ग्रन्थ :
(अब मांस त्याग के फल के सम्बन्ध में एक कथा कहते हैं, उसे सुनें ) मांस त्यागी चाण्डाल की कथा श्रूयतामत्र मांसनिवृत्तिफलस्योपाख्यानम्-अवन्तिमण्डलनलिनाभिनिवाससरस्यामेकानस्यां पुरि पुरबाहिरिकायां देविलामहिलाविलासविशिखवृत्तिकोदण्डस्य चण्डनाम्नो मातङ्गस्यैकस्यां दिशि निवेशितपिशितोपदंशस्यापरस्यां दिशि विन्यस्तसुरासंभृतकलशस्य तां पलावदंशोदारां सुरां पायं पायं तदुभयान्तराले चर्मनिर्माणतन्त्रां वरत्रां. वर्तयतो वियनिहारोडीनाण्डजडिम्भतुण्डखण्डनविनिष्पन्दिविषधरविषदोषावसरा सुरासीत्। अत्रैवावसरे तत्समीपवर्त्मगोचरे धर्मश्रवणजन्मान्तरादिप्रकाशनपथाभिः कथाभिर्विनेयजनोपकाराय कृतकामचारप्रचारमम्बरान्मूर्तिमत्स्वर्गापवर्गमार्गयमलमिवावतरचारणर्षियुगलमवलोक्य संजातकुतूहलस्तं देशमनुगम्य नगरे तदर्शनेन श्रावकलोकं व्रतानि समाददानमनुस्मृत्य समाचरितप्रणामः सुनन्दनाग्रेसरगमनमभिनन्दनं भगवन्तमात्मोचितं व्रतमयाचत । भगवानपि - अवन्तिदेश की उज्जयिनी नाम की नगरी में नगर के बाहर चण्ड नाम का एक चाण्डाल रहता था । एक दिन वह चाण्डाल मौज ले रहा था। उसके एक ओर मांस के व्यंजन रखे हुए थे। दूसरी ओर शराब से भरे कलश रखे थे । चाण्डाल मांस के व्यंजनों के साथ शराब पीता जाता था और बीच-बीच में चमड़े की रस्सी बटता जाता था। आकाश में उड़ते हुए एक पक्षी शावक का मुँह खुल जाने से एक सर्प शराब में आ गिरा था और उससे शराब विषैली हो गयी थी। इसी समय धर्मोपदेश तथा जन्मान्तर की कथाओं के द्वारा लोगों का उपकार करने के लिए भ्रमण करते हुए दो चारण ऋद्धि के धारी मुनियों को पास में ही आकाशसे उतरते हुए देखकर चाण्डाल को बड़ा कुतूहल हुआ। वह भी उनके समीप गया। वहाँ नगरके श्रावकों को व्रत ग्रहण करते हुए देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और सुनन्दन मुनि के अग्रवर्ती भगवान् अभिनन्दन मुनि से अपने योग्य व्रतकी याचना की। उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य इव धार्मिकः ।
जैसे मेघ सबके उपकार के लिए है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी सबके उपकार के लिए हैं । और जैसे स्थान और अस्थान का विचार किये बिना मेघ सर्वत्र बरसता है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी हित की बात कहने में स्थान और अस्थान का विचार नहीं करते॥३१२॥तत्स्थानास्थानचिन्तेयं वृष्टिवन्न हितोक्तिषु ॥312॥ इत्यवगम्य सम्यगवधिबोधोपयोगादवंगतैतदासनपरासुतायोगस्तन्मातरमेवमवोचत्'अहो मातङ्ग, तदुभयान्तरालसज्जां रज्जु सृजतस्तन्मध्ये तव तन्निवृत्तिव्रतम्' इति । मातङ्गस्तथा प्रतिपद्योपसंद्य च तमवकोशं पिशितं प्राश्य 'यावदहमिदं स्थानकं नायामि तावन्मेऽस्य निवृत्तिः' इत्यभिधाय समासादितमदिरास्थानः प्रतिपन्नपानस्तदुग्रतरगरभरालघुलवित्तमतिप्रसरस्तन्निवृत्तिमलभमानचित्तोऽपि प्रेत्ये तावन्मात्रवतमाहात्म्येन यतकुले यक्षमुख्यत्वं प्रतिपेदे। भवति चात्र श्लोकः -- और जैसे स्थान और अस्थान का विचार किये बिना मेघ सर्वत्र बरसता है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी हित की बात कहने में स्थान और अस्थान का विचार नहीं करते॥३१२॥' ऐसा सोचकर भगवान् अभिनन्दन मुनिने अवधिज्ञान से जाना कि यह चाण्डाल जल्द ही मरने वाला है। अतः वे उससे बोले-'भाई चाण्डाल ! मांस खाने और शराब पीने के बीच में जितनी देर तुम रस्सी बाँटो उतनी देर के लिए तुम मांस और शराब का त्याग कर दो'। चाण्डाल ने इस बात को स्वीकार कर लिया। और वहाँ से चलकर अपने स्थान पर आया। मांस के पास जाकर उसने मांस खाया और संकल्प किया कि जब तक फिर मैं इस स्थान पर नहीं आऊँगा तब तक के लिए मेरे मांस का त्याग है। इसके बाद वह शराब के पास गया और वहाँ उसने शराब पी ।पीते ही तीव्र जहरके प्रभाव से उसकी बुद्धि कुण्ठित हो गयी। अतः यद्यपि वह उसका त्याग नहीं कर सका फिर भी मरकर उतने ही व्रत के प्रभाव से यक्षकुल में प्रधान यक्ष हुआ। इस विषय में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है - चण्डोऽवन्तिषु माता पिशितस्य निवृत्तितः ।
अवन्ति देशमें चण्ड नाम का नाण्डाल बहुत थोड़ी देर के लिए मांस का त्याग कर देने से मरकर यक्षों का प्रधान हुआ ॥313॥अत्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ॥313॥ इत्युपासकाध्ययने मांसनिवृत्तिफलाख्यानो नाम पञ्चविंशतितमः कल्पः । इस प्रकार उपासकाध्ययन में मांस त्याग के फल को कहने वाला पचीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । |