+ मद्य के दोष -
बाईसवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

पुनर्गुणमणिकटक चेकटकमेव माणिक्यस्य, सुधाविधानमिव प्रासादस्य, पुरुषकारा. नुष्ठानमिव देवसम्पदः, परक्रमावलम्बनमिव नीतिमार्गस्य, विशेषवेदित्वमिव सेव्यत्वस्य, व्रतं हि खलु सम्यक्त्वरलस्योपबृंहकमाहुः । तच देशयतीनां द्विविधं मूलोत्तरगुणाश्रयणात् । तत्र -


जैसे चूना की छुआई से मकान, पौरुष करने से दैव, पराक्रम से नीति और विशेषज्ञता से सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्न को चमका देता है। गृहस्थों के व्रत मूल गुण और उत्तर गुणके भेद से दो प्रकार के होते हैं।

तत्र मद्यमांसमधुत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकैः।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥270॥
अष्ट मूल गुण आगम में पाँच उदुम्बर और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग ये आठ मूल गुण गृहस्थोंके बतलाये हैं ॥270॥

शराब की बुराइयाँ


सर्वदोषोदयो मद्यान्महामोहकृतेमतः ।
सर्वेषां पातकानां च पुरःसरतया स्थितम् ॥271॥
हिताहितविमोहेन देहिनः किं न पातकम् ।
कुर्युः संसारकान्तारपरिभ्रमणकारणम् ॥272॥
मद्य अर्थात् शराब महा मोह को करनेवाला है। सब बुराइयों का मूल है और सब पापों का अगुआ है ॥271॥ इसके पीने से मनुष्य को हित और अहित का ज्ञान नहीं रहता । और हितअहित का ज्ञान न रहने से प्राणी संसाररूपी जंगल में भटकाने वाला कौन पाप नहीं करते ? ॥272॥

मद्यन यादवा नष्टा नष्टा द्यतेन पाण्डवाः।
इति सर्वत्र लोकेऽस्मिन्सुप्रसिद्ध कथानकम् ॥273॥
समुत्पद्य विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल ।
मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय देहिनाम् ॥274॥
मद्यैकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् ।
पूरयेयुर्न संदेहं समस्तमपि विष्टपम् ॥275॥
'मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाञ्च दुर्गतेः ।
मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत् ॥276॥
सब लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि शराब पीने के कारण यादव बरबाद हो गये और जुआ खेलने के कारण पाण्डव बरबाद हो गये ॥273॥ जन्तु अनेक बार जन्म-मरण करके काल के द्वारा प्राणियों का मन मोहित करनेके लिए मद्य का रूप धारण करते हैं ॥274॥ मद्य की एक बूंद में इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैलें तो समस्त जगत्में भर जायें। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥275॥ अतः चूंकि मद्यपान से मन हित अहि तके विचार से शन्य हो जाता है और वह दुर्गति का कारण है, इसलिए इस लोक और परलोक में बुराइयों को पैदा करने वाले मद्य का सज्जन पुरुषों को सदा के लिए त्याग करना चाहिए ॥276॥

श्रूयतामत्र मद्यप्रवृत्तिदोषस्योपाख्यानम्-तदुर्वीश्वराखेर्वगर्वीर्वानलाहुतीभूताहितान्वयनकादेकचक्रात्पुरादेकपानाम परिव्राजको जाह्नवीजलेषु मजनाय व्रजनिजच्छायापरद्विपाशङ्कातिक्रुद्धमदान्धगन्धसिन्धुरोद्धरविषाणविदार्यमाणमेदिनीहृदये विन्ध्याटवीविषये प्ररूढप्रौढयौवनासवास्वादपुनरुक्तकादम्बरीपानप्रसूतासरालविलासग्रहिलाभिर्महिलाभिः सह पलोपदंशवश्यं कश्यमासेवमानस्य महतो मातङ्गसमूहस्य मध्ये निपतितः सन् सीधुसंबन्धविधुरधीसङ्गैर्मातङ्गैरुपरुध्य असौ किलैवमुक्तः–'त्वया मद्यमांसमहिलासु मध्येऽन्यतमसमागमः कर्तव्यः, अन्यथा जीवन्न पश्यसि मन्दाकिनीम्' इति । सोऽप्येवमुक्त स्तिलसर्षपप्रमितस्यापि हि पिशितस्य प्राशने स्मृतिषु महावृत्तयो विपत्तयः श्रूयन्ते। मातङ्गीसङ्गे च मृतिनिकेतनं प्रायश्चेतनम् । य एवंविधां सुरां पिबति न तेन सुरा पीता भवतीति निखिलमखशिखामणौ सौत्रामणौ मदिरास्वादाभिसंधिरनुमतविधिरस्ति । यैश्च पिष्टोदकगुडधातकीप्रायैर्वस्तुकायैः सुरा संधीयते तान्यपि वस्तूनि विशुद्धान्येवेति चिरं चेतसि विचार्यानार्यविद्यार्विधानः कृतमद्यपानस्तन्माहात्म्यात्समाविर्भूतमनोमहामोहः कौपीनमपहाय हारहरव्यवहारातिलचितमातङ्गिकागीतानुगतकरतालिकाविडम्बनावसरो ग्रहगृहीतशरीर इवानीतानेकविकारः पुनर्बुभुक्षाश्रुशुक्षिणिक्षीणकुक्षिकुहरस्तरसमपि भक्षितवान् । प्रादुर्भवदुःसहोद्रेकमदनो मातङ्गी कामितवान् । भवति चात्र श्लोकः- -


मद्यपायी एकपात संन्यासी की कथा


एकपात नाम का एक संन्यासी गंगास्नान करने के लिए एकचक्र नाम के नगर से चला । मार्ग में वह विन्ध्याटवी से गुजरा। वहाँ भीलों का एक बड़ा भारी झुण्ड यौवन मद के साथ शराब पीकर मस्त हुई विलासिनी तरुणियों के साथ मांस और सुराका सेवन कर रहा था। वह संन्यासी उस झुण्ड में जा फँसा। शराब के नशेमें मस्त हुए भीलों ने उसे पकड़ लिया और उससे बोले-'तुझे मद्य, मांस और स्त्री में-से किसी एक का सेवन करना होगा, नहीं तो तू जीते जी गंगा का दर्शन नहीं कर सकता।

यह सुनकर तापसी सोचने लगा- 'स्मृतियों में एक तिल या सरसों बराबर भी मांस खाने पर बड़ी-बड़ी विपत्तियों का आना सुना जाता है। भिल्लनी के साथ सम्बन्ध करने पर प्रायश्चित्त लेना पड़ता है जो मृत्यु का घर है। किन्तु समस्त यज्ञों के सिरमौर सौत्रामणि नाम के यज्ञ में शराब पीने की अनुमति है, और लिखा है कि जो इस विधि से मदिरापान करता है, उसका मदिरापान मदिरापान नहीं है । तथा पीठी, जल, गुड़, धतूरा आदि जिन वस्तुओं से शराब बनती है वे भी शुद्ध ही होती हैं । ' ऐसा चिरकाल तक मन में विचार कर उसने शराब पी ली। उसके पीते ही उसका मन चंचल हो उठा । नशेमें मस्त होकर उसने अपनी लंगोटी खोल डाली। और शराब पीकर मत्त हुई भिल्लनियों के गीत के साथ तालियाँ बजा-बजा कर कूदने लगा। उस समय उसकी दशा ऐसी हो गयी मानो उसके शरीर में कोई भूत घुस गया है। उसने अनेक विकृत चेष्टाएँ की और फिर भूख से पीड़ित होकर मांस भी खा लिया। उससे उसे असह्य कामोद्रेक हुआ और उसने भिल्लनी को भी भोगा।

इस विषय में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -

हेतुशुद्धः श्रुतेर्वाक्यात्पीतमद्यः किलैकपात् ।
मांसमातङ्गिकासगमकरोन्मूढमानसः ॥277॥
"मद्य को उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के शुद्ध होने से तथा वेद में लिखा होने से मूढ़ एकपात ने मद्य पी लिया और फिर उसने मांस भी खाया और भिल्लनी को भी भोगा" ॥277॥

इत्युपासकाध्ययने मद्यप्रवृत्तिदोषदर्शनो नाम द्वाविंशः कल्पः।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में मद्य के दोष बतलाने वाला बाईसवाँ कल्प समाप्त हुआ।