ग्रन्थ :
स्वभाषाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् ।
मांस स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गन्ध से भरा है, दूसरों की जान ले-लेनेपर तैयार होता है, तथा कसाई के घर-जैसे दुस्थान से प्राप्त होता है। ऐसे मांस को भले आदमी कैसे खाते हैं? ॥279 ॥ सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् ॥279॥ कर्माहत्यमपि प्राणी करोतु यदि चात्मनः ।
यदि जिस पशु को मांस के लिए हम मारते हैं, दूसरे जन्म में वह हमें न मारे वा मांस के बिना जीवन ही न रह सके तो प्राणी नहीं करने योग्य पशु-हत्या भले ही करे ।किन्तु ऐसी बात नहीं है। मांसके बिना भी मनुष्यों का जीवन चलता ही है ॥280॥हन्यमानविधिन स्यादन्यथा वा न जीवनम् ॥280॥ धर्माच्छर्मभुजां धर्मे किन्नु विशेषकारणम् ।
धर्म से सुख भोगने वाले न जाने धर्म से द्वेष क्यों करते हैं ? इच्छित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष से कौन द्वेष करता है ॥281॥प्रार्थितार्थप्रदं द्वेष्टु को नामामरपावपम् ॥281॥ अल्पात्यलेशात्सुखं सुष्टु सुधीश्चत्स्वस्य वाञ्छति ।
यदि बुद्धिमान् पुरुष थोड़े से कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें उन कामों को दूसरों के प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए ॥282॥आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥282॥ स सुखं सेवमानोऽपि जन्मान्तरसुखाश्रयः।
जो दूसरों का घात न करके सुख का सेवन करता है वह इस जन्म में भी सुख भोगता है और दूसरे जन्म में भी सुख भोगता है ॥283॥ (धर्म रत्नाकर के पाठ के अनुसार दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि -- 'जो दूसरों के घात के द्वारा सुख भोगने में तत्पर रहता है वह वर्तमानमें सुख भोगते हुए भी दूसरे जन्म में दुःख भोगता है।' आगे के श्लोक को देखते हुए यही अर्थ विशेष उचित प्रतीत होता है)यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः ॥283॥ स पुमान्ननु लोकेऽस्मिन्नुदर्के दुःखवर्जितः॥
जो मनुष्य तात्कालिक सुखोपभोग में आसक्त होकर धर्म-कर्म में मूढ़ नहीं हो जाता अर्थात् धर्म-कर्म करता रहता है, वह इस लोक में और परलोक में दुःख नहीं उठाता ॥284॥यस्तदात्वसुखासङ्गान्न मुह्येद्धर्मकर्मणि ॥284॥ (भावार्थ – धर्मका मतलब केवल पूजा-पाठ कर लेना मात्र ही नहीं है; किन्तु अपने प्रतिदिन के आचरणमें सुधार करना भी है। और वह सुधार है, ऐसे काम न करना जिनसे दूसरों को कष्ट पहुँचता हो ।मांस भक्षण एक ऐसी आदत है जो दूसरे प्राणियों की जान लिये बिना व्यवहार में नहीं लायी जा सकती; क्योंकि बिना किसी प्राणी की जान लिये मांस मिल ही नहीं सकता। अतः जरा से जीभ के स्वाद के लिए किसी प्राणी की मृत्यु का कारण बनना किसी भी समझदार आदमी का काम नहीं है। हमारी यदि जरा-सी खाल भी उचट जाती है तो कितनी वेदना होती है ।फिर कसाई की छुरी से जिसे काटा जाता है, उसकी तकलीफ का तो कहना ही क्या है ? मनुष्य जानता है कि बुराई का फल बुरा है और भलाई का फल भला है। फिर भी वह अपने स्वार्थ के लिए बुराई करने पर उतारू हो जाता है। वह स्वयं तो चाहता है कि मेरे साथ कोई बुरा व्यवहार न करे, मेरी कोई जान न ले, मेरे बच्चों को कोई न सताये, मेरी स्त्री, बहन और बेटीको कोई बुरी निगाह से देखे भी नहीं, मेरा माल-मत्ता कोई चुराये नहीं। किन्तु स्वयं वह दूसरों की जानका ग्राहक बन जाता है, दूसरोंकी बहू-बेटियों को देखकर आवाजें कसता है और मौका मिलते ही दूसरों का माल हड़प कर जाता है। ऐसी स्थिति में उसका यह चाहना कि मेरे साथ कोई बुरा व्यवहार न करे, कैसे ठीक कहा जा सकता है। इसी बुराई को दृष्टि में रखकर ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि थोड़े से कष्ट से खूब सुख भोगना चाहते हो तो उसका एक सीधा उपाय यह है कि जो व्यवहार तुम अपने लिए अनुचित समझते हो उसे दूसरों के साथ भी मत करो। अनेक मनुष्य सुख में ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उन्हें दीन-दुनिया की सुध ही नहीं रहती। फिर वे अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं । ऐसे मदान्ध मनुष्य जीते जी भले ही सुख भोग लें किन्तु मरने पर उनकी दुर्गति हुए बिना नहीं रहती। क्योंकि कहावत है कि 'जब तक तेरे पुण्य का नहीं आता है छोर । अवगुन तेरे माफ़ हैं कर ले लाख करोर' । पुण्य का अन्त आने पर उसकी भी वही दुर्गति होगी जो वह आज दूसरों की करता है । अतः ग्रन्थकार कहते हैं कि जरा से सुख में मग्न होकर उस धर्म-कर्म को मत भूलो जिसका फल सुख के रूप में भोग रहे हो।) स भूभारः परं प्राणी जीवन्नपि मृतश्च सः।
जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में-से एक का भी पालन नहीं करता, वह पृथ्वी का भार है और जीते हुए भी मृत है ॥285॥यो न धर्मार्थकामेषु भवेदन्येसमाश्रयः ॥285॥ स मूर्खः स जडः सोऽशः स पशुश्च पशोरपि।
तथा जो धर्म का फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है वह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशु से भी गया बीता है ॥286॥योऽश्नन्नपि फलं धर्माद्धर्मे भवति मन्दधीः ॥286॥ स विद्वान्स महाप्राज्ञः स धीमान्स च पण्डितः ।
और जो न स्वयं अधर्म करता है और न दूसरों से अधर्म कराता है वह विद्वान् है, बड़ा समझदार है, बुद्धिमान् है और पण्डित है ॥287॥यः स्वतो वान्यतो वापि नाधर्माय समीहते ॥287॥ तत्स्वस्य हितमिच्छन्तो मुश्चन्तश्चाहितं मुहुः ।
जो अपना हित चाहते हैं और अहित से बचते हैं वे दूसरों के मांस से अपने मांस की वृद्धि कैसे करते हैं ॥288॥अन्यमांसैः स्वमांसस्य कथं वृद्धिविधायिनः ॥288॥ यत्परत्र करोतीह सुखं वा दुःखमेव वा।
जैसे दूसरे को दिया हुआ धन कालान्तर में ब्याज के बढ़ जाने से अपने को अधिक होकर मिलता है वैसे ही मनुष्य दूसरे को जो सुख या दुःख देता है, वह सुख या दुःख कालान्तर में उसे अधिक होकर मिलता है। अर्थात् सुख देने से अधिक सुख मिलता है और दुःख देने से अधिक दुःख मिलता है ॥289॥वृद्धये धनवहत्तं स्वस्य तज्जायतेऽधिकम् ॥289॥ मद्यमांसमधुप्रायं कर्म धर्माय चेन्मतम् ।
यदि मद्य, मांस और मधु का सेवन करना धर्म है तो फिर अधर्म क्या है और कौन दुर्गति का कारण है ? ॥290॥अधर्मः कोऽपरः किं वा भवेद् दुर्गतिदायकम् ॥290॥ सधर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् ।
धर्म वही , है जिसमें अधर्म नहीं है ।सुख वही है जिसमें दुःख नहीं है। ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान नहीं . है और गति वही है जहाँ से लौटकर आना नहीं है ॥291॥तज्ज्ञानं यत्र नाशानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥291॥ स्वकीयं जीवितं यद्वत्सर्वस्य प्राणिनः प्रियम् ।
जिस प्रकार सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है उसी तरह दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है । इसलिए हिंसा को छोड़ देना चाहिए ॥292॥तदेतत्परस्यापि ततो हिंसां परित्यजेत् ॥292॥ मांसादिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु ।
जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती। जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते । और जो मधु और उदुम्बर फलोंका भक्षण करते हैं उनमें रहम नहीं होता ॥293॥आनुशंस्थं न मत्र्येषु मधूदुम्बरसेविषु ॥293॥ मधु के दोष मधु मक्षिकामर्मसंभूतबालाण्डविनिपीडनात् ।
मक्खियों के अण्डों के निचोड़ने से पैदा हुए मधु का, जो रज और वीर्य के मिश्रण के समान है, सज्जन पुरुष कैसे सेवन करते हैं ? ॥294॥ मधु का छत्ता व्याकुल शिशु के गर्भ की तरह है और अण्डे से उत्पन्न होने वाले जन्तुओं के छोटे-छोटे अण्डों के टुकड़ों के जैसा है। भील लोधी वगैरह हिंसक मनुष्य उसे खाते हैं। उसमें माधुर्य कहाँ से आया ? ॥295॥जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥294॥ उद्भान्तार्मकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धकजीवितम् ॥295॥ उदुम्बर फल की बुराइयाँ अश्वत्थोदुम्बरप्लान्यग्रोधादिफलेष्वपि ।
पीपल, उदुम्बर जिसे जन्तुफल भी कहते हैं, पाकर और वट वृक्ष वगैरह के फलों में स्थूल जन्तु रहते हैं जो प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। इनके सिवा सूक्ष्म जन्तु भी उनमें पाये जाते हैं जो शास्त्रों के द्वारा जाने जा सकते हैं ॥296॥प्रत्यक्षाः प्राणिनः स्थूलाः सूक्ष्माश्चाममगोचराः ॥296॥ मद्यादिक का सेवन करने वालों से बचो मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् ।
मद्य मांस वगैरह का सेवन करने वाले लोगों के घरों में खान-पान भी नहीं करना चाहिए । तथा उनके बरतनों को कभी भी काम में नहीं लाना चाहिए ॥297॥ जो मनुष्य मद्य आदि का सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ खान-पान करता है उसकी यहाँ निन्दा होती है और परलोक में भी उसे अच्छे फलकी प्राप्ति नहीं होती ॥298 ॥ व्रती पुरुष को चमड़े की मशकका पानी, चमड़े के कुप्पों में रखा हुआ घी, तेल और मद्य, मांस आदि का सेवन करनेवाली स्त्रियों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए ॥299॥तदमंत्रादिसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ॥297॥ कुर्वनवतिमिः सार्धं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ॥298॥ दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चावतोचिताः ॥299॥ (भावार्थ – छोटी से-छोटी बुराई से बचने के लिए बड़ी सावधानी रखनी होती है। फिर आज तो मद्य, मांस का इतना प्रचार बढ़ता जाता है कि उच्च कुलीन पढ़े-लिखे लोग भी उनसे परहेज नहीं रखते। अंग्रेजी सभ्यता के साथ अंग्रेजी खान-पान भी भारत में बढ़ता जाता है। और अंग्रेजी खान-पान की जान मद्य और मांस ही हैं। प्रायः जो लोग शाकाहारी होते हैं उनका भोजन भी रेल्वे वगैर हमें मांसाहारियों के भोजनके साथ ही पकाया जाता है। उसी में-से मांस को बचाकर शाकाहारियों को खिला देते हैं। जो लोग पार्टियों वगैरह में शरीक होते हैं उनमें से कोई-कोई सभ्यता के विरुद्ध समझकर जो कुछ मिल जाता है उसे ही खा आते हैं। इस तरह संगति के दोष से बचे-खुचे शाकाहारी भी मांसादिक के स्वाद से नहीं बच पाते और ऐसा करते-करते उनमें से कोई-कोई मांसाहार करने लग जाते हैं । अंग्रेजी दवाइयों का तो कहना ही क्या है, उनमें भी मद्य वगैरह का सम्मिश्रण रहता है। पौष्टिक औषधियों और तथोक्त विटामिनों को न जाने किनकिन पशु-पक्षियों और जलचर जीवों तक के अवयवों और तेलों से बनाया जाता है। फिर भी सब खुशी-खुशी उनका सेवन करते हैं। ओवल्टीन नाम के पौष्टिक खाद्य में अण्डे डाले जाते हैं फिर भी जैन-घरानों तक में उसका सेवन छोटे और बड़े करते हैं। यह सब संगति दोष का ही कुफल है। उसी के कारण बुरी चीजों से घृणा का भाव घटता जाता है और धीरे-धीरे उनके प्रति लोगों की अरुचि टूटती जाती है। इन्हीं बुराइयों से बचने के लिए आचार्यों ने ऐसे स्त्री-पुरुषों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार का निषेध किया है जो मद्यादिक का सेवन करते हैं। जैनाचार को बनाये रखने के लिए और अहिंसा धर्म को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है कि जैन धर्म का पालन करने वाले कम से-कम अपने खान-पानमें दृढ़ बने रहें । यदि उन्होंने भी देखा-देखी शुरू की और वे भी भोग-विलास के गुलाम बन गये तो दुनिया को फिर अहिंसा-धर्म का सन्देश कौन देगा ? कौन दुनिया को वतायेगा कि शराव का पीना और मांस का खाना मनुष्य को बर्बर बनाता है और बर्वरता के रहते हुए दुनिया में शान्ति नहीं हो सकती। अतः जैसे सफेदपोश बदमाशों से बचे रहने मे ही कल्याण है वैसे ही सभ्य कहे जाने वाले पियक्कड़ों और गोश्तखोरों के साथ खान-पान का सम्बन्ध न रखने में ही सबका हित है। ऐसा करने से आप प्रतिगामी, कूढ़मग्ज या दकियानूसी भले ही कहलावें किन्तु इस की परवाह न करें। आप दृढ़ रहेंगे तो दुनिया आप की बात की कदर करने लगेगी। किन्तु यदि आप ही अपना विश्वास खो बैठेंगे और क्षण-भर की वाहवाही में बह जायेंगे तो न अपना हित कर सकेंगे और न दूसरों का हित कर सकेंगे। मधु भी मद्य और मांस का ही भाई है । कुछ लोग आधुनिक ढंग से निकाले जाने वाले मधु को खाद्य बतलाते हैं। किन्तु ढंग के बदलने मात्र से मधु खाद्य नहीं हो सकता ।आखिर को तो वह मधु-मक्खियों का उगाल ही है।) मांस, और अन्न, दूध वगैरह में अन्तर जीवयोगाविशेषेण मैयमेषादिकायवत् ।
कुछ लोगों का कहना है कि मूंग, उड़द वगैरह में और ऊँट, मेढ़ा वगैरह में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि जैसे ऊँट, मेढ़ा वगैरह के शरीर में जीव रहता है वैसे ही मूंग उड़द वगैरह में भी जीव रहता है। दोनों ही जीव के शरीर हैं। अतः जीव का शरीर होने से मूंग, उड़द वगैरह भी मांस ही हैं ॥300॥मुद्गमाषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे जगुः ॥300॥ तवयुक्तम् तदाह तथा जैसे मांस जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन वा मांसम् ।
किन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है ।क्योंकि मांस जीव का शरीर है यह ठीक है । किन्तु जो जीव का शरीर है वह मांस होता भी है और नहीं भी होता । जैसे, नीम वृक्ष होता है किन्तु वृक्ष नीम होता भी है और नहीं भी होता ॥301॥यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन वा निम्बः ॥301॥ बिजाण्डजनिहन्त्रणां यथा पार्प विशिष्यते ।
जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों में जीव है फिर भी पक्षी को मारने की अपेक्षा ब्राह्मण को मारने में अधिक पाप है। वैसे ही फल भी जीव का शरीर है और मांस भी जीव का शरीर है, किन्तु फल खाने वाले की अपेक्षा मांस खानेवाले को अधिक पाप होता है ॥302॥जीवयोगाविशेषेऽपि तथा फलपलाशिनाम् ॥302॥ स्त्रीत्वपेयत्वसामान्याहारवारिवदीहताम् ।
तथा जिसका यह कहना है कि फल और मांस दोनों ही जीव का शरीर होने से बराबर हैं उसके लिए पत्नी और माता दोनों स्त्री होने से समान हैं और शराब तथा पानी दोनों पेय होने से समान हैं ।अतः जैसे वह पानी और पत्नी का उपभोग करता है वैसे ही शराब और माता का भी उपभोग क्यों नहीं करता ? ॥303॥एष वादी वदन्नेवं मधमातृसमागमे ॥303॥ शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् ।
गौ का दूध शुद्ध है किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है। वस्तु का वैचित्र्य ही इस प्रकार है । देखो, साँप की मणि से विष दूर होता है, किन्तु साँप का विष मृत्यु का कारण है ॥304॥ विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥304॥ अथवा हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे ।
अथवा, मांस और दूध का एक कारण होने पर भी मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है । जैसे कारस्कर नामके विष वृक्ष का पत्ता आयुवर्धक होता है और उसकी जड़ मृत्यु का कारण होती है ॥305॥विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥305॥ अपि च और भी कहते हैं - शरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सपिषि ।
मांस भी शरीर का हिस्सा है और घी भी शरीर का ही हिस्सा है फिर भी मांसमें दोष है, घी में नहीं । जैसे ब्राह्मणों में जीभ से शराबका स्पर्श करने में दोष है पैर में लगाने पर नहीं ॥306॥ जिह्वावन्न हि दोषाय पादे मद्यं द्विजातिषु ॥306॥ विधिश्वेत्केवलं शुद्धथै द्विजैः सर्वे निषेव्यताम् ।
यदि विधि से ही वस्तु शुद्ध हो जाती तो ब्राह्मणों के लिए कोई वस्तु असेव्य रहती ही नहीं ।और यदि केवल वस्तुकी शुद्धि ही अपेक्षित है तो चाण्डाल के घर पर भी भोजन कर लेना चाहिए ॥307॥शुद्धयै चेत्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ॥307॥ तद्रव्यदातपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता ।
अतः द्रव्य, दाता और पात्र तीनों के शुद्ध होनेपर ही शुद्ध विधि बनती है। क्योंकि सैकड़ों संस्कार करने पर भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता ॥308॥ यत्संस्कारशतेनापि नाजातिढिजतां व्रजेत् ॥308॥ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपर्दिनाम् ।
इसलिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवों के मतों की परवाह न करके मांस का त्याग कर देना चाहिए ॥309॥मतं विहाय हार्तव्यं मांसं श्रेयोऽर्थिभिः सदा ॥309॥ यस्तु लौल्येन मांसाशी धर्मधीः स द्विपातकः।
जैसे जो परस्त्रीगामी पुरुष अपनी माता के साथ सम्भोग करता है वह दो पाप करता है, एक तो परस्त्री गमन का पाप करता है और दूसरे माता के साथ सम्भोग करने का पाप करता है। वैसे ही जो मनुष्य धर्म बुद्धि से लालसापूर्वक मांस भक्षण करता है वह भी डबल पाप करता है। एक तो वह मांस खाता है दूसरे धर्म का ढोंग रचकर उसे खाता है ॥310॥ परदारक्रियाकारी मात्रा सत्रं यथा नरः ॥310॥ (भावार्थ – जो व्यक्ति या धर्म मांसाहार को उचित ठहराते हैं वे उसके समर्थन में अनेक कुयुक्तियाँ देते हैं ।उन्हीं का निर्देश तथा परीक्षण ग्रन्थकार ने ऊपर किया है। जीव का शरीर होने मात्र से मांस को अभक्ष्य नहीं बतलाया गया है, किन्तु एक तो किसी पञ्चेन्द्रिय जीव को काटे बिना मांस उत्पन्न नहीं होता ।दूसरे वह अत्यन्त तामसिक भोजन है । दूध, फल वगैरह में यह बात नहीं है। वे पशुओं और वृक्षों को बिना हानि पहुँचाये प्राप्त किये जा सकते हैं तथा उनके खाने से चित्तमें सात्त्विकता आती है ।कहा जा सकता है कि यदि स्वयं मरे हुए जीव का मांस प्राप्त हो जाये तो क्या हानि है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि इससे शुरू में किसी जीवका घात नहीं होगा किन्तु आगे मांस खाने का चश्का लग जाने से दूसरे लोगों के द्वारा मारे गये पशु के मांसमें भी प्रवृत्ति होने लगेगी। जैसे बौद्ध धर्म में त्रिकोटि परिशुद्ध मांस के ग्रहण कर लेने का विधान है तो तिब्बत के लामाओं के लिए शहर से दूर पशु मारे जाते हैं और उनका मांस वह ग्रहण कर लेते हैं। दूसरे, मांस में भी एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है तीसरे, मृत पशु का मांस खानेपर भी तामसिकपना तो बना ही रहता है । वह तो मांसमात्रका धर्म है ।अतः मांसाहार और दुग्ध तथा फलाहार समान नहीं हो सकता । हिन्दू धर्म में यज्ञ के प्रसाद के तौर पर मांस के ग्रहण का विधान कुछ ग्रन्थों में मिलता है । किन्तु जो चीज स्वभाव से ही अशुद्ध है, मन्त्रादिक के द्वारा उसे शुद्ध नहीं किया जा सकता ।यदि मंत्रों के द्वारा स्वभाव से ही अशुद्ध वस्तुएँ भी शुद्ध हो सकती हैं तो फिर तो संसार में अभक्ष्य कुछ रहेगा ही नहीं। अतः यज्ञादिक में मन्त्रपाठ पूर्वक पशु का बलिदान करके उसका मांस खाना भी निरामिषभोजियों के लिए उचित नहीं है। मांस खाना तो बहुत दूर है उसका इरादा करना भी बुरा है। मांस खाने के संकल्पमात्र से भी जो पाप होता है उसके फलके सम्बन्धमें एक कथा है उसे सुनें -) मांसभक्षण संकल्पी राजा सौरसेन की कथा श्रूयतामत्र मांसाशनाभिध्यानमात्रस्यापि पातकस्य फलम्-श्रीमत्पुष्पदन्तभदन्तावतारावतीर्णत्रिदिवपतिसंपादितोयोवेन्दिरासन्यां काकन्यां पुरि श्रावकान्वयसंभूतिः सौरसेनो नाम नृपतिः कुलधर्मानुरोधबुद्धया गृहीतपिशितव्रतः पुनर्वेदवैद्याद्वैतमतमोहितमतिः संजातजाङ्गलजिधित्सानुमतिरङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणाजनापवादाज्जुगुप्समानो मनोविश्रान्तिहेतुना कर्मप्रियनामकेतुना बल्लेवेन रहँसि बिलस्थलजलान्तरालचरतरसमानार्ययन्नप्यनेकराजकार्यपर्याकुलमानसतया मांसभक्षणक्षणं नावाप । कर्मप्रियोऽपि तथा पृथिवीश्वरनिदेशमनुदिनमनुतिष्ठन्नेकदा पृदाकुपाकोपद्वतः प्रेत्य स्वयम्भूरमणाभिधानमुद्रे समुद्रे महादेहबलस्तिमिशिलगिलो बभूव । भूपालोऽपि चिरकालेन कथाशेषतामाश्रित्य पिशिताशनाशयानुबन्धात्तत्रैव सिन्धौ तस्यैव महामीनस्य कर्णबिले तन्मलाशेनशीलः शालिसिक्थंकलकलेवरः शफरोऽभूत् । तदन्वेष पर्याप्तोभयकरणस्तस्य वदनं व्यादाय निद्रायतो गलगुहावगाहे वेलानदीप्रवाह इवानेकं जलचरानीकं प्रविश्य तथैव निकामन्तं निरीक्ष्य 'पापकर्मा निर्भाग्याणां चाग्रणीधर्मा खल्वेष भषो यद्वक्रसंपातरतचेतांस्यपि न शक्रोति अशितुं यादांसि । मम पुनर्यदि हृदयेप्सितप्रभावाईवादेतावन्मानं गात्रं स्यातदा समस्तमपि समुद्रं विद्रुतसकलसत्त्वसंचारमुद्रं विदधामि' इत्यभिध्यानादल्पकायकर्लः शकुलो निखिलनकचक्रचाराधे महादेहाधीनो मीनः कालेन विद्योत्पद्य चोत्तमतस्त्रयरिंशत्सागरोपमायुनिलये निरये भवप्रत्ययायत्ताविर्भूतक्षानविशेषौ तावनिमिषचरौ नारकपर्यायधरौ किलैवमालापं चक्रतुः-'अहो खुद्रमत्स्य, तथा निर्मितकर्मणो दुष्कर्मणो ममाभागतिरुचितैव । तव तु मत्कर्णविले मलोपजीवनस्य कथमत्रागमनमभूत् ? हे महामत्स्य, चेष्टितादपि दुरन्तदुःखसंबन्धनिबन्धनादशुभध्यानात् । ' भवति चात्र श्लोकः भगवान् पुष्पदन्त के जन्मोत्सव से पवित्र काकन्दी नगरी में श्रावककुलोत्पन्न सौरसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसने अपना कुल धर्म समझकर मांस खाने का त्याग कर दिया था। बाद में कुछ वैदिकों, वैद्यों और शैवों के कहनेसे उसे मांस खाने की रुचि उत्पन्न हुई ।किन्तु की हुई प्रतिज्ञा को न निबाहने के लोकापवाद से वह डरता था। उसका कर्मप्रिय नाम का रसोइया एकान्त में अनेक जलचर, थलचर और बिलों में रहनेवाले जन्तुओं का मांस तैयार करता था किन्तु अनेक राजकार्यों में घिरे रहने से उसे मांस खाने के लिए एकान्त समय नहीं मिलता था। इस प्रकार कर्म प्रिय राजा की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन मांस पकाता था। एक दिन उसने साँप का मांस पकाया और उसी के जहर से मरकर वह स्वयंभू रमण नाम के समुद्र में विशालकाय तिमिङ्गिल नाम का महामत्स्य हुआ। कुछ काल के वाद राजा भी मरकर मांस खाने के संकल्प के कारण उसी समुद्र में उसी महामत्स्य के कानमें उसका मैल खाने वाला मत्स्य हुआ, जिसका शरीर शाली चावलके बराबर था ।महामत्स्य मुँह खोलकर सोता रहता था और उसके गुफा के समान गहरे गले में नदी के प्रवाह की तरह जलचर जीवों की सेना घुसकर जीवित निकल आती थी। उसे देखकर तन्दुल मत्स्य सोचता- 'यह मत्स्य बड़ा पापी और अभागों में भी सबसे बड़ा अभागा है, जो अपने मुँहमें स्वयं ही आने वाले मत्स्यों को भी नहीं खा सकता। यदि हार्दिक इच्छा के प्रभाव से दैववश मेरा इतना बड़ा शरीर हो जाये तो मैं समस्त समुद्र को जलचर जीवों से शून्य कर दूं।' इस संकल्पसे अल्पकाय तन्दुल मत्स्य और समस्त मगरमच्छों को खानेसे महाकाय महामत्स्य मरकर सातवें नरक में तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न हुए। उन दोनों को भवप्रत्यय नामका कुअवधि ज्ञान था। उसके द्वारा पूर्वजन्म का वृत्तान्त जानकर वे दोनों नारकी आपस में कहते-'तन्दुलमत्स्य ! मैंने बड़ा पाप किया इसलिए मेरा यहाँ आना तो उचित ही था। किन्तु तुम तो मेरे कान के बिल में कान का मैल ही खाया करते थे। तुम यहाँ कैसे आये ?' तब तन्दुल मस्त्य उत्तर देता - 'तुम्हारे कर्म से भी बुरे, महादुःखके कारण अशुभ ध्यान से मरकर मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ।' इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयम्भूमणोदधौ ।
स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में रहने वाला तन्दुलमत्स्य बुरे संकल्प से नरक में गया ॥311 ॥महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधो गतः ॥311॥ -वरांगचरित 5,103 इत्युपासकाध्ययने मांसाभिलाषमात्रफलप्रलपनो नाम चतुर्विंशतितमः कल्पः । इस प्रकार उपासकाध्ययन में मांस की इच्छा मात्र करने का फल बतलानेवाला चौबीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। |