+ रत्नत्रय का स्वरूप -
इक्कीसवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

निसर्गोऽधिगमो वापि तदाप्तौ कारणद्वयम् ।
सम्यक्त्वभाक्पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासतः ॥223॥
सम्यग्दर्शन दो प्रकारसे होता है-एक तो परोपदेश के बिना स्वयं ही हो जाता है और दूसरे, परोपदेश से होता है। क्योंकि किसी पुरुष को तो थोड़ा-सा प्रयत्न करने से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और किसी को बहुत प्रयत्न करनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है ॥223॥

उक्तं च


कहा भी है -

आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः ।
सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्योऽप्युपदेशकादिश्च ॥224॥
'सम्यक्त्व के अन्तरंग कारण निकट भव्यता, ज्ञानावरणादिक कर्मों की हानि, संज्ञीपना और शुद्ध परिणाम है; तथा बाह्य कारण उपदेश वगैरह हैं' ॥224॥

एतदुक्तं भवति-कस्यचिदासन्नभव्यस्य तन्निदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेव्यस्य विधूतैतत्प्रतिबन्धकान्धकारसंबन्धस्याक्षिप्तशिक्षाक्रियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य नवस्य भाजनस्येवासंजातदर्वासनागन्धस्य झरिति यथावस्थितवस्तस्वरूपसंक्रान्तिहेततया स्फाटि कमणिदर्पणसर्गन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन वा वेदनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकर्णनेन वाहत्प्रतिनिधिनिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहीलनेन वा महर्द्धिप्राप्ताचार्यवाहनेन वा नृषु नाकिषु वा तन्माहात्म्यसंभूतविभवसंभावनेन वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थेषु याथात्म्यसमवधानं श्रद्धानं भवति तदा प्रयोक्तुः सुकरक्रियत्वाल्लूयन्ते शालयः स्वयमेव, विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव, इत्यादिवत्तनिसर्गात्संजातमित्युच्यते । यदा त्वव्युत्पत्तिसंशीतिविपर्यस्तिसमधिकबोधस्याधिमुक्तियुक्तिसूक्तिसंबन्धसविधस्य प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगोपयोगावगायेषु समस्तेष्वैतिथेषु परीक्षोपक्षपादतिक्लिश्य निःशेषदुराशाविनिशाविनाशनांशुमन्मरीचिश्चिरेण तत्त्वेषु रुचिः संजायते, तदा विधातुरांयासहेतुत्वान्मया निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो हारो, मयेदं संपादित रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तदधिगमादाविर्भूतमित्युच्यते । उक्तं च -


आशय यह है कि जो कोई निकट भव्य है, सम्यग्दर्शन के योग्य द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और भवरूपी सम्पत्ति की जिसे प्राप्ति हो गई है, उसमें किसी तरह की रुकावट डालने वाला कोई प्रतिबन्धक नहीं रहा है, शिक्षा, क्रिया, बातचीत को ग्रहण करने में निपुण पाँचो इन्द्रियों और मन से जो युक्त है अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय है, नये बस्तन की तरह जिसमें दुर्वासना की गन्ध नहीं है, वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही स्वरूप दर्शाने के लिए जो स्फटिक मणि के दर्पण के समान स्वच्छ है, ऐसे जीव के पूर्वभव के स्मरण से, कष्टों के अनुभव से, धर्म के श्रवण से, जिनविम्ब के दर्शन से, महामहोत्सवों के अवलोकन से, ऋद्धिधारी आचार्यों के दर्शन करने से, मनुष्यों तथा देवों में सम्यक्त्व के माहात्म्य से उत्पन्न हुए विभव को देखने से या अन्य किसी कारण से विचाररूपी वन में मन को न भटका कर जब जीवादिक पदार्थों में ज्यों-का-त्यों श्रद्धान होता है तो उस सम्यग्दर्शन को निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। क्योंकि जैसे धान्य स्वयं ही कट जाते हैं अथवा सदाशयी स्वयं ही विनीत हो जाते हैं उसी तरह उसमें कर्ता को श्रम करना नहीं पड़ता।

और जब संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से ग्रस्त ज्ञान वाले मनुष्य के श्रद्धा, युक्ति और आगम के निकट होकर, प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोग के द्वारा अवगाहन करने के योग्य समस्त शास्त्रों की परीक्षा करने का कष्ट उठाकर चिरकाल के पश्चात् समस्त दुराशा रूपी रात्रि के विनाश के लिए सूर्य की किरणों के समान तत्त्व रुचि उत्पन्न होती है, तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । क्योंकि जैसे मैंने यह हार बनाया है या मैंने यह रत्नखचित आभरण बनाया है, वैसे ही कर्ता के द्वारा विहित परिश्रम से उत्पन्न हुए अधिगम-ज्ञान से वह प्रकट होता है । कहा भी है -

अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥२२५॥--आप्तमीमांसा
बुद्धिपूर्वक प्रयत्न के बिना अचानक जो इष्ट या अनिष्ट होता है वह अपने दैव से होता है और बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने से जो इष्ट या अनिष्ट होता है वह अपने पौरुष से होता है ॥225॥

(भावार्थ – चारों गति के सैनी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि भव्य जीवों को सम्यग्दर्शन हो सकता है किन्तु वे जीव विशुद्ध और साकार उपयोगवाले होने चाहिएँ। सारांश यह है कि जो जीव असैनी हैं, लब्ध्यपर्याप्तक हैं, सम्मूर्छन जन्म वाले हैं, अति संक्लेश परिणामवाले हैं उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती। सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक और विशुद्ध परिणाम वाले होने पर भी जब वे दर्शनोपयोगी होते हैं, उस काल में उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दर्शनोपयोग में तत्त्व विचार नहीं होता और सम्यग्दर्शन की प्राप्तिके समय उसका होना आवश्यक है। इसी से सोते हुए जीव को भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती। उपयुक्त बातों के सिवा सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए पाँच लब्धियों का होना आवश्यक है। वे लब्धियाँ हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि। इनमेंसे शुरू की चार लब्धियाँ तो साधारण हैं, अर्थात् जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति होना संभव नहीं है उनके भी हो जाती हैं। किन्तु पाँचवीं करणलब्धि तभी होती है जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होना होती है। उसके अन्त में ही जीवको सम्यग्दर्शन हो जाता है । जब ज्ञानावरण आदि अप्रशस्त कमों का अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा अनन्तगुणा घटता हुआ उदयमें आता है उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है। क्षयोपशमलब्धि के होने पर जीव के साता वगैरह प्रशस्त प्रकृतियों के बन्ध के कारण जो शुभ परिणाम होते हैं उसे विशुद्धिलब्धि कहते हैं। आचार्य वगैरहके द्वारा छः द्रव्यों और नौ पदार्थोंका उपदेश सुनने को मिलना देशनालब्धि है। जहाँ उपदेश का मिलना संभव नहीं है वहाँ पहले भवमें सुने हुए उपदेश के संस्कार से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। उक्त तीन लब्धियों से युक्त जीव के प्रतिसमय विशुद्धता के बढ़ने से आयु के सिवा शेष सात कर्मों की जब अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति शेष रहे तब स्थिति और अनुभाग का घात करने की योग्यता के आने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। उसके होने से वह जीव अप्रशस्त कर्मों की स्थिति और अनुभागका खण्डन करता है। इसके बाद करणलब्धि होती है। करण परिणाम को कहते हैं। करणलब्धि में अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के परिणाम होते हैं। इन तीनों में से प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त है किन्तु एकसे दुसरे का काल संख्यातगुना हीन है अर्थात् अनिवृत्तिकरणका काल सबसे थोड़ा है । उससे अपूर्वकरण का काल संख्यातगुना है। उससे अधःप्रवृत्त का काल संख्यातगुना है ।जहाँ नीचे के समयवर्ती किसी जीव के परिणाम ऊपर के समयवर्ती किसी जीव के परिणाम से मिल जाते हैं उसे अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। आशय यह है कि अधःकरण को अपनाये हुए किसी जीव को थोड़ा समय हुआ और किसी जीव को बहुत समय हुआ तो उनके परिणाम संख्या और विशुद्धि में समान भी होते हैं। इसीलिए इसे अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। जहाँ प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व ही परिणाम होते हैं उसे अपूर्वकरण कहते हैं। आशय यह है कि किसी जीव को अपूर्वकरण को अपनाये थोड़ा समय हुआ और किसीको बहुत समय हुआ। उनके परिणाम बिलकुल मेल नहीं खाते। नीचे के समयवर्ती जीवों के परिणामों से ऊपरके समयवर्ती जीवों के परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं। और जिनको अपूर्वकरण किये बराबर समय हुआ है उनके परिणाम समान होते भी हैं और नहीं भी होते। जिसमें प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। यहाँ जिन जीवों को अनिवृत्तिकरण किये बरावर समय बीता है उनके परिणाम समान ही होते हैं और नीचे के समयवर्ती जीवों से ऊपरके समयवर्ती जीवों के परिणाम अधिक विशुद्ध ही होते हैं। इन तीनों करणों में जो अनेक कार्य होते हैं उनका वर्णन श्री गोमट्टसार जीवकाण्डमें और लब्धिसारमें किया है, वहाँ से देख लेना चाहिए। यहाँ इतना बतला देना आवश्यक है कि अनिवृत्तिकरण के कालमें से जब संख्यात बहुभाग बीतकर एक संख्यातवाँ भाग प्रमाण काल बाकी रह जाता है तब जीव मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है। इस अन्तरकरण के द्वारा मिथ्यात्व की स्थिति में अन्तर डाल दिया जाता है। आशय यह है कि किसी भी कर्म का प्रतिसमय एक-एक निषेक उदयमें आता है और इस तरह जिस कर्म की जितनी स्थिति होती है उसके उतने ही निषेकों का ताँता-सा लगा रहता है। जैसे जैसे समय बीतता जाता है, वैसे-वैसे क्रमवार निषेक अपनी-अपनी स्थिति पूरी होनेसे उदयमें आते जाते हैं। अन्तरकरण के द्वारा मिथ्यात्व की नीचे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति वाले निषेकों को ज्यों-का-त्यों छोड़कर उससे ऊपरके उन निषेकों को, जो आगेके अन्तर्मुहूर्त में उदय आयेंगे, नीचे वा ऊपर के निषेकों में स्थापित कर दिया जाता है और इस प्रकार उस अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल को ऐसा बना दिया जाता है कि उसमें उदय आने योग्य मिथ्यात्वका कोई निषेक शेष नहीं रहता । इस तरहसे मिथ्यात्व की स्थिति में अन्तर डाल दिया जाता है। इस तरह मिथ्यात्व के उदयका जो प्रवाह चला आ रहा है, अन्तरकरण के द्वारा उस प्रवाह का ताँता एक अन्तर्मुहूर्त के लिए तोड़ दिया जाता है और इस प्रकार मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग कर दिये जाते हैं। नीचे का भाग प्रथम स्थिति कहलाता है और ऊपरका भाग द्वितीय स्थिति । इस प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति के बीच के उन निषेकों को, जो अन्तर्मुहूर्त काल में उदय आने वाले हैं, अन्तरकरण के द्वारा अपने-अपने स्थान से उठाकर कुछ को प्रथम स्थिति में डाल दिया जाता है और कुछ को द्वितीय स्थिति में डाल दिया जाता है। इस क्रियाके पूर्ण होने के साथ मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति भी पूरी हो जाती है। उसके पूरे होते ही अन्तर्मुहूर्त काल के लिए मिथ्यात्व के उदय का अभाव हो जाने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थानसे छूटते हुए जो उपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि को पहले-पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व ही होता है।

प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति अन्तरंग और बहिरंग कारणों से होती है। सम्यग्दर्शन भी अन्तरंग और बाह्य कारणों के मिलने पर ही प्रकट होता है। इसका अन्तरंग कारण तो दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यक मिथ्यात्व मोहनीय इन तीन प्रकृतियों का तथा चारित्र मोहनीय को अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है। और इनके क्षय अथवा उपशम में पूर्वोक्त पाँच लब्धियों में से करणलब्धि मुख्य कारण है तथा बाह्य कारण अनेक हैं। नरक गति में पहले के तीन नरकों में पूर्व जन्म की घटनाओं का स्मरण, धर्म का श्रवण और कष्टों का अनुभव बाह्य कारण है। आगे के चार नरकों में धर्म-श्रवण को छोड़कर बाकी के दो ही बाह्य कारण पाये जाते हैं। तिर्यञ्चों और मनुष्यों में पूर्व जन्म का स्मरण, धर्म का श्रवण और जिनविम्ब का दर्शन बाह्य कारण हैं। देवों में भवनवासी से लेकर बारहवें स्वर्गतक पूर्व जन्म का स्मरण, धर्म का श्रवण, जिन भगवान्की महिमा का निरीक्षण तथा अपने से बड़े अन्य देवों की ऋद्धि का दर्शन बाह्य कारण है। बारहवें स्वर्ग से ऊपर तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें स्वर्ग में देवों की ऋद्धि के दर्शन के सिवा शेष तीन ही बाह्य कारण हैं। नव ग्रेवेयक के देवोंमें पूर्व जन्म का स्मरण और धर्म का श्रवण ये दो ही बाह्य कारण हैं क्योंकि सोलह स्वर्ग से ऊपर के देव कहीं बाहर नहीं जाते । और नव ग्रैवेयक से ऊपर के सब देव नियम से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि ही मरकर जन्म लेते हैं। इतना विशेष है कि नरकगति और देवगति में तो जन्म लेने के अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है किन्तु तिर्यञ्च गति में जन्म लेने के आठ नौ दिन बाद सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है और मनुष्यगति में आठ वर्ष की अवस्था हो जाने पर सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। ऊपर पाँच लब्धियों में एक देशनालब्धि बतलायी है। जिसे सम्यग्दर्शन प्रकट होना होता है उसे इसी भव या पूर्व भव में नौ या सात तत्त्वों का उपदेश सुनने को अवश्य ही मिलना चाहिए ।जिस जीव ने पूर्व भव में उपदेश सुना और उसके संस्कार के रहने से इस भव में अन्य कारणों के मिलने पर उसे अनायास सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गयी तो वह सम्यग्दर्शन निसर्गज कहा जाता है; क्योंकि उसे इस भव में उसकी प्राप्ति के लिए थोड़ा-सा भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा। किन्तु इसी भव में उपदेशादि का निमित्त मिलने पर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे अधिगमज सम्यकदर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन के ये दोनों भेद केवल बाह्य उपदेश की अपेक्षा को लेकर ही किये गये हैं। जो सम्यक्त्व उसी भव में तत्त्वों के उपदेश का लाभ होने पर प्रकट होता है उसे अधिगमज कहा जाता है और जो इस भव के प्रयत्न के बिना पूर्वभव के संस्कार के कारण प्रकट हो जाता है उसे निसर्गज कहा जाता है; क्योंकि इस भव में उसके लिए कुछ भी श्रम नहीं किया गया और इस तरह वह अनायास ही प्राप्त हुआ कहलाया। दूसरे शब्दों में इसे देव से प्राप्त भी कह सकते हैं और अधिगमज को पौरुष से प्राप्त कह सकते हैं।)


सम्यग्दर्शन के भेद और उसकी पहचान


आत्महितैषी महापुरुषों ने सम्यग्दर्शन के दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। इन सभी भेदों में तत्त्वों का श्रद्धान समान रूप से पाया जाता है। अर्थात् तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन का सामान्य लक्षण है। अतः सम्यग्दर्शन के जितने भी भेद हैं उन सभी में तत्त्वों का श्रद्धान होना आवश्यक है उसके बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता ॥226॥

सम्यग्दर्शन रागी आत्माओं को भी हो सकता है और वीतरागी आत्माओं के भी होता है इसलिए उसके दो भेद कर दिये गये हैं - एक सराग सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन । सरागसम्यग्दर्शन प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतरागसम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता है ॥227॥

जैसे पुरुष की शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है, इन्द्रियों से उसे नहीं देखा जा सकता, फिर भी स्त्रियों के साथ संभोग करने से, सन्तानोत्पादन से, विपत्तिमें धैर्य और प्रारम्भ किये गये कार्य को समाप्त करना आदि बातोंसे उसकी शक्ति का निश्चय किया जाता है। वैसे ही सम्यक्त्व रूपी रत्न भी आत्मा का स्वभाव होने के कारण यद्यपि बहुत सूक्ष्म है, फिर भी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि के द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है।

(भावार्थ – सम्यग्दर्शन के सराग और वीतराग भेद सम्यग्दर्शन के धारक जीवों की अपेक्षा से किये गये हैं। जो जीव सरागी हैं उनके सम्यक्त्व को सरागसम्यक्त्व कहते हैं और जो जीव वीतरागी हैं उनके सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं ।चूंकि राग दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व कहा जाता है और उससे आगे के जीवों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है। कोई विद्वान् सरागता का कारण सम्यक्त्व सरागसम्यक्त्व और वीतरागता का कारण सम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्व है, ऐसा कहते हैं, किन्तु उनका यह लक्षण ठीक नहीं है क्योंकि एक तो ग्रन्थकार ने 'सरागवीतरागात्मविषयत्वात्' लिखकर यह स्पष्ट कर दिया है कि सराग आत्मा और वीतराग आत्मा की अपेक्षासे सम्यक्त्व के सराग और वीतराग भेद हैं। दूसरे, किसी भी शास्त्रकारने ऐसा लक्षण नहीं किया बल्कि अनगारधर्मामृत (पृ० 124) में पं० आशाधरजी ने स्पष्ट रूप से सरागीके सम्यक्त्व को सरागसम्यक्त्व और वीतरागी के सम्यक्त्व को वीतरागसम्यक्त्व कहा है। तीसरे, सम्यग्दर्शन राग का कारण नहीं है; राग का कारण तो चारित्रमोहनीय का उदय है और वह दसवें गुणस्थान तक रहता है, इसी से दसवें गुणस्थानतक के जीव सरागी और उससे ऊपरके जीव वीतरागी कहे जाते हैं ।चोथे, यदि सरागता का कारण सम्यग्दर्शन सराग सम्यग्दर्शन और वीतरागता का कारण सम्यग्दर्शन वीतराग सम्यग्दर्शन कहा जायेगा तो सम्यग्दर्शन के औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भेदों में सरागता और वीतरागता का कारण होने की दृष्टि से भेद करना होगा। इन तीन में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो सातवें गुणस्थानतक ही होता है और उसमें सम्यक्त्व प्रकृति का उदय भी रहता है अतः वह तो सरागसम्यक्त्व ही ठहरता है। किन्तु शेष दो सम्यम्दर्शन दसवे गुणस्थान तक सराग अवस्था में भी पाये जाते हैं और उससे ऊपर वीतराग अवस्था में भी पाये जाते हैं । अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि इन दोनों सम्यग्दर्शनों को सरागता का कारण माना जाये या वीतरागता का अथवा दोनोंका ? दोनों को सरागता का कारण तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन को भी सरागता का कारण माना जायेगा तो वीतरागी क्षीणकषाय गुणस्थानवालों को, केवलियों को और सिद्धों को भी सराग मानना पड़ेगा; क्योंकि उनके क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। रह जाता है द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ।इसमें दर्शन मोहनीय का उपशम रहता है इसलिए क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा इसकी स्थिति कमजोर होने से इसे राग का कारण मानकर यदि सराग सम्यक्त्व माना जायेगा तो ग्यारहवें गुणस्थान को वीतरागछद्मस्थ न मानकर सरागछद्मस्थ मानना होगा। शायद कहा जाये कि ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का साहाय्य न मिलने से उपशम सम्यक्त्व राग का कारण नहीं है तो चारित्रमोहनीय को ही राग का कारण क्यों नहीं मानते ? अतः बेचारे सम्यग्दर्शन को, जिसे शास्त्रों में प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण बतलाया है, राग का कारण बतलाना उचित नहीं है ।अतः क्षायिक और औपशमिक सम्यक्त्व को सरागताका कारण नहीं माना जा सकता। शायद कहा जाये कि सम्यग्दर्शन के होनेपर देव, शास्त्र, गुरुमें शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति होती है अतः सम्यग्दर्शन शुभरागका कारण है ।किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन होने से पहले भी उस जीव में राग पाया जाता था। सम्यग्दर्शन के प्रकट होने से एक तो उसमें कुछ राग की कमी हुई, दूसरे उसका आलम्बन बदल गया, जहाँ वह पहले स्त्री-पुत्रादिक के मोह में ही पड़ा रहता था वहाँ वह अब आत्महित के कारणों से राग करने लगा। अतः सम्यग्दर्शन राग का कारण नहीं हुआ बल्कि उसकी हीनता का और उसकी प्रवृत्ति को बदलनेका ही कारण हुआ ।इसी से पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है कि-'जितने अंश में जीव सम्यग्दृष्टि है उतना अंश बन्ध का कारण नहीं है और जितने अंश में उसके राग है उतने अंशमें उसके कर्मबन्ध होता है। अतः अबन्ध का कारण सम्यग्दर्शन राग का कारण नहीं हो सकता ।अब रहा दूसरा प्रश्न कि क्या सम्यग्दर्शन वीतरागता का कारण है ? किसी अंशमें सम्यग्दर्शन को वीतरागताका कारण माना जा सकता है, क्योंकि दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी का क्षय अथवा उपशम या क्षयोपशम होनेसे आत्मामें रागकी हानि ही होती है, वृद्धि नहीं ।किन्तु ऐसी अवस्था में सम्यग्दर्शन के दो भेद नहीं बन सकते। इस आपत्तिसे बचने के लिए यदि उसे दोनों का कारण माना जायेगा तो दोनों पक्षों में ऊपर उठाये गये विवाद खड़े हो जायेंगे। अतः सरागी के सम्यग्दर्शन को सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागी के सम्यग्दर्शन को वीतरागसम्यग्दर्शन कहना ही ठीक है । सम्यग्दर्शन आत्मा का धर्म है अतः वह इन्द्रियों से दिखायी दे सकनेवाली वस्तु नहीं है ।किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि वगैरह सरागी जीवों में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य वगैरह को देखकर सम्यग्दर्शन का अस्तित्व जाना जा सकता है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर दसवें गुणस्थान तक के जीव अपनेमें सम्यक्त्व के निमित्त से होने वाले प्रशमादि गुणों का निश्चय करके 'हम सम्यग्दृष्टि हैं' ऐसा जान लेते हैं। और चौथे से छठे गुणस्थान तक के जीवों में उनकी चेष्टाओं से प्रशमादिक का निर्णय करके 'वे सम्यग्दृष्टि हैं' ऐसा जानते हैं। इस प्रकार अपने में स्वसंवेदन से और दूसरों में अनुमान से सरागसम्यग्दर्शन के सद्भाव का निश्चय किया जाता है, क्योंकि सम्यम्दृष्टि में इस प्रकार के भाव देखे जाते हैं। किन्तु जिसमें इस प्रकार के भाव हों वह नियम से सम्यग्दृष्टि ही है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में भी इस प्रकारके भाव पाये जाते हैं। अतः प्रशमादि भाव सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हैं, नियामक नहीं हैं। इनके बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता किन्तु ये सम्यग्दर्शन के बिना भी हो सकते हैं। अब रहे उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागी जीव, उनका सम्यग्दर्शन वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है, और वह सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप ही होता है। *दर्शनमोहनीय के उपशम अथवा क्षय से आत्मा में जो निर्मलता होती है, उसे आत्मविशुद्धि कहते हैं, और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप ही होता है, क्योंकि वीतरागी जीवों में चारित्र मोहनीय का उदय न होने से प्रशमादि भाव नहीं पाये जाते ।अतः वीतराग सम्यग्दर्शन को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है प्रशमादि के द्वारा उसे नहीं जाना जा सकता। )

आस्तिक्य आदि का स्वरूप


यद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम् ।
तं प्राहुः प्रशमं प्राक्षाः समस्तवतभूषणम् ॥228॥
रागादिक दोषों से चित्तवृत्ति के हटने को पण्डित-जन प्रशम कहते हैं। यह प्रशम गुण समस्त व्रतों का भूषण है अर्थात् व्रत वगैरह का पालन करते हुए भी यदि चित्त रागादिक दोषों से नहीं हटता तो वे व्रत एक तरहसे व्यर्थ ही हैं ॥228॥

शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्वात् ।
स्वप्नेन्द्रजालसङ्कल्पाङ्गीतिः संवेग उच्यते ॥229॥
यह संसार शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक कष्टों से भरा है और स्वप्न या जादूगर के तमाशे की तरह चञ्चल है ।इससे डरना संवेग है ॥229॥

सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः ।
धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥230॥
सब प्राणियों के प्रति चित्त का दयालु होना अनुकम्पा है। दयाल पुरुष इसे धर्म का परम मूल बतलाते हैं ॥230॥

प्राप्त श्रते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्ततम ।
मास्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे ॥231॥
रागरोषधरे नित्यं निर्वते निर्दयात्मनि ।
संसारो दीर्घसारैः स्यानरे नास्तिकनीतिके ॥232॥
मुक्ति के लिए प्रयत्नशील पुरुष का चित्त आप्त के विषय में, शास्त्र के विषय में, व्रत के विषय में और तत्त्व के विषय में 'ये हैं' इस प्रकार की भावना से युक्त होता है उसे आस्तिक पुरुष आस्तिक्य कहते हैं। जो मनुष्य रागी और द्वेषी है, कभी व्रताचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मा में दया का भाव ही होता है उस नास्तिक धर्म वालेका संसार भ्रमण बढ़ता ही है ॥231-232॥

(भावार्थ – राग, द्वेष, काम, क्रोध वगैरह की ओर मन का रुझान न होना प्रशम कहलाता है ।अथवा जिन्होंने अपना अपराध किया है, उन प्राणियों को भी किसी प्रकार का कष्ट न देने की भावना का होना भी प्रशम है। ऐसा प्रशम भाव अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव होने से तथा शेष कषायों का मन्द उदय होने से होता है। अतः वह सम्यक्त्व की पहचान कराने में सहायक है। किन्तु बिना सम्यक्त्व के जो प्रशम भाव देखा जाता है वह प्रशम नहीं है किन्तु प्रशमाभास है ।संसार अनेक तरह की यातनाओं का-तकलीफ़ों का घर है। इसमें कोई भी सुखी नजर नहीं आता। किसी को किसी बातका कष्ट है तो किसी को किसी बातका कष्ट है ।आज जो सुखी दिखायी देते हैं, कल उन्हें ही रोता और कलपता हुआ पाते हैं। ऐसे संसार से मोह न करके सदा उससे बचते रहने में ही कल्याण है। इस प्रकार के भावों का नाम संवेग है। धर्म, धर्मात्मा और धर्म के प्रवर्तक पञ्च परमेष्ठी में मन तभी लग सकता है जब अधर्म, अधर्मी और अधर्म के सर्जकों से अरुचि हो ।तथा इनमें अरुचि तभी हो सकती है जब मनुष्य का मन संसार की विषय-वासनाओं से हट गया हो ।अतः संसार से अरुचि रखने में ही आत्मा का कल्याण है और इसी का नाम संवेग है। मगर वह अरुचि स्वाभाविक होनी चाहिए, बनावटी नहीं। विरागता की लम्बी-चौड़ी बातें करके सिर से पैर तक राग में डूबे रहना संवेग नहीं है। जीव मात्र पर दया करने को अनुकम्पा कहते हैं अर्थात् सबको अपना मित्र समझना और वैर-भाव को छोड़कर निर्द्वन्द्व हो जाना अनुकम्पा है। सच्ची अनुकम्पा सम्यग्दृष्टि के ही होती है क्योंकि बिना अज्ञान के वैर-भाव नहीं होता। मनुष्य समझता है कि मैं चाहूँ तो अमुक को सुखी कर सकता हूँ और चाहूँ तो अमुक को दुःखी कर सकता हूँ। या मुझे अमुक सुख पहुँचा सकता है और अमुक दुःख पहुँचा सकता है ।किन्तु उसका ऐसा समझना कोरा अज्ञान है, क्योंकि जिन जीवों के प्रबल पुण्य का उदय होता है उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता और जिनके प्रबल पाप का उदय होता है उनके हाथ में दिये गये रुपये भी कोयला हो जाते हैं। अतः प्राणियों में इष्ट और अनिष्ट की कल्पना करके किसी को अपना मित्र मानना और किसी को अपना शत्रु मानना अज्ञानता है ।इसलिए सभी पर समान रूप से दयाभाव रखना चाहिए। तथा दूसरों पर दया करना एक तरह से अपने पर ही दया करना है

क्योंकि सबको अपना मित्र समझकर सभी के साथ दया का व्यवहार करने से एक तो अपने हृदय में दुर्भाव उत्पन्न नहीं होंगे, दूसरे, उनके उत्पन्न न होने से अशुभ कर्मों का बन्ध नहीं होगा, तीसरे, हृदय में शान्ति रहने के साथ ही साथ दुनिया में अपना कोई वैरी न रहेगा। अतः दूसरों पर अनुकम्पा करना अपने पर ही अनुकम्पा करना है। सम्यम्दृष्टि में ही इस प्रकार की वास्तविक अनुकम्पा पायी जाती है। धर्म है, जीव है, परलोक है, मुक्ति है, मुक्ति के कारण हैं, इस प्रकार का जो भाव होता है उसे आस्तिक्य कहते हैं। यह आस्तिक्य सम्यग्दृष्टि में ही पाया जाता है इसके होनेपर ही वह आत्म-कल्याण के मार्ग पर लगता है। यह प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य का स्वरूप है। )


सम्यग्दर्शन के तीन भेद


कर्मणां क्षयतः शान्तः क्षयोपशमतस्तथा।
श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं गतौ सर्वत्र जन्तुषु ॥233॥
सम्यग्दर्शन के तीन भेद भी हैं--औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ।जो सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशमसे होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।जो इन सात प्रकृतियों के क्षय से होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। और जो इनके क्षयोपशमसे होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं ।ये तीनों सम्यग्दर्शन सब गतियों में पाये जाते हैं ॥233॥

(भावार्थ – सम्यग्दर्शन के ये तीन भेद अन्तरङ्ग कारण की अपेक्षा से किये गये हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के उपशम सम्यक्त्व ही होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं ।उपशमसम्यक्त्व के दो भेद हैं--प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व ।मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से जो उपशमसम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं और उपशम श्रेणि के अभिमुख हुए जीव के क्षायोपशमिक सम्यक्त्वपूर्वक जो उपशमसम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशमसम्यक्त्व कहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है तो तीन करणों के द्वारा दर्शन मोहनीय का सर्वोपशमन करके ही सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। जो सादि मिथ्यादृष्टि बहुत काल तक मिथ्यात्व में रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह भी दर्शन मोहनीय का सर्वोपशमन करके ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। किन्तु जो सम्यक्त्व से च्युत होकर जल्दी ही सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है वह सर्वोपशमन अथवा देशोपशमन के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। यदि वेदक प्रायोग्य काल के अन्दर ही सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेता है तो देशोपशम के द्वारा ही ग्रहण करता है, नहीं तो सर्वोपशम के द्वारा ग्रहण करता है। दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं और सम्यक्त्व प्रकृति सम्बन्धी देशघाती स्पर्द्धकों के उदय को और शेष दोनों प्रकृतियों के उदयाभाव को देशोपशम कहते हैं। अनादि मिथ्या दृष्टि प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त काल पूरा होने पर नियम से मिथ्यात्व में ही आता है और सादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व को प्राप्त करके उससे च्युत होने पर दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों में से किसी एक का उदय हो जाने से मिथ्यादृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। वेदक सम्यक्त्व को ही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी कहते हैं ।अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रशस्त उपशम अथवा विसंयोजन होने पर और मिथ्यात्व तथा सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतियों का प्रशस्त उपशम होने पर अथवा उनके क्षय के अभिमुख होने पर देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते हुए जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।जहाँ विवक्षित प्रकृति उदय आने योग्य तो न हो किन्तु उसका स्थिति अनुभाग घटाया या बढ़ाया जा सके अथवा उसका संक्रमण किया जा सके, उसे अप्रशस्त उपशम कहते हैं। ओर जहाँ विवक्षित प्रकृति न तो उदय आने योग्य हो, न उसका स्थिति अनुभाग घटाया या बढ़ाया जा सके और न अन्य प्रकृति रूप संक्रमण ही किया जा सके उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं। वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते हुए भी उसमें सम्यक्त्व को नष्ट कर देने की शक्ति तो नहीं है किन्तु वह सम्यक्त्व में चल मलिन और अगाढ़ दोष पैदा करती है ।जैसे जल एक होकर भी लहरों के उठने पर चञ्चल हो जाता है वैसे ही सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होने से श्रद्धान में कुछ चञ्चलपना आ जाता है और उसके आने से सम्यग्दृष्टि अपने और दूसरों के बनवाये हुए जिनविम्ब वगैरह में यह मेरा है, यह दूसरों का है ऐसा भेद कर बैठता है। इसके सिवा उसके श्रद्धान में अन्य कुछ चञ्चलता नहीं होती। तथा जैसे शुद्ध सोना मल के सम्बन्ध से मलिन हो जाता है वैसे ही वेदक सम्यक्त्व शङ्का वगैरह मल के द्वारा मलिन हो जाता है। तथा जैसे वृद्ध मनुष्य के हाथ की लकड़ी हाथ से छूटती तो नहीं है किन्तु काँपती रहती है वैसे ही वेदक सम्यक्त्वी का श्रद्धान तो नहीं छूटता, किन्तु उसमें थोड़ी शिथिलता रहती है, वह जैन देवों में ही ऐसी भेदकल्पना कर लेता है कि शान्तिनाथ भगवान्की पूजा करने से शान्ति मिलती है, पार्श्वनाथ भगवान्की पूजा करने से धन मिलता है, आदि । क्षायिकसम्यक्त्व दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय होने पर होता है और दर्शन मोहनीय के क्षपण का प्रारम्भ कर्म भूमिया मनुष्य ही तीर्थङ्कर, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में करता है। किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियों में होती है क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों गतियों में से किसी भी एक गतिमें उत्पन्न हो सकता है। इतना विशेष है कि यदि उसने पहले मनुष्यायु का बन्ध किया है तो वह भोगभूमिया मनुष्यों में ही जन्म लेता है, यदि तिर्यञ्चायु का बन्ध किया है तो भोगभूमिया तिर्यञ्चों में ही जन्म लेता है, यदि नरकायुका बन्ध किया है तो प्रथम नरक में ही जन्म लेता हैं और यदि देवायुका बन्ध किया है तो सौधर्मादि कल्पों में या कल्पातीत देवों में जन्म लेता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन सुमेरु की तरह निश्चल और सदा अविनाशी होता है, अन्य सम्यग्दर्शन तो होकर छूट भी जाते हैं, किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं छूटता। जिसे क्षायिकसम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है वह उसी भव में या तीसरे भव में अथवा चौथे भव में मुक्ति लाभ कर लेता है, किन्तु चौथे भव से आगे भव धारण नहीं करता ।इस प्रकार सम्यग्दर्शन के तीन भेदों का स्वरूप जानना चाहिए ।

दशविधं तदाह


सम्यग्दर्शनके दस भेद -

आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।
विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥234॥ -आत्मानुशासन, श्लो० 11
आज्ञा सम्यक्त्व, मार्ग सम्यक्त्व, उपदेश सम्यक्त्व, सूत्र सम्यक्त्व, बीज सम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढ़सम्यक्त्व और परमावगाढ़सम्यक्त्व ये सम्यक्त्वके दस भेद हैं ॥234॥

अस्थायमर्थ :- भगवदहरसर्वक्षप्रणीतागमानुशीसंज्ञा आशा, रत्नत्रयविचारसों मार्गः, पुराणपुरुषचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेशः, यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम्, सकलसमय दलसूचनाव्याजं बीजम्, प्राप्तश्रुतव्रतपदार्थसमासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाकचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णभ्रतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः, प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः, त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतोऽन्यतमदेशावगाहालीढमवगाढम् , अवधिमनःपर्ययकेवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् ।


इनका स्वरूप इस प्रकार है -
  1. भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्त देव के द्वारा उपदिष्ट आगम की आज्ञा को ही प्रमाण मानकर जो श्रद्धान किया जाता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं।
  2. रत्नत्रय रूप मोक्ष के मार्ग का कथन सुनकर जो श्रद्धान हो उसे मार्गसम्यक्त्व कहते हैं ।
  3. तीर्थकर बलदेव आदि पुराण पुरुषों के चरित को सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं।
  4. मुनिजनों के आचार का कथन करने वाले आचारांग सूत्र को सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे सूत्र सम्यक्त्व कहते हैं।
  5. जिस पद में सूचन रूप से समस्त शास्त्रों के अंश छिपे होते हैं उसे बीज कहते हैं। बीज पद को समझकर सूक्ष्म तत्वों के ज्ञानपूर्वक जो श्रद्धान होता है, उसे बीजसम्यक्त्व कहते हैं ।
  6. संक्षेप से आप्त, श्रुत, व्रत और पदार्थों को जानकर उन पर जो श्रद्धान होता है उसे संक्षेप सम्यक्त्व कहते हैं।
  7. बारह अंगों, चौदह पूर्वो और अङ्गबाह्यों के द्वारा विस्तार से तत्वार्थ को सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यक्त्व कहते हैं।
  8. प्रवचन के वचनों की सहायता के बिना किसी अन्य प्रकार से जो अर्थ का बोध होकर श्रद्धान होता है उसे अर्थसम्यक्त्व कहते हैं।
  9. अङ्ग, पूर्व और प्रकीर्णक आगमों के किसी एक देश का पूरी तरह से अवगाहन करने पर जो श्रद्धान होता है उसे अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। और
  10. अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानकर जो प्रगाढ़ श्रद्धान होता है उसे परमावगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं।


(भावार्थ – सम्यक्त्व के ये भेद बाह्य निमित्तों को लेकर किये गये हैं। इनमें से जिनमें तत्त्वार्थ का श्रद्धान आचार्य वगैरह के उपदेश से होता है वे अधिगमज कहलाते हैं और जिनमें स्वतः ही शास्त्रादिक का अवगाहन करके तत्त्वार्थ का श्रद्धान होता है वे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाते हैं। इसी तरह इनमें से जो सम्यक्त्व सरागी के होते हैं वे सरागसम्यग्दर्शन कहलाते हैं और जो वीतरागी के होते हैं वे वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाते हैं। किन्तु इन सभी का अन्तरङ्ग कारण दर्शन मोहनीयका उपशम , क्षय अथवा क्षयोपशम है, उसके बिना तो सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। इनमें से जो सम्यग्दर्शन दर्शन मोहनीय के उपशमसे होते हैं वे औपशमिक कहे जाते हैं, जो दर्शनमोहनीय के क्षय से होते हैं वे क्षायिक कहे जाते हैं और जो दर्शन मोहनीयके क्षयोपशम से होते हैं वे क्षायोपशमिक कहे जाते हैं। इस प्रकार इन सब भेदोंका परस्पर में समन्वय कर लेना चाहिए। )

गृहस्थो वा यतिर्वापि सम्यक्त्वस्य समाश्रयः ।
एकादशविधः पूर्वश्वरमश्च चतुर्विधः ॥235॥
गृहस्थ हो या मुनि हो, सम्यग्दृष्टि, अवश्य होना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्व के बिना न कोई श्रावक कहला सकता है और न कोई मुनि कहला सकता है। गृहस्थ के ग्यारह भेद हैं जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं और मुनिके चार भेद हैं ॥235॥

मायानिदानमिथ्यात्वशैल्यत्रितयमुद्धरेत् ।
आर्जवाकाङ्क्षणाभावतत्त्वभावनकोलकैः ॥236॥
सरलता रूपी कील के द्वारा माया रूपी काँटे को निकालना चाहिए। इच्छा का अभाव रूपी कील के द्वारा निदान रूपी काँटे को निकालना चाहिए और तत्त्वों की भावना रूपी कील के द्वारा मिथ्यात्व रूपी काँटे को निकालना चाहिए ॥236॥

(भावार्थ – माया, निदान और मिथ्यात्व ये तीन शल्य हैं। शल्य काँटे को कहते हैं। जैसे काँटा शरीर में लग जाने पर तकलीफ देता है वैसे ही ये तीनों भी जीवोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुँचाते हैं इसलिए इन्हें शल्य कहते हैं। इन शल्योंको हृदयसे दूर किये बिना कोई व्रती नहीं कहा जा सकता। व्रती होने के लिए केवल व्रतों को धारण कर लेना ही आवश्यक नहीं है किन्तु उनके साथ-साथ तीनों शल्यों को भी निकाल डालना आवश्यक है ।जो मायाचारी है वह कैसे व्रती हो सकता है ? व्रती होने के लिए सरलता का होना जरूरी है ।अतः सरलता के द्वारा मायाचार को दूर करना चाहिए। इसी तरह जो रात-दिन भविष्य के भोगों की ही कामना करता रहता है, उसका व्रत-नियम कैसे निर्दोष कहा जा सकता है ? जो इसलिए उपवास करता है कि उपवास के बाद नाना तरह के पक्वान्न भर पेट खाने को मिलेंगे, जो इसलिए ब्रह्मचर्य पालता है कि शक्ति सञ्चित करके फिर खूब भोग भोगूंगा, या मरकर स्वर्ग में देव होकर अनेक देवाङ्गनाओं के साथ रमण करूँगा, जो इसलिए दान देता है कि उससे मेरी खूब ख्याति होगी, अखबारोंमें गुणगान होगा, मेरी साख बढ़ेगी और फिर मेरा व्यापार चमक उठेगा, उनका उपवास, ब्रह्मचर्य और दान स्तुत्य नहीं कहे जा सकते ।व्रत भोगों की चाह का नियन्त्रण करने के लिए ही बतलाये गये हैं, जिससे व्रती की आत्मा सबल हो। यदि कोई व्रतों के द्वारा भी भोगों की तृष्णा की ही पूर्ति करना चाहता है तो यह उसकी नासमझी है। इसी तरह यदि कोई व्रताचरण करते हुए भी मिथ्यात्व से ग्रस्त है तो उसका व्रताचरण व्यर्थ है, क्योंकि जो सन्मार्ग पर पैर रखकर भी कुमार्ग को छोड़ना नहीं चाहता वह सन्मार्ग पर कभी चल ही नहीं सकता। अतः उक्त तीनों शल्यों के होते हुए व्रताचरण का ढोंग रचा जा सकता है, व्रताचरण नहीं किया जा सकता । इसलिए उन्हें दूर कर देना आवश्यक है।)

सम्यग्दर्शन की महिमा


हेष्टिहीनः पुमानेति न यथा पदमीप्सितम् ।
दृष्टिहीनः पुमानेति न तथा पदमीप्सितम् ॥237॥
जैसे दृष्टि अर्थात् आँखों से हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता ।वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन से हीन पुरुष मुक्तिलाभ नहीं कर सकता ॥237॥

सम्यक्त्वं नागहीनं स्याद्राज्यवत्प्राज्यभूतये ।
ततस्तदङ्गसंगत्यामङ्गी निःसंगमीहताम् ॥238॥
जैसे राज्य के अङ्ग मन्त्री सेनापति वगैरह के बिना राज्य समृद्धिशाली नहीं हो सकता, वैसे ही निःशङ्कित आदि अङ्गों के बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यन्तर और बाह्य विभूति को नहीं दे सकता। इसलिए प्राणी को चाहिए कि सम्यग्दर्शन के अङ्गों को प्राप्त करके निःसंग-- निर्ग्रन्थ दिगम्बर हो जाने की कामना करे ॥238॥

विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते कुतः। .
नहि बीजव्यपायेऽस्ति सस्यसम्पत्तिरङ्गिनि ॥239॥
चक्रिश्रीः संश्रयोत्कण्ठा नाकिश्रीदर्शनोत्सुका।
तस्य दूरे न मुक्तिश्रीनिर्दोषं यस्य दर्शनम् ॥240॥
सम्यक्त्व से रहित प्राणी में सम्यग्ज्ञान वगैरह कैसे हो सकते हैं ? बीज के अभाव में धान्य सम्पत्ति नहीं होती। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है , चक्रवर्ती की विभूति उसका आलिंगन करने के लिए उत्कण्ठित रहती है और देवों की विभूति उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहती है ।अधिक क्या, मोक्षलक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ॥239-240॥

सम्यग्दर्शन के दोष


मूढत्रयं मैदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥241॥
तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका वगैरह, ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं ॥241॥

(भावार्थ – देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ हैं। इनका स्वरूप पहले बतला आये हैं। ज्ञान का मद करना, आदर सत्कार का मद करना, कुल का मद करना, जाति का मद करना, बल का मद करना, ऐश्वर्य का मद करना, तप का मद करना और शरीर का मद करना, ये आठ मद हैं। मद घमण्डको कहते हैं ।कुदेव, कुदेव का मन्दिर, कुशास्त्र, कुशास्त्र के धारक, कुतप और कुतप के धारक ये छह अनायतन हैं। अनगारधर्मामृत में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और उनके धारक इस तरह छह अनायतन कहे हैं। सम्यग्दर्शन के जो आठ अङ्ग बतलाये हैं उनके उल्टे शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा आदि आठ दोष हैं। ये सब मिलाकर सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं। जो सम्यग्दृष्टि इन दोषोंसे रहित होता है उसका सम्यग्दर्शन निर्दोष कहा जाता है।)

मुक्ति के मार्ग में कौन स्थित है ?


निश्चयोचितचारित्रः सुदृष्टिस्तत्त्वकोविदः ।
अवतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्थोऽप्यदर्शनः ॥242॥
स्वरूपाचरण चारित्र का धारक और तत्त्वों का ज्ञाता सम्यग्दृष्टि व्रतों का पालन नहीं करते हुए भी मुक्ति के मार्ग में स्थित है ।किन्तु व्रतों का पालन करते हुए भी जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह मुक्तिके मार्गमें स्थित नहीं है ॥242॥

रत्नत्रय आत्मस्वरूप है


बहिःक्रिया बहिष्कर्मकारणं केवलं भवेत् ।
रत्नत्रयसमृद्धः स्यादात्मा रत्नत्रयात्मकः ॥243॥
बाह्य क्रिया तो केवल बाह्य कर्म की ही कारण होती है। किन्तु रत्नत्रय रूपी समृद्धि का कारण तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रमय आत्मा ही है ॥243॥

विशुद्धवस्तुधीदृष्टिर्बोधः साकारगोचरः
अप्रसङ्गस्तयोवृत्तं भूतार्थनयवादिनाम् ॥244॥
निश्चयनयवादियों के मत में अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि में विशुद्ध आत्मस्वरूप में रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है। विशुद्ध आत्मा को साकार रूप से जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के विषयों में भेद-बुद्धि न करके एकरूप होना, अर्थात् आत्मस्वरूप में लीन होना निश्चयचारित्र है ॥244॥

अक्षाज्ञानं रुचिर्मोहाइहावृत्तं च नास्ति यत् ।

श्रात्मन्यस्मिशिवीभूते तस्मादात्मैव तत्त्रयम् ॥245॥

इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो इन्द्रियों से ज्ञान होता है, न मोह से जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है। अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आत्मस्वरूप ही हैं ॥245॥

(भावार्थ – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं ।किन्तु मोह के रहते हुए सच्चा श्रद्धान नहीं हो सकता, क्योंकि मोह के वशीभूत होकर प्राणी अपने हित-अहित को नहीं समझ पाता। जिससे उसे अपनी वासना की पूर्ति होती हुई दिखाई देती है उसे ही अपने सुख का साधन समझ बैठता है और जब उसी से उसकी वासना की पूर्ति होती हुई नहीं दिखाई देती तब उसे ही दुःखका कारण मान बैठता है। इस तरह मोह के रहते हुए कभी वह सच्चे सुख और उसके साधनों की ओर दृष्टि ही नहीं देता । अतः मोह से मिथ्या श्रद्धान ही होता है, सम्यक्श्रद्धान नहीं। सम्यक श्रद्धान तो आत्मा का गुण है और वह मोह के अभाव में ही प्रकट होता है तथा ज्ञान भी आत्मा का ही गुण है, इन्द्रियों का नहीं। इन्द्रियाँ तो संसार अवस्था में ज्ञान की उत्पत्ति में सहायक मात्र हैं। उनके बिना भी अतीन्द्रिय वस्तुओं का ज्ञान होता है और उनके रहते हुए भी कभी-कभी ज्ञान नहीं होता। अतः ज्ञान भी इन्द्रियों का धर्म नहीं है। तथा चारित्र भी शरीर का धर्म नहीं है; क्योंकि शरीर से कुछ न कुछ करते रहने का नाम चारित्र नहीं है किन्तु कर्मबन्ध के कारणभूत सब क्रियाओं का निरोध करना ही सम्यक्चारित्र है। शारीरिक क्रियाएँ तो कर्मों के आस्रव की कारण हैं ।यदि वे क्रियाएँ शुभ होती हैं तो शुभ कर्म का आस्रव होता है और यदि वे क्रियाएँ अशुभ होती हैं तो अशुभ कर्म का आस्रव होता है। इसके सिवा यदि शरीर से अच्छी क्रिया करते हुए भी मन उस ओर न हो और किन्हीं बुरे विचारों में रमता हो तो शारीरिक क्रिया शुभ होने पर भी उसका फल शुभ नहीं होता; क्योंकि केवल द्रव्य से, यदि उसमें भाव न लगा हो तो कुछ भी कार्य नहीं सध सकता। अतः चारित्र शरीर का धर्म नहीं है आत्मा का धर्म है, शरीर तो केवल शुभाचरण रूप चारित्र में सहायक मात्र है। और फिर जब मुक्ति आत्मस्वरूप है तो वे तीनों आत्मस्वरूप ही होने चाहिए। क्योंकि कहा है कि सम्यग् दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्मा के सिवा अन्य द्रव्य में नहीं रहते। अतः रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्षका कारण है। मुक्तावस्थामें इन्द्रियों के अभाव में भी स्वाभाविक ज्ञानादिक गुण रहते हैं ।यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि जैन सिद्धान्त में वस्तु का विवेचन दो दृष्टियों से होता है, एक व्यवहार-दृष्टि से और दूसरे निश्चय दृष्टि से। व्यवहार-दृष्टिको व्यवहार नय कहते हैं और निश्चय-दृष्टि को निश्चयनय कहते हैं । आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने अपने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक ग्रन्थ के प्रारम्भमें लिखा है कि व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता ही जगत्में धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। और जो केवल व्यवहार को ही जानता है वह उपदेश का पात्र नहीं है क्योंकि जैसे किसी बच्चे में शूर-वीरता, निर्भयता आदि धर्मो को देखकर किसी ने कहा कि 'यह बच्चा तो शेर है'। जो आदमी शेर को नहीं जानता वह समझ बैठता है कि यही शेर है। वैसे ही निश्चय को न जाननेवाला व्यवहार को ही निश्चय समझ बैठता है। किन्तु जो व्यवहार और निश्चय दोनों को जानकर दोनों में मध्यस्थ रहता है, दोनों में से किसी एक नय का ही पक्ष पकड़कर नहीं बैठ जाता वही शिष्य या श्रोता उपदेश का पूरा लाभ उठाता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनों को समझना आवश्यक है ।वस्तु के असली स्वरूप को निश्चय कहते हैं, जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टीका घड़ा कहना । और पर के निमित्त से वस्तु का जो औपचारिक या उपाधिजन्य स्वरूप होता है उसे व्यवहार कहते हैं ।जैसे मिट्टी के घड़े में घी भरा होने के कारण उसे घी का घड़ा कहना ।अतः चूंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आत्मस्वरूप ही हैं, अतः आत्मा का विनिश्चय ही निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्मा का ज्ञान ही निश्चय सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थित होना ही निश्चय सम्यकचारित्र है। किन्तु आत्म-स्वरूप का विनिश्चय तब तक नहीं हो सकता जबतक आत्मा और कर्मों के मेल से जिन सात तत्त्वों की सृष्टि हुई है उनका तथा उनके उपदेष्टा देव, शास्त्र और गुरुओं का श्रद्धान न हो, क्योंकि परम्परा से ये सभी आत्म-श्रद्धानके कारण हैं। इन पर श्रद्धान हुए बिना इन की बातोंपर श्रद्धान नहीं हो सकता और इनकी बातों पर श्रद्धान हुए बिना आत्मा की ओर उन्मुखता, उसकी पहचान और विनिश्चिति उत्तरोत्तर नहीं हो सकती। यही बात सम्यग्ज्ञान के सम्बन्धमें जाननी चाहिए ।वास्तव में देव शास्त्र गुरु और उनके द्वारा उपदिष्ट सात तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान इसीलिए आवश्यक है क्योंकि वह आत्मश्रद्धान और आत्मज्ञान में निमित्त है। इन सबके श्रद्धान और ज्ञान का लक्ष्य आत्म श्रद्धान और आत्म ज्ञान ही है। इसी तरह आत्मा में स्थिति तब तक नहीं हो सकती जब तक उसकी प्रवृत्ति बहिर्मुखी है। अतः उसकी प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी करने के लिए पहले उसे बुरी प्रवृत्तियों से छुड़ाकर अच्छी प्रवृत्तियों में लगाया जाता है। जब वह उनका अभ्यस्त हो जाता है तब धीरे-धीरे उनका भी निरोध करके उसे प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्ति मार्गकी ओर लगाया जाता है ।होते-होते वह उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका विषय केवल आत्मा ही रह जाता है और समस्त परावलम्ब विलीन हो जाते हैं ।यही निश्चयरूप रत्नत्रय है। किन्तु बिना व्यवहार का अवलम्बन किये इस निश्चय की प्रतीति नहीं हो सकती ।अतः अजानकारों को समझानेके लिए व्यवहार का उपदेश दिया जाता है और व्यवहार के द्वारा निश्चयकी प्रतीति करायी जाती है। जब तक जीव सरागी रहता है तब तक वह व्यवहारी रहता है, ज्यों-ज्यों उसका राग घटता जाता है त्यों-त्यों वह व्यवहार से निश्चय की ओर आता जाता है और ज्यों-ज्यों वह निश्चय की ओर आता-जाता है त्यों-त्यों उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र व्यवहार से निश्चय का रूप लेते जाते हैं। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चौथे आदि गुणस्थानों में जो सम्यक्त्व होता है उसमें आत्मविनिश्चिति, आत्मबोध और आत्मस्थिति कतई रहती ही नहीं, यदि ऐसा हो तो उसे सम्यक्त्व ही नहीं कहा जायेगा। दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय जैसी प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम अथवा क्षय हो जाना मामूली बात नहीं है और उनके हो जाने से जीव की परिणति में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है, उसी के कारण उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है, अनेक प्रकृतियों का बन्ध रुक जाता है और अनेकों के स्थिति अनुभाग का ह्रास या क्षय हो जाता है। तभी तो प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के साथसाथ स्वरूपाचरण चारित्र भी बतलाया है जोकि शुद्धात्मानुभव का अविनाभावी है। और शुद्धात्मानुभव सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होता ।अतः भेद-दृष्टि के कारण जो सम्यग्दर्शन व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है उसमें भी आत्मविनिश्चिति, आत्मानुभव और आत्मस्थिति रहती ही है। किन्तु चारित्र मोहनीय आदि के कारण उनमें स्थिरता न आ सकने से वे तीनों एक आत्मरूप नहीं हो पाते।)

(अब आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कैसा है यह स्पष्ट करते हैं-)

नात्मा कर्म न कर्मात्मा तयोर्यन्महदन्तरम् ।
तदात्मैव तदा सत्ता वात्मा व्योमेव केवलम् ॥246॥
न आत्मा कर्म है और न कर्म आत्मा है; क्योंकि दोनों में बड़ा भारी अन्तर है ।अतः मुक्तावस्था में केवल आत्मा ही रहता है और वह शुद्ध आकाश की तरह है ॥246॥

क्लेशाय कारणं कर्म विशुद्ध स्वयमात्मनि ।
नोष्णमम्बु स्वतः किन्तु तदौष्ण्यं वह्निसंश्रयम् ॥247॥
आत्मा स्वयं विशुद्ध है और कर्म उसके क्लेश का कारण है ।जैसे जल स्वयं गरम नहीं होता; किन्तु आग के सम्बन्ध से उसमें गरमी आ जाती है ॥247॥

आत्मा कर्ता स्वपर्याये कर्म कर्तृ स्वपर्यये ।
मिथो न जातु कर्तृत्वमपरत्रोपचारतः ॥248॥
स्वतः सर्वे स्वभावेषु सक्रियं सचराचरम् ।
निमित्तमात्रमन्यत्र वागतेरिव सारिणिः ॥249॥
आत्मा अपनी पर्याय का कर्ता है और कर्म अपनी पर्याय का कर्ता है । उपचार के सिवा दोनों परस्पर में एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं। अर्थात् उपचार से आत्मा को कर्म का और कर्म को आत्मा का कर्ता कहा जाता है परन्तु वास्तव में दोनों अपनी-अपनी पर्यायों के ही कर्ता हैं। समस्त चराचर विश्व स्वयं अपने स्वभाव का कर्ता है, दूसरे तो उसमें निमित्त मात्र हैं। जैसे जल में स्वयं बहने की शक्ति है, किन्तु नाली उसके बहने में निमित्त मात्र है ॥248-249॥

(भावार्थ – आत्मा और कर्म ये दोनों दो स्वतन्त्र पदार्थ हैं। आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है। अतः न चेतन जड़ हो सकता है और न जड़ चेतन हो सकता है । किन्तु दोनों पदार्थों में एक वैभाविकी नाम की शक्ति है ।इस वैभाविकी शक्ति के कारण पर का निमित्त मिलने पर वस्तु का विभावरूप परिणमन होता है। इसी से अनादि काल से जीव कर्मों से बँधा हुआ है। जब राग-द्वेष से युक्त जीव अच्छे या बुरे कामों में लगता है तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरणादिक रूप से उसमें प्रवेश करता है। जैन दर्शन में पुद्गल द्रव्य की 23 वर्गणाएँ मानी गयी हैं। उनमें से एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त संसारमें व्याप्त है ।यह कार्मण वर्गणा ही जीवों के भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप परिणत हो जाती है। जीव उनका कर्ता नहीं है, क्योंकि द्रव्य कर्म पौद्गलिक है, पुद्गल द्रव्य के विकार हैं। उनका कर्ता चेतन जीव कैसे हो सकता है ? चेतन का कर्म चैतन्य रूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतन रूप। यदि चेतन का कर्म भी अचेतन रूप होने लगे तो चेतन और अचेतन का भेद मिट जाने से महान् संकर दोष उपस्थित हो। अतः प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता है, परभाव का कर्ता नहीं है ।जैसे जल स्वभाव से शीतल होता है, किन्तु आग पर रखने से उष्ण हो जाता है। यहाँ पर उष्णता का कर्ता जल को नहीं कहा जा सकता। उष्णता तो अग्नि का धर्म है, वह जल में अग्नि के सम्बन्ध से आयी है, अतः आगन्तुक है, अग्नि का सम्बन्ध अलग होते ही चली जाती है। इसी प्रकार जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर जो पुद्गल द्रव्य कर्म रूप परिणत होते हैं उनका कर्ता स्वयं पुद्गल ही है, जीव उनका कर्ता नहीं हो सकता ।जीव तो अपने भावों का कर्ता है। जैसे यदि कोई सुन्दर युवा पुरुष बाजार से कार्य वश जाता हो और कोई सुन्दरी उस पर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाये तो इसमें पुरुष का क्या कर्तृत्व है ? कर्त्री तो वह स्त्री है, पुरुष उसमें केवल निमित्तमात्र है। वैसे ही जीव तो अपने रागद्वेषादि रूप भावों का कर्ता है। किन्तु उन भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल कर्म रूप परिणत हो जाते हैं। तथा कर्मरूप परिणत हुए पुद्गल द्रव्य जब अपना फल देते हैं तो उनके निमित्त को पाकर जीव भी रागादि रूप परिणमन करता है। यद्यपि जीव और पौद्गलिक कर्म दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तथापि न तो जीव पुद्गल कर्मों के गुणों का कर्ता है और न पुद्गल कर्म जीव के गुणों का कर्ता है। किन्तु परस्पर में दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं। अतः आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है ।)

(इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि जब जीव अपने-अपने कर्म के उदय से जीते और मरते हैं तो जो मारने में निमित्त होता है उसे हिंसा का पाप क्यों लगता है, अतः इसका समाधान करते हैं)

जीवन्तु वा नियन्तां वा प्राणिनोऽमी स्वकर्मतः।
स्वं विशुद्धं मने हिंसन् हिंसक पापभाग्भवेत् ॥250॥
शुद्धमार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोवचोवपुः।
शुद्धान्तरात्मसंपन्नो हिंसकोऽपि न हिंसकः ॥251॥
ये प्राणी अपने कर्म के उदय से जीवें या मरें, किन्तु अपने विशुद्ध मन की हिंसा करने वाला हिंसक है और इसलिए वह पाप का भागी है। जो शुद्ध मार्ग में प्रयत्नशील है, जिसका मन, वचन बौर शरीर शुद्ध है, तथा जिसकी अन्तरात्मा भी शुद्ध है वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं है ॥250-251॥

(भावार्थ – प्रमाद के योग से प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। जैन धर्म के अनुसार अपने से किसी के प्राणों का घात हो जाने मात्र से ही हिंसा नहीं होती। संसार में सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी हैं, किन्तु फिर भी उसे जैन धर्म हिंसा नहीं कहता ।क्योंकि हिंसा दो प्रकार से होती है एक कषाय से यानी जान-बूझकर और दूसरे अयत्नाचार या असावधानी से। जब एक मनुष्य क्रोध, मान, माया या लोभ के वश होकर दूसरों पर वार करता है तो वह कषाय से हिंसा कही जाती है और जब मनुष्य की असावधानता से किसीका घात हो जाता है या किसी को कष्ट पहुंचता है तो वह अयत्नाचार से हिंसा कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख-भालकर कार्य करता है और उस समय उसके चित्त में कोई कषाय भी नहीं है फिर भी यदि उसके द्वारा किसी को वध हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा जाता । जैसा कि शास्त्रकारों ने कहा है कि जो मनुष्य देख-देख के मार्गमें चल रहा है, उसके पैर उठाने पर यदि कोई जन्तु उसके पैर के नीचे आ जावे और दबकर मर जावे तो उस मनुष्य को उस जीव के मारने का थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानता से कार्य कर रहा है और उसके द्वारा किसी प्राणी की हिंसा भी नहीं हो रही है तब भी वह हिंसा का भागी है ।जैसा कि शास्त्रकारों ने कहा है कि 'जीव मरे या जिये, असावधानता से काम करने वालों को हिंसा का पाप अवश्य लगता है। किन्तु जो यत्नाचारसे कार्य कर रहा है उसे हिंसा हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता' । वास्तव में हिंसा रूप परिणाम ही हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा जाता है कि उसका भाव हिंसा के साथ सम्बन्ध है। इसीलिए कहा है कि 'जो प्रमादी है वह प्रथम तो अपना ही घात करता है। बाद को अन्य प्राणियों का घात हो या न हो।' अतः जो दूसरों को कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न करता है वह अपने परिणामों का ही घात करने के कारण हिंसक है अतः वह पाप का भागी है। और जो सावधान और अप्रमादी है वह दूसरे का घात हो जाने पर भी हिंसक नहीं है क्योंकि उसके परिणाम पवित्र हैं। इसी से पण्डित आशाधरजी ने अपने सागारधर्मामृतमें लिखा है - 'यदि बन्ध और मोक्ष भावों के ऊपर निर्भर न होता तो जीवों से भरे हुए इस लोक में कौन मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता।')

पुण्यायापि भवेद् दुःखं पापायापि भवेत्सुखम् ।
स्वस्मिन्यत्र वा नीतमचिन्त्यं वित्तवेष्टितम् ॥252॥
सुखदुःखाविधातापि भवेत्पापसमाश्रयः।
पेटीमध्यविनिक्षिप्तं वासः स्यान्मलिनं न किम् ॥253॥
अपने को या दूसरे को दुःख देने से पुण्य कर्म का भी बन्ध होता है और सुख देने से पाप कर्म का भी बन्ध होता है। मन की चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं। जो सुख और दुःख का अकर्ता है वह भी पाप से लिप्त हो जाता है। ठीक ही है, क्या सन्दूक में रखा हुआ वस्त्र मैला नहीं हो जाता ॥252-253॥

बहिष्कार्यासमर्थेऽपि विस्व संस्थिते ।
परं पापं परं पुण्यं परमं च पदं भवेत् ॥254॥
प्रकुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं क्लेशभाजनः ।
यो न चित्तप्रचारशस्तस्य मोक्षपदं कुतः ॥255॥
बाह्य क्रिया न करते हुए भी यदि चित्त चित्त में ही लीन रहता है तो उत्कृष्ट पाप, उत्कृष्ट पुण्य और उत्कृष्ट पद मोक्ष प्राप्त हो सकता है ।जो केवल बाह्य क्रियाओं को करने का ही कष्ट उठाता रहता है और चित्त की चंचलता को नहीं समझता, उसे मोक्ष पद कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥254--255॥

(भावार्थ – कुछ लोग समझते हैं कि दूसरों को दुःख देने से पाप कर्मका बन्ध होता है और सुख देने से पुण्य कर्म का बन्ध होता है। कुछ समझते हैं कि स्वयं दुःख उठाने से पुण्य कर्म का बन्ध होता है और सुख भोगने से पाप कर्म का बन्ध होता है। किन्तु ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है। क्योंकि यदि किसी को अच्छे भावों से दुःख भी पहुँचाया जाय तो वह पाप कर्म के बन्धका कारण नहीं होता। जैसे डाक्टर रोगी को नीरोग कर देने की भावना से चीरा लगाता है। रोगी को महान् कष्ट होता है वह चिल्लाता है और छटपटाता है। फिर भी डाक्टर को चीरा लगाने से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। तथा यदि बुरे भावों से किसीको सुख दिया जाये तो वह पुण्य कर्म के बन्धका कारण नहीं होता। जैसे, कोई वेश्या किसी अनाथ सुन्दरी का पालन-पोषण करके उसे सुख पहुँचाती है जिससे उसके शरीर को बेचकर वह खूब धन जमा कर सके। वह सुखदान वेश्या के पुण्य कर्म के बन्धका कारण नहीं है। इसी तरह स्वयं दुख उठाने से पुण्य कर्म का और सुख उठाने से पाप कर्म का ही बन्ध होता है, यह भी एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि बुरे भावों से दुःख उठाने पर पाप कर्म का ही बन्ध होता है और अच्छे भावों से सुख भोगने पर भी पुण्य कर्म का बन्ध होता है। अतः जैन धर्म में भाव की ही मुख्यता है। भाव की विशुद्धि और अविशुद्धि पर ही पुण्य और पाप कर्म का बन्ध निर्भर है केवल बाह्य क्रिया के अच्छेपन या बुरेपनपर नहीं, क्योंकि एक पूजक भगवान्की पूजा करते समय यदि मन में बुरे विचारों का चिन्तवन करता है तो उसकी बाह्य क्रिया शुभ होने पर भी मन की क्रिया शुभ नहीं हैं इसलिए उसे पुण्य कर्मका बन्ध नहीं होता ।तथा एक पिता बच्चे की बुरी आदत छुड़ाने के लिए उसे मारता है ।यहाँ यद्यपि पिता की बाह्य क्रिया खराब है, देखनेवाले उसे बुरा-भला कहते हैं मगर उसके चित्त में लड़केके कल्याण की भावना समायी हुई है। अतः जो केवल बाह्य क्रियाओं के करने में ही लगे रहते हैं और मन को उनमें लगाने का प्रयत्न नहीं करते वे कभी भी मुक्ति लाभ नहीं कर सकते। चित्त की वृत्तियाँ बड़ी चंचल होती हैं और उनके नियमन पर ही सब कुछ निर्भर है। जो आदमी एकान्त स्थान में ध्यान लगाकर बैठा हुआ है, न वह किसी को दुःख देता है और न किसी को सुख, फिर भी चूंकि उसका मन योग में न लगकर भोग की कल्पनामें रम रहा है अतः वह बैठे-बिठाये पाप कर्म का बन्ध करता है। इसीलिए कहा है कि मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है। उसके द्वारा मनुष्य चाहे तो न कुछ करते हुए भी सातवें नरक का बन्ध कर सकता है और उसीको शुभ विचारों में लगाकर उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध कर सकता है। तथा उसी को शुभ और अशुभ दोनों से हटाकर शुद्धोपयोग में लगा देने से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अतः चित्त के विकल्पों को समझकर उन्हीं के नियन्त्रण का प्रयत्न करते रहना चाहिए तभी बाह्य क्रियाएँ भी फलदायी हो सकती हैं। )

सम्यग्ज्ञान का स्वरूप


यजानाति यथावस्य वस्तुसत्यमजसा ।
तृतीय लोचनं नृणां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥256॥
यष्टिवजानुषान्धस्य तत्स्यात्सुकृतचेतसः ।
प्रवृत्तिविनिवृत्य हिताहितविवेचनात् ॥257॥
जो सब वस्तुओं को ठीक रीति से जैसा का-तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्योंका तीसरा नेत्र है ॥जैसे जन्म से अन्धे मनुष्य को लाठी ऊँची-नीची जगह को बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहित का विवेचन करके धर्मात्मा पुरुष को हितकारक कार्यों में लगाता है और अहित करने वाले कामों से रोकता है ॥256-257॥

मतिर्जागर्ति हटेऽर्थे ऽदृष्टे तथागमः ।
अतोन दुर्लभं तत्त्वं यदि निर्मस्सैरं मनः ॥258॥
मतिज्ञान तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थो को ही जानता है। किन्तु शास्त्र इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के पदार्थो का ज्ञान कराता है । अतः यदि ज्ञाता का मन ईर्षा, द्वेष आदि दुर्भावों से रहित है तो उसे तत्त्व का ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ॥258॥

यद्यर्थे दर्शितेऽपि स्याजन्तोः संतमसा मतिः ।
शाममालोकवत्तस्य वृथा रेविरिपोरिव ॥259॥
शातुरेव स दोषोऽयं यदवाऽपि वस्तुनि ।
मतिविपर्ययं धत्ते यथेन्दौ मन्दचक्षुषः ॥260॥
यदि तत्त्व के जान लेने पर भी मनुष्य की बुद्धि अन्धकार में रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्य का ज्ञान भी व्यर्थ है ॥साफ स्पष्ट वस्तु में भी बुद्धि का विपरीत होना ज्ञाता के ही दोष को बतलाता है। जैसे चन्द्रमा के विषयों काच कामलादि रोग से अस्त नेत्र वाले मनुष्य को विपरीत ज्ञान होता है-एक के दो चन्द्रमा दिखायी देते हैं। यह ज्ञाता की ही खराबी है, चन्द्रमा की नहीं ॥259-260॥

(भावार्थ – जो वस्तु जिस रूप में है उसको वैसा जानना सम्यग ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का फल ही यह है कि वह हित और अहित का ज्ञान कराकर ज्ञाता को हित में लगाये और अहित से बचाये। किन्तु यदि कोई सम्यग्ज्ञान से वस्तु को जानकर भी उसकी उपेक्षा करता है तो यह ज्ञान का दोष नहीं है किन्तु जानने वाले का दोष है। असल में ज्ञान दो कारणों से मिथ्या होता है एक बहिरंग कारण से और दूसरे अंतरंग कारण से ।आँखों में खराबी होने या अन्धकार होने से जो कुछ का-कुछ दिखायी दे जाता है वह बहिरङ्ग कारणों की खराबी या कमीसे होता है ।किन्तु बहिरंग कारणों के ठीक होते हुए भी और वस्तु को जैसा का-तैसा जानने पर भी अन्तरङ्ग में मिथ्यात्व का उदय होने से भी ज्ञाता का ज्ञान मिथ्या होता है। जैसे नशीली वस्तुओं के सेवन से मनुष्य का मस्तिष्क विकृत हो जाता है और उसकी आँखें खुली होने तथा प्रकाश वगैरह के होने पर भी वह कुछ का-कुछ जानता है। वैसे ही मिथ्यात्व का उदय होते हुए ज्ञानी मनुष्य का चित्त भी आत्मकल्याण की ओर न झुककर राग-रंग की ओर ही झुकता है। जो वस्तुएँ उसे रुचती हैं उनसे वह राग करता है और जो वस्तुएँ उसे नहीं रुचती उनसे द्वेष करता है। चूंकि वह ज्ञानी है इस लिए जब वह वस्तु स्वरूप का विवेचन करने खड़ा होता है तो यथावत् विवेचन कर जाता है। किन्तु जब स्वयं उन वस्तुओं में प्रवृत्ति करता है तो उसकी प्रवृत्ति राग-द्वेष के रंग में रंगी होती है। एक ही मनुष्य का यह दो तरह का व्यवहार इस बात को सूचित करता है कि यह ज्ञान की खराबी नहीं है, वह तो अपना काम कर चुका। उसका काम तो इतना ही है कि वस्तु का जैसा का-तैसा ज्ञान करा दे सो वह करा चुका। किन्तु ज्ञाता में जो खराबी है वह खराबी ही ज्ञान के किये-कराये पर मिट्टी फेर देती है। उसी के कारण वह जानते हुए भी नहीं जानता और देखते हुए भी नहीं देखता। अतः ज्ञान वास्तव में तभी सम्यग्ज्ञान होता है जब ज्ञाता में-से मिथ्यात्व बुद्धि दूर हो जाये । जैसे नशे के दूर होते ही मनुष्य की इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं और वह हल्कापन तथा जागरूकता का अनुभव करता है। वैसे ही मिथ्यात्व का नशा दूर होते ही मनुष्य का वही ज्ञान कुछ का-कुछ हो जाता है और तब वह वस्तु के यथावत् स्वरूप का अनुभव करता है वही अनुभव सम्यग्ज्ञान है। )

ज्ञान के भेद


ज्ञानमेकं पुन:धा पबधा वापि तद्भवेत् ।
अन्यत्र केवलवानाचस्पत्येकमनेकधा ॥261॥
सामान्य से ज्ञान एक है। प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से वह दो प्रकारका है। तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःर्यय और केवलज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है। केवलज्ञान के सिवा अन्य चार ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद हैं ॥261॥

(भावार्थ – जो जाने उसे ज्ञान कहते हैं। इस अपेक्षा से सभी ज्ञान एक हैं क्योंकि सभी जानते हैं। किन्तु यह जानना भी अपने-अपने कारणों की अपेक्षा से तथा विषय की स्पष्टता या अस्पष्टता की अपेक्षा से अनेक प्रकार का हो जाता है। जो ज्ञान इन्द्रिय वगैरह की सहायता के बिना केवल आत्मा से ही होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। ऐसे ज्ञान तीन हैं-अवधि, मनःपर्यय और केवल । तथा जो ज्ञान इन्द्रिय, मन वगैरह की सहायता से होता है उसे परोक्ष कहते हैं। ऐसे ज्ञान दो हैं-मति और श्रुत । जो ज्ञान पाँच इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान है। मति ज्ञान के भी चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अवग्रह के दो भेद है -व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ।प्राप्त अर्थ के प्रथम ग्रहण को व्यंजनावग्रह और प्राप्त तथा अप्राप्त अर्थ के प्रथम ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं। जो पदार्थ इन्द्रियों से सम्बद्ध होकर जाना जाता है वह प्राप्त अर्थ है और जो पदार्थ इन्द्रियों से सम्बद्ध न होकर जाना जाता है वह अप्राप्त अर्थ है। चक्षु और मन अप्राप्त अर्थ को ही जानते हैं। शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकार के पदार्थों को जानती हैं। प्राप्त अर्थ में व्यंजनावग्रह के बाद अर्थावग्रह होता है और अप्राप्त अर्थ में व्यंजनावग्रह न होकर अर्थावग्रह ही होता है। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होते ही जो अस्पष्ट ज्ञान होता है उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। और व्यंजनावग्रह के बाद जो स्पष्ट ज्ञान होता है कि 'यह शब्द है' उसे अर्थावग्रह कहते हैं। जैसे मिट्टी के कोरे सकोरे पर जल के दो-चार छीटे देने से वह गीला नहीं होता किन्तु बार-बार बूंद टपकाते रहने से धीरे-धीरे वह गीला हो जाता है। वैसे ही शब्द भी कान में एक बार आने से ही स्पष्ट नहीं हो जाता किन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट होता है। अतः अर्थावग्रह से पहले व्यंजनावग्रह होता है। अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा रूप ज्ञान को ईहा कहते हैं। जैसे शब्द सुनने पर यह जानने की इच्छा होती है कि यह शब्द किसका है ? निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं। जैसे यह शब्द अमुक पक्षी का है। और कालान्तर में न भूलने का कारण जो संस्कार रूप ज्ञान होता है उसे धारणा कहते हैं । जिसके कारण कुछ काल के बाद भी यह स्मरण होता है कि मैंने अमुक पक्षी का शब्द सुना था। इस प्रकार चूंकि व्यंजनावग्रह केवल चार इन्द्रियों से ही होता है इस लिए उसके चार भेद हैं। तथा अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा पाँचों इन्द्रियों और मन से होते हैं ।इस लिए उनके चौबीस - भेद हुए। ये सब मिलाकर मति ज्ञान के अट्ठाईस भेद होते हैं। तथा ये अट्ठाईस मति ज्ञान बहु आदि बारह प्रका रके पदार्थों के होते हैं। इसलिए मतिज्ञान के तीन-सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ।मति ज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर जो विशेष ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। उसके दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । श्रोत्रेन्द्रिय के सिवा शेष चार इन्द्रिय जन्य मति ज्ञान पूर्वक जो श्रुत ज्ञान होता है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं और श्रोत्रेन्द्रियजन्य मति ज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है उसे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं। इन श्रुतज्ञानों के क्षयोपशम की अपेक्षा बीस भेद और हैं। तथा ग्रन्थ की अपेक्षा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । तीर्थकर भगवान् की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधर देव उसका अवधारण करके जो आचाराङ्ग आदि बारह अंग रचते हैं वे अंगप्रविष्ट कहे जाते हैं। और काल दोष से मनुष्यों की आयु तथा बुद्धि कम होती हुई देखकर आचार्य वगैरह जो ग्रन्थ रचते हैं उन्हें अंगबाह्य कहते हैं। इस तरह ग्रन्थात्मक श्रुत के बारह और चौदह भेद हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लेकर मूर्तिक पदार्थ को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । यद्यपि दोनों ही प्रकार के अवधिज्ञान अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमके होने पर ही होते हैं। फिर भी जो क्षयोपशम भव के निमित्त से होता है उससे होने वाले अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहते हैं और जो क्षयोपशम सम्यग्दर्शन आदि गुणों के निमित्तसे होता है उससे होनेवाले अवधि ज्ञान को गुणप्रत्यय कहते हैं। भव प्रत्यय अवधि ज्ञान देव और नारकियों के होता है और गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है। विषय आदि की अपेक्षा से अवधि ज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद किये जाते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि रूप ही होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों रूप होता है। उत्कृष्ट देशावधि परमावधि और सर्वावधि ,संयमी मनुष्य के ही होते हैं। मति, श्रुत और अवधि विपरीत भी होते हैं और उन्हें कुमति, कुश्रुत और कुअवधि या विभङ्ग कहते हैं। अपने या दूसरों के मन में स्थित अर्थ को जो बिना किसी अन्य की सहायता के प्रत्यक्ष जानता है उसे मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान संयमी पुरुषों के ही होता है । उसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति ।जो सरल मन के द्वारा बिचारे गये, सरल वचन के द्वारा कहे गये और सरल काय के द्वारा किये गये मनोगत अर्थ को जानता है उसे ऋजुमति मनःपर्यय कहते हैं। जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा ही चिन्तवन करना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना, सरल मन, सरल वचन और सरल काय है। सरल मन वचन काय के द्वारा अथवा कुटिल मन वचन काय के द्वारा बिचारे गये, कहे गये या किये गये मनोगत अर्थ को जो प्रत्यक्ष जानता है उसे विपुल मति मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। जो बिना किसी अन्य की सहायता के आत्मा से ही सचराचर विश्व को एक साथ प्रत्यक्ष जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं । यह केवलज्ञान अर्हन्त अवस्था के साथ ही प्रकट होता है । इसका कोई भेद नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान पूर्ण है।)

सम्यक्चारित्र का स्वरूप तथा भेद


अधर्मकर्मनिर्मुक्तिधर्मकर्मविनिर्मितिः।
चोरित्रं तव सागारानगारयतिसंश्रयम् ॥262॥
देशतः प्रथमं तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् ।
चारित्रं चारुचारित्रविचारोचितचेतसाम् ॥263॥
देशतः सर्वतो वापि नरो न लभते व्रतम् ।
स्वर्गापवर्गयोर्यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ॥264॥
तुण्डकण्डूहरं शास्त्रं सम्यक्त्वविधुरे नरे ।
ज्ञानहीने तु चारित्रं दुर्भगाभरणोपमम् ॥265॥
बुरे कामों से बचना और अच्छे कामों में लगना चारित्र है। वह चारित्र गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। गृहस्थों का चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियों का चारिक सकल चारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सदविचारों से युक्त हैं वे ही चारित्र का पालन कर सकते हैं। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्ष में-से किसी को भी प्राप्त कर सकने की योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र ही पाल सकता है और न सकल चारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है उसका शास्त्र वाचन मुख की खाज मिटाने का एक साधन मात्र है। और जो मनुष्य ज्ञान से रहित है उसका चारित्र धारण करना अभागे मनुष्य के आभूषण धारण करने के समान है ॥262-265॥

(भावार्थ – बिना सम्यग्दर्शन के शास्त्राभ्यास-ज्ञानार्जन व्यर्थ है और बिना ज्ञान के चारित्र का पालन करना व्यर्थ है )

सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोका जानाकीतिरुवाहता ।
वृत्तात्पूजामवायोति जवाब सामने सिनम् ॥266॥
सम्यग्दर्शन से अच्छी गति मिलती है। सम्यग्ज्ञान से संसार में यश फैलता है । सम्यक्चारित्र से सम्मान प्राप्त होता है और तीनों से मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥266॥

रुचिस्तत्त्वेषु सम्यक्त्वं शानं तत्वनिरूपणम् ।
मौदासीन्यं परं प्राहुर्वृत्तं सर्वनियोज्मितम् ॥267॥
तत्त्वों में रुचि का होना सम्यग्दर्शन है। तत्त्वों का कथन कर सकना सम्यग्ज्ञान है और समस्त क्रियाओं को छोड़कर अत्यन्त उदासीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ॥267॥

वृत्तमग्निरुपायो धीः सम्यक्त्वं च रसौषधिः ।
साधुलिखो भवेदेष तल्लाभादात्मपारदः ॥268॥
चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन परिपूर्ण औषधियों के तुल्य है। इन सबके मिलने पर आत्मारूपी पारदधातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है ॥268॥

(भावार्थ – पारे को सिद्ध करने के लिए रसायनशास्त्री उसमें अनेक औषधियों के रसों की भावना दे-देकर आग पर तपाते हैं तब पारा सिद्ध हो जाता है वैसे ही आत्मारूपी पारद को सिद्ध करने के लिए चारित्ररूपी अग्नि , सम्यग्ज्ञानरूपी उपाय और सम्यग्दर्शनरूपी औषधियाँ आवश्यक हैं। उनके मिलने पर आत्मा सिद्ध अर्थात् मुक्त हो जाता है।)

सम्यक्त्वस्याश्रयश्चित्तमभ्यासो मतिसम्पदः।

चारित्रस्य शरीरं स्याद्वित्तं दानादिकर्मणः ॥269॥
सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है। सम्यग्ज्ञान का आश्रय अभ्यास है। सम्यकचारित्र का आश्रय शरीर है और दाता वगैरह का आश्रय धन है ॥269॥

इत्युपासकाध्ययने रत्नत्रयस्वरूपनिरूपणो नामैकविंशतितमः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में रत्नत्रय का स्वरूप बतलानेवाला इक्कीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।