन्यौजन्योत्कर्ष चिकीर्षुमदनंद्रव्याधिकरणैरुपकरणैरग्निहोत्रमारेभे । अत्रावसरे निजनिवासपवित्रितमिथिलापुरे जिष्णुसूरेरन्तेवासी भ्राजिष्णुर्नाम तमीमध्यसमये बहिर्विहितं विहारः समीरमार्गे नक्षत्रवीथीं लोचनालोकनसनाथां विदधानश्चमरुसंचारचकितगात्रं कुरङ्गकलत्रमिव, तरलतारकाश्रयणं श्रवणमवेक्ष्यान्तरिक्षे लक्ष्यं यध्वा किलैवमुच्चैरवोचत्-'अहो, न जाने क्वचिन्महामुनीनां महानुपसर्गो वर्तते' इति । एतच्च श्रमणशेरैणगणी समाकर्ण्य प्रयुक्तावधिबोधस्तनगरगिरिगुहायामकम्पनाचार्यस्य बलिदुर्विलसितमवधार्याकार्य च गगनगमनप्रभावं पुष्पकदेवं देशव्रतसेवम् 'हंहो पुष्पकदेव, तव विक्रयद्धेवैधुर्यान्न तदुपसर्गविसर्गे सामर्थ्यमस्ति । ततस्तथाविधर्द्धिवृद्धिरोचिष्णवे विष्णवे ताम दृष्टविशिष्टतामिवात्मस्थितामप्यविदुषे निवेद्य तदुपसर्गापवर्गायास्मत्सर्गानियोजयितव्यः' । पुष्पकदेवत्रिदशोचितचरणसेवस्य तस्य महर्षेर्भाषितात्तं देशमासाद्य विष्णुमुनये तथाविधर्द्धिवृत्तिं गुरुनिदेशप्रवृत्तिं च प्रतिपादयामास । विष्णुमुनिः प्रदीप इव स्फाटिकभित्तिमध्यलब्धप्रसरेण किरणनिकरण वारिधिवज्रवेदिकानिर्भेदनेन मानुषोत्तरगिरिपर्यन्तसंवेदनेन मनुष्यक्षेत्रसूत्रपातविडम्बनकरण करेणोर्णनाभ इव तन्तुनिकाये काये स्ववशाश्रयया व्याससमासक्रियया च तामवगम्योपगम्य च हास्तिनपुरं 'न खल्वनिवेद्य निखिलवर्णिवर्णाश्रमपालाय मध्यमलोकपालायामर्षप्रवृत्ततन्त्रण हुंकारमात्रेणाप्याकम्पितजगत्त्रयाः प्रसंख्यानवनविध्वंसदावे तपःप्रभावे दुर्जनविनयनार्थमभिनिविशन्ते यतीशाः' इति च परामृश्य, प्रविश्य च पुरैव चिरपरिचितकञ्चुकिसूचितप्रचारोऽन्तःपुरं, पप्रमहीपते, राजधानीष्वरण्यानीषु वा तपस्यतः संयतलोकस्य न खलु नरेश्वरात्परः प्रायेणास्ति गोपायिता । तत्कथं नाम तृणमात्रेs. प्यनपराधमतीनां यतीनामात्मन्यशुभलोकनिषेकसर्गमुपसर्ग सहसे इत्युक्तम् । 'भगवन् । सत्यमेवैतत् । किंतु कतिचिहिनानि बलिरत्र राजा नाहम्' इति प्रत्युक्तियुक्तस्थितिं पद्मनृपतिमवमत्य 'छलेन खलु परेषु प्रायेण फलोलासनशीलास्तपः प्रभवद्धिलीलाः' इति चावगत्य शालाकर सकते । जिरसंपुटकोटरावकाशः प्रदीपप्रकाश इव संजातवामनाकृतिः सप्ततन्तुवसुमतीमनुसृत्य मधुरध्वनिः तृतीयेने सवनेन प्राध्ययनं व्यधात् । बलिर्जलधरध्वानबन्धुरं वाक्प्रसरं सिन्धुर इव निभृतको निर्वर्ण्य 'कोऽयं खलु वेदवाचि विरिञ्च इवोच्चारचतुरः' इति कुतृहलितहृदयः सत्रनिलयान्निर्गत्य वयसि च निश्चिताश्चयेसौन्दर्य द्विजवर्यमेनमवादीत्-भट्ट, किमिष्टं वस्तु चेतसि निधाय प्राधीषे'। 'वले, दायादविलुप्तालयत्वात्तदर्थ पादत्रयप्रमाणकलमवनितलम् । द्विजोत्तम निकाम दत्तम्' । 'यद्येवं बहुमानयजमान, विधीयतामुदकधारोत्तरप्रवृत्तिः दत्तिः । वलिः प्रबलामालेमादाय 'द्विजाचार्य, प्रसार्यतां हस्तः' इत्युक्तवति शुक्रः संक्रन्दनमिव कुलिशनिकेतनम् , प्रासादमिव कलशाह्नादम् , जलाशयमिव मत्स्याश्रयम् , सरिन्नाथमिव शङ्खसनाथम्, विरहिणीवासरगणनकुड्यप्रदेशमिवोर्ध्वरेखावकाशम् , नारायणमिव चक्रलक्षणम् , यज्ञोपकरणमिव जलयानपात्रमिव निश्छिद्रतामत्रम्, स्तम्बरमकरमिव दीर्घाङ्गलिप्रसरम, वंशकिशलयमिवान पूर्वीप्रवृत्तपर्वसंचयम् , कमलकोशमिवारुणप्रकाशनिवेशम्, विद्रुमभङ्गाभोगमिव स्निग्धपाटलनखराग्रं लक्ष्मोलताविर्भावोदयं शवमुपलक्ष्य, बले न खल्वयमेवंविधपाणितलसंवन्धो गोधः चयवाधिकरणम्, परेषां याचिता किं तु याच्य इति वचनवक्रं शुक्रमवगणय्य बलिः स्वकीयां दत्तिमुदकधारोत्तरामकार्षीत्। ... तदनु स विष्णुमुनिर्विरोचनविरोकनिकर इवाक्रमेणोर्ध्वमधश्चानवधिवृद्धिपरः, पर्वतस्योभयतः प्रवृत्तापगाप्रवाह इव तिरःप्रसर हः, कार्यधरमेकमकूपारवज्रवेदिकायां निधाय परं च क्रम चक्रवालंचूलिकायां पुनस्तृतीयस्य मेदिनीमलभमानस्तफ्नरथाखलनसेतना सुरसरितरीयस्रोतोहेतना संपादितदिविजसन्दरीचरणमार्गविभ्रमण समाचरित. खेचरीचेतःसंभ्रमण भूगोलगौरवपरिच्छेदे तुलादण्डविडम्बनेन चरणेन क्षोभितान्तरितचरपुरकतः किन्नरामरखचरचारणादिवृन्दैर्वन्धमानपादारविन्दः संयतजनोपकारसारस्वकोयद्धिवृद्धिपरितोषितमनीपैय॑न्तरानिमिषैरकारणखलतालतास्थलि बलि सबान्धवमबन्धयत् । प्रायः शयश्च सदेहं रसातलगेहम् । भवति चात्र श्लोकः --


समस्त लोगों के सामने महान् तिरस्कारपूर्वक अपने साथियों के साथ निर्वासित किये जानेपर बलि मुनियों से अत्यन्त रुष्ट हो गया और कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नाम के नगर के राजा पद्मकी शरण में पहुँचा। राजा पद्मके पिता महापदम ने अपने बड़े पुत्र विष्णु के साथ श्रुत सागर मुनि के समीपमें जिन दीक्षा धारण कर ली थी और छोटे पुत्र पद्म को राज्यभार सौंप दिया था। पद्मने गुप्तचरों के द्वारा बलि को कुलीन और विद्वान् जानकर उसे अपना मंत्री बना लिया और सब अधिकार उसे दे दिया।

बलि बोला--देव ! आपने हम पर असाधारण अनुग्रह किया है। किन्तु चुगलखोरों और घूसखोरों को यह बात सह्य नहीं हो सकती। अतः आप कोई ऐसा कार्य करने की हमें आज्ञा दें जो असाध्य हो।

पद्म-तुम्हारा कहना ठीक है किन्तु स्वामी के अभीष्ट को पूरा करने में कुशल तुम्हारे जैसे मंत्रियों के होते हुए कुछ भी असाध्य नहीं है। एक बार कुम्भपुर का स्वामी सिंहकीर्ति राजा, जिसने अनेक युद्धों में नाम कमाया था, बड़े भारी लश्कर के साथ हस्तिनागपुर पर आक्रमण करनेके लिए चला ।गुप्तचरों ने उसके आनेका समाचार बलिसे निवेदित किया ।बलि शत्रु पर आक्रमण करने में तथा कपट-युद्ध में बड़ा चतुर था ।उसने पद्म की आज्ञा लेकर शत्रु का सामना करने के लिए कूच कर दिया और मार्गमें ही उसपर आक्रमण कर दिया। तथा विख्यात नाम वाले प्रधानों और युद्ध करने में कुशल उसके सब सामन्तों के साथ उसे बाँधकर राजा पद्म के सामने उपस्थित कर दिया। हृदय के इस काँटे के निकल जाने से राजा पद्म बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला-- -

राजा-'व्याकरण में पतञ्जलि के समान शस्त्र विद्यामें निपुण बलि ! समस्त सैन्य के होते हुए भी चिरकाल से अनेक बार मेरे मुख को काला करने वाले इस शत्रु को जीतने से मैं बहुत प्रसन्न हूँ ।जो तुम्हें माँगना हो माँगो।

' 'जब मैं याचना करूँ तब महाराज मुझपर कृपा करें। ऐसा कहकर और राजा पद्म से आज्ञा लेकर विरोधी राजाओं को वश करने के उद्देश्यसे बलि बड़ी भारी सेना के साथ दिग्विजय के लिए निकला।

इसी बीचमें भगवान् अकम्पनाचार्य बड़े भारी मुनिसंघ के साथ विहार करते हुए हस्तिनागपुर में पधारे और उत्तर दिशामें स्थित हेम पर्वत की विशाल गुफा में चातुर्मास करने के लिए ठहर गये। बलि भी समस्त समुद्रों के तट तक दिग्विजय करके लौट आया। जैसे बहुत समय बीत जाने पर भी पागल कुत्ते के काटे का जहर चढ़ जाता है वैसे ही मुनिसंघके आने का समाचार जानकर उसे क्रोध चढ़ आया । पुराना बदला चुकाने के लिए उसने राजा पद्म से पहले दिये हुए वर का स्मरण दिलाकर पन्द्रह दिन के लिए राज्य माँग लिया । राज्य देकर राजा पद्म अन्तःपुर में रहने लगा। और बलिने यज्ञके बहाने से मुनियों को त्रास देने के लिए मद्य, मांस आदिके द्वारा अग्निहोत्र करना प्रारम्भ किया।

इधर यह काण्ड चालू था उधर मिथिलापुरीमें जिष्णुसूरिका शिष्य भ्राजिष्णु गत्रि के मध्यमें बाहर बैठा था और आकाशमें नक्षत्र-मण्डल की ओर देख रहा था। जैसे व्याघ्रके संचार से हिरणी भयभीत हो जाती है वैसे ही श्रवण नक्षत्र को काँपता हुआ देखकर आकाश में दृष्टि जमाये हुए वह जोरसे चिल्लाया-'आह, न जाने कहाँ महामुनियोंपर उपसर्ग आया है।'

यह सुनकर आचार्य ने अपने अवधिज्ञानसे जाना कि हस्तिनागपुर के निकटवर्ती पर्वत की गुफामें अकम्पनाचार्य के संघ के ऊपर बलि घोर उपसर्ग कर रहा है। उन्होंने तुरन्त ही आकाश में गमन कर सकने वाले पुष्पकदेव नामक क्षुल्लक को बुलाया और बोले

'पुष्पकदेव ! तुम्हारे पास विक्रिया ऋद्धि नहीं है इस लिए तुम उस उपसर्ग को दूर नहीं अतः विक्रिया ऋद्धि के धारक विष्णु मुनि के पास जाओ ।यद्यपि उन्हें ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है किन्तु उन्हें यह बात ज्ञात नहीं है। तुम जाकर उनसे कहो और हमारे आदेश से उन्हें उस उपसर्ग को दूर करने के लिए नियुक्त करो।'

इन्द्र के पूजने योग्य उन महर्षि के कहने से पुष्पक देव विष्णु मुनि के पास पहुँचा और उनसे विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न होनेकी बात तथा गुरुकी आज्ञा कह दी। विष्णु मुनि ने अपने हाथको मानुषोत्तर पर्वत तक फैलाकर तथा फिर संकोचकर विक्रिया ऋद्धि की परीक्षा की और हस्तिनागपुर जा पहुँचे।

'मुनियों के तपका प्रभाव उस दावाग्नि के समान है जो असंख्य जंगलों को जलाकर राख कर देती है। यदि मुनि क्रोध में आकर हुंकार मात्र कर दें तो उनके हुंकार मात्र से तीनों लोक काँप जाते हैं। किन्तु वे समस्त वर्णाश्रम धर्म के पालक राजा से कहे विना दुर्जन को दण्ड देने का प्रयत्न नहीं करते।' यह सोच विष्णु मुनि राजमहल में पहुँचे। पुराने परिचित द्वारपाल ने जैसे हो उन्हें आते देखा तत्काल राजा पद्म से उनके आने का समाचार कहा।

विष्णु मुनि बोले-'राजा पदम ! राजधानियों में अथवा वनों में तपस्या करने वाले मुनिजनों का रक्षक राजा के सिवा अन्य कोई नहीं है। अतः तृणमात्र का भी अपराध न करने वाले मुनियों पर दुर्जनों के द्वारा किये जाने वाले उपसर्ग को तुम कैसे सहन कर रहे हो ?'

'भगवन् ! आपका कहना ठीक है ।किन्तु कुछ दिनों के लिए यहाँ का राजा बलि है, मैं नहीं। ' पद्म ने उत्तर दिया।

इस उत्तर को सुनकर उन्होंने राजा पद्म की स्थिति को जाना और यह सोच कि प्रायः तप के प्रभाव से उत्पन्न हुई ऋद्धिका चमत्कार यदि दूसरों पर छल से प्रकट किया जाये तो वह फलदायक होता है, विष्णु मुनि ने वामन रूप बनाया और यज्ञ भूमि में जाकर मधुर कण्ठ से साम वेद का गान करने लगे।

मेघ की ध्वनि के समान सुन्दर वचन-विलास को हाथी की तरह कान लगाकर सुनने पर बलि को कौतूहल हुआ कि ब्रह्मा के समान वेद का पाठ करने में चतुर यह कौन है ? वह तुरन्त ही यज्ञमण्डपसे बाहर आया और विष्णु मुनि के आश्चर्यजनक वामन रूप को देखकर बोला 'ब्राह्मणश्रेष्ठ ! किस इष्ट वस्तु की इच्छा चित्त में रखकर यह वेदपाठ करते हो ?'

'बलिराज ! मेरा घर हिस्सेदारों ने छीन लिया है। उसके लिए केवल तीन पैर जमीन चाहता हूँ।'

'द्विजोत्तम ! मैं तुम्हें तीन पैर जमीन देता हूँ।'

'तो माननीय यजमान ! जलकी धारा पूर्वक दान का संकल्प कर दें।'

एक बड़ी झारी हाथ में लेकर बलि बोला-'द्विजाचार्य ! हाथ फैलाइये

जैसे ही वामन रूप धारी विष्णु मुनि ने हाथ फैलाया, शुक्राचार्यकी दृष्टि उस पर पड़ी। इन्द्र की तरह वज्र से युक्त, महल की तरह कलश से विशिष्ट, सरोवर की तरह मछली युक्त, समुद्र की तरह शंख सहित, विरहिणी स्त्री के द्वारा अपने पति के वियोगके दिनों को गिननेके लिए दीवार पर खींची गई ऊर्ध्व रेखाओं की तरह ऊर्ध्व रेखा से युक्त , विष्णु की तरह चक्र से चिह्नित, यज्ञ के उपकरण भूत यवों (जौ ) की तरह अँगूठे में यवाकार रेखा से युक्त, पानी पर चलनेवाले जहाज को तरह छिद्ररहित, हार्थी की सूंड़ की तरह लम्बी अँगुलियों वाले, बाँस के नये पत्तों की तरह पर्व और ग्रन्थिसे सहित, कमल के कोश की तरह लालिमायुक्त और मूंगोंकी तरह गुलाबी रंगवाले नखों के अग्रभाग से शोभित हस्त को देखकर अर्थात् वज्र, कलश, मछली, शंख, चक्र, उध्व रेखा और जौ आदि शुभ लक्षणों से सम्पन्न, छिद्र रहित और लम्बी अँगुलियों और लाल-लाल नखों युक्त हाथ को देखकर शुक्राचार्य बोले- 'बलि ! इस प्रकार का हाथवाला मनुष्य मांगता नही है किन्तु उल्टे उससे माँगा जाता है।

किन्तु बलि ने शुक्राचार्य के कहने पर ध्यान नहीं दिया और जल की धारा डालकर तीन पैर जमीन का संकल्प कर दिया ।

इसके बाद सूर्य की किरणों के समान विष्णु मुनि का शरीर एकदम से ऊपर नीचे बढ़ने लगा। उन्होंने एक पैर तो समुद्र की वेदिका पर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत की चोटीपर रखा, और जगह न मिलने से सूर्य के रथ की गति में प्रतिबन्धक, गंगा नदी की चौथी धारा को उत्पन्न करने में हेतु, देवांगनाओं के चरणमार्ग का भ्रम उत्पन्न करनेवाले, विद्याधरोंकी स्त्रियों के चित्तमें संशय के जनक तथा पृथ्वी की नापने के लिए मापक के तुल्य तीसरे चरण से विद्याधरों के नगरों में हलचल मच गई । व्यन्तर देवताओं ने और विद्याधरों आदि ने आकर उनके चरणों की वन्दना की। मुनियों का उपसर्ग दूर करने में अपनी विक्रिया ऋद्धि का प्रयोग करनेके कारण व्यन्तर देव उनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बलि को उसके बन्धु-बान्धवों के साथ बाँध लिया तथा उन्हें सशरीर रसातल को पहुँचा दिया ।

इस विषय में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है --

महापद्मसुतो विष्णुर्मुनीनां हास्तिने पुरे।
बलिद्विजकृतं विघ्न शमयामास वत्सलः ॥222॥
महापद्म राजा के पुत्र धर्मप्रेमी विष्णु मुनि ने हस्तिनागपुर में बलि के द्वारा मुनियों पर किया गया उपसर्ग दूर किया ॥222॥

इत्युपासकाध्ययने वात्सल्यर चनो नाम विंशतितमः कल्पः


इस प्रकार उपासकाध्ययन में वात्सल्य अंग का कथन करने वाला बीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।